पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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दैनिक दिनचर्या पर रंगों का प्रभाव
रंगों का मानव स्वभाव पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। हर रंग का अपना विशिष्ट गुण है और ये रंग मानव को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करते है। लेश्याध्यान रंगों का ध्यान है। माना जाता है कि जैसे लेश्या के रंग होते हैं वैसा ही व्यक्ति का आभामंडल बनता है। लेश्या अच्छी तथा बुरी दोनों ही प्रकार की होती है। आभामंडल शरीर के चारों ओर सूक्ष्म वलय होता है जिसे सामान्य आंखों से नहीं देखा जा सकता है। लेश्याध्यान में रंगों के द्वारा बुरी लेश्या को अच्छी लेश्या में बदला जा सकता है जिससे आभामंडल भी शुद्ध हो जाता हैै। लेश्याध्यान भाव शुद्धि का प्रयोग है। भाव ही व्यक्ति के व्यवहार का आदि स्रोत है। अतः भाव-शुद्ध होने पर व्यवहार भी शुद्ध होता है। लेश्याध्यान के प्रयोग में संबंधित रंग को चमकता हुआ आभामंडल में काल्पनिक रूप से देखते है। तत्पश्चात् इसे श्वास के साथ शरीर के भीतर लेते है। जिस केन्द्र से रंग का सम्बन्ध होता है, उस केन्द्र से अमुख रंग के प्रकाश को आभामंडल में फैलाता हुआ देखते है। इसके बाद भावना की जाती है।
लेश्याध्यान में प्रमुख पांच केन्द्र तथा उनके पांच रंग निर्दृष्ट किये गये है। आध्यात्मिक दृष्टि से लेश्याध्यान का प्रयोग भाव-शुद्धि का प्रयोग है। वैज्ञानिक दृष्टि से प्रत्येक रंग की अपनी तरंग दैध्र्यता होती है तथा प्रत्येक रंग की अपनी प्रकृति होती है। ये तत्व व्यक्तित्व को प्रभावित करते है। रंग-चिकित्सा में भी इन अतःस्रावी ग्रंथियों का सम्बन्ध रंग से होता है जिससे अनेक प्रकार के रोगों से उपचार किया जा सकता है। अतः ग्रंथियों के स्राव को भी रंगों के ध्यान द्वारा संतुलित किया जा सकता है। यह सत्य है कि जो व्यक्ति सूर्य प्रकाश का जितना ही अधिक सेवन करेगा उसकी दिमागी शक्ति उतनी ही विकसित होगीं। सूर्य प्रकाश के सेवन से मस्तिष्क में एक प्रकार की चुम्बकीय शक्ति आती है, जो मनुष्य को बुद्धिमान बना देती है। हमारे पूर्वज मुनि-ऋषि इसी सूर्योपासना के बदौलत बुद्धिमान बने। जिनकी जोड़ का एक भी बुद्धिमान व्यक्ति भविष्य मंे अब पैदा होगा या नहीं, संदिग्ध ही है।
तैत्तरीय ब्राह्मण में लिखा है कि उदय तथा अस्त होते हुए सूर्य को ध्यान करता हुआ ब्राह्मण सभी सुखों को प्राप्त करता है। अग्नितत्व से शेष चारों तत्व (आकाश, वायु, जल, पृथ्वी) तृप्त होते हैं। इसी से संसार में सौन्दर्य है, जीवन है। इसी से फूल खिलते हैं, फल पकते हैं, औषधियों में पृथक-पृथक गुण उत्पन्न होते हैं। इसी से समुद्र का जल बादल बनकर पृथ्वी को सिंचन करता हैं। इसी से हमारे सारे कल कारखाने चलते हैं। इसी से हमारा भोजन पकता है और पचता है। सुख, दुख, पाप, पुण्य, क्रोध, लोभ, मोह, प्रीति, शक्ति आदि सभी वृत्तियां और संस्कार भी सूर्य रश्मियों के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। लोहे का सोना बनाना तथा मुर्दो का जलाया जाना तक, सूर्य विज्ञान से ही सम्भव है।
इस विज्ञान के जानकार हिमालय और तिब्बत में आज भी गुप्त रूप से विद्यमान हैं। पाश्चात्य देशों ने इसी विज्ञान के आधार पर मृत्यु किरण और एटमबम के आविष्कार किये हैं। मगर सूर्यरश्मियों के अनन्त शक्तियों एवं गुणों के मुकाबले ये आविष्कार कुछ भी नहीं हैं। अग्नि-तत्व के (शरीर में) अभाव के कारण शरीर निर्जीव हो जाता है, और कमी की वजह से शरीर में सुस्ती, सिकुड़न, सर्दी की सूजन, वायु जनित पीड़ाएं, पक्षाघात, गठिया, बुढ़ापे की कमजोरी, मन्दाग्नि निद्रा की अधिकता, कोष्ठबद्धता तथा ठंड आदि के उपद्रव आरम्भ हो जाते हैं और आंख, नख जिह्ा, विष्टा तथा पेशाब लाल पीले या लाल रंग के हो जाते हैं। मुंह का जायका खट्टा-कडुआ हो जाता है। मिजाज तेज और क्रोधी हो जाता है, तथा दुबलापन, अंग-अंग खुश्की, और प्यास की अधिकता आदि रोग आ घेरते हैं।
अग्नि तत्व के अंतर्गत प्रकाश की विभिन्न किरणें भी रोगोपचार में सहायक है। लाल किरणों के प्रकाश से वायु से जोड़ों का दर्द, सर्दी का दर्द, सूजन, मोच, लकवा शीतांग आदि स्नायु मण्डल के सभी रोगों में उपकारी है। इसे लुले-लंगडे़ मनुष्य तक अच्छे हो जाते है। यह रंग विद्युत गुण वाला भी होता है। शरीर के निर्जिव भाग को चैतन्यता प्रदान करने में अद्वितीय है। शरीर के किसी भाग में यदि गति न हो तो लाल प्रकाश डालने से उस भाग में चैतन्यता आ जाती है। नारंगी किरणों के प्रकाश से भी अनेक रोगों में लाभ होते है-यह रंग गर्मी बढ़ाता है। यह रंग पुराने रोगों में तीन दिन तक पहले देकर पेट को साफ करने के काम में लाया जाता है और तब असल रोग की दवा दी जाती है। यह रंग दमा रोग के लिए अक्सीर है। नसों की बीमारी और लकवा आदि वात-व्याधियों की एक ही औषधि है। तिल्ली के बढ़ने, मुत्राशय और आंतों की शिथिलता, उपदंश आदि रोगों में भी नारंगी किरण तप्त जल काम में आता है।
पीली किरणों के प्रकाश के भी अनेक लाभ है-वसन्त ऋतु में पीला पहनना लाभकारी है, गर्मी के दिनों में सफेद। क्योंकि सफेद रंग ठंडा होता है। शीत में काले रंग का एक कपड़ा जरूर पहनना चाहिए, किन्तु उसके नीचे सफेद रंग का कपड़ा जरूर पहनना चाहिए, अन्यथा हानिकारक है और बदन में झुर्रियां शीघ्र डालता है। पीले रंग का कपड़ा पहनने से ज्ञानतन्तु चैतन्य एवं नीरोग रहते है। मलावरोध, लकवा आदि नहीं होते। यह रंग बुद्धि, विवेक एवं ज्ञान की वृद्धि करने वाला होता है। हरी किरणों का महत्व भी है-इसका स्वभाव मध्यम है। यह रंग आंख और त्वचा के रोगों में विशेष उपकारी है। यह रंग भूख बढ़ाता है। जिसको गर्मी, खुजली, नासूर आदि चर्म रोग हों, उन्हें हरे रंग का कपड़ा पहनना चाहिए। चेचक रोग में यह रंग बड़ा लाभ करता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)