लेखक : कमलेश मीणा (सहायक क्षेत्रीय निदेशक)
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र जयपुर, राजस्थान।
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कांशीराम ने सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक और संवैधानिक रूप से देश के दबे, कुचले, वंचित, हाशिए और गरीब लोगों के जीवन में राजनीतिक भागीदारी के माध्यम से सशक्त बदलाव किया। कांशीराम वास्तविक जन नायक थे जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र में भेदभाव, शोषण और असंवैधानिक व्यवहार के खिलाफ संवैधानिक समान भागीदारी और न्याय के लिए लड़ाई लड़ी: कमलेश मीणा।
हम इस जन नेता को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उन्होंने हमें समानता, न्याय, संवैधानिक अधिकार और शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समान भागीदारी प्राप्त करने के लिए लोकतंत्र में हमेशा महत्वपूर्ण भागीदारी सिखाई।
स्वर्गीय "मान्यवर" कांशीराम की 87वीं जयंती के अवसर पर, राष्ट्र लोकतांत्रिक मूल्यों और भागीदारी के माध्यम से सामाजिक न्याय आंदोलन के इस सबसे आराध्य जन नेता को पुष्पांजलि अर्पित कर रहा है। मान्यवर कांशीराम ने भारतीय समाजों के सबसे पिछड़े समूहों के लिए राजनीति में समावेशी भागीदारी का रास्ता दिखाया और उन्होंने लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से राजनीतिक, शैक्षिक, प्रशासनिक रूप से सशक्त बनाया। 15 मार्च को मान्यवर कांशीराम का जन्मदिन है और इस वर्ष हम देश भर में इस सामाजिक न्याय के महान व्यक्ति की 87वीं जयंती मना रहे हैं। स्वर्गीय कांशीराम ने देश की 85 प्रतिशत आबादी के लिए सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, राजनीतिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक और प्रेरणादायक रूप से भारत रत्न डॉ बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की विरासत को पुनर्जीवित किया और यह अंधेरे से बाहर से आने जैसा था। जबकि लगभग डॉ भीम राव अंबेडकर को केंद्र और राज्यों में सत्ताधारी सरकारों द्वारा लगभग भुला दिया गया था। यह दलितों, शोषितों, वंचितों, हाशिए पर खड़े लोगों और राष्ट्र के गरीब लोगों और भारतीय संविधान के जनक और भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक न्याय आंदोलन के स्थापत्य डॉ भीम राव अंबेडकर साहब के खिलाफ साजिश का युग था। कांशीराम ने हमें डॉ. भीम राव अंबेडकर और भगवान बुद्ध का मार्ग दिखाया,जो कहते हैं कि सभी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए और लोकतंत्र में कोई भेदभाव, अन्याय, असमानता और असंवैधानिक व्यवहार स्वीकार्य नहीं है। हर नागरिक को समान अधिकार और समान अवसर मिले और यह पूरी तरह से निर्वाचित सरकारों द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
एक मीडिया विशेषज्ञ, राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक विश्लेषक होने के नाते, मैं यहां कहूंगा कि 14 अप्रैल को बाबा साहब भीम राव के जन्म दिवस के अवसर पर अवकाश की मांग के आंदोलन के माध्यम से मान्यवर कांशीराम द्वारा भारतीय सामाजिक आंदोलन में प्रवेश करना एक चमत्कार की तरह था। बाद में इस ऊर्जावान व्यक्ति को देश भर में लोगों के दिलों और दिमागों में "मान्यवर" के रूप में जाना गया और आज भी "मान्यवर" कांशीराम साहब के नाम से जाना जाता है। भारतीय राजनीति में "मान्यवर" का प्रवेश हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे ऐतिहासिक चमत्कार और उल्लेखनीय अनुभव था। उनकी विचारधारा ने भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली के भूगोल को बदल दिया और उनका राजनीतिक नेतृत्व जनता के लिए तीसरे सबसे बड़े राजनीतिक मंच के रूप में उभरा। प्रारंभ में कांशीराम केंद्र सरकार के संगठन रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) के वैज्ञानिक लैब असिस्टेंट के पद पर थे और बाद में उन्होंने सरकारी कर्मचारी से इस्तीफा दे दिया और एक कर्मचारी संघ का गठन किया जिसे बामसेफ (BAMCEF) के नाम से जाना जाता है। भारतीय लोकतंत्र में "मान्यवर" कांशीराम साहब के प्रवेश ने सभी जातिगत,चाटुकारिता और जोड़़-घटाव की रणनीति को बदल दिया। यह भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली की सबसे अच्छी वैकल्पिक व्यवस्था थी। जिसने न सिर्फ बहुजन समाज की राजनीति बल्कि पूरी भारतीय राजनीति का व्याकरण बदल कर राजनीति का चेहरा बदल दिया और यह "मान्यवर" कांशीराम साहब का जादुई नेतृत्व था।
आज "मान्यवर" कांशीराम साहब दमित और दबे हुए नेतृत्व के संस्थापक की नींव का पत्थर रखने वाले बहुजन समाज के जन नायक का आज जन्मदिन है। कांशीराम वास्तविक जन नायक थे। 15 मार्च,1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के एक गांव खवासपुर में कांशीराम का जन्म हुआ था। वे जिस परिवार में पैदा हुए थे। वह पहले हिंदू धर्म की चमार जाति का परिवार था। लेकिन बाद में इस परिवार ने सिख धर्म को अपना लिया। इसकी मूल वजह यह बताई जाती है कि जितना भेदभाव हिंदू धर्म में पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ होता था, उतना भेदभाव सिख धर्म में नहीं था।कांशीराम जिस परिवार में पैदा हुए थे, उसे आर्थिक और सामाजिक तौर पर ठीक-ठाक कहा जा सकता है। उनके पिता हरि सिंह के सभी भाई सेना में थे। हरि सिंह सेना में भर्ती नहीं हुए थे क्योंकि जो चार एकड़ की पैतृक जमीन परिवार के पास थी, उसकी देखभाल के लिए किसी पुरुष सदस्य का घर पर होना जरूरी था। इस पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से कांशीराम को बचपन में उतनी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा था। कांशीराम के दो भाई और चार बहनें थीं। इनमें से अकेले कांशीराम ने रोपड़ के गवर्नमेंट कॉलेज से स्नात्तक तक की पढ़ाई पूरी की। 22 साल की उम्र में यानी 1956 में कांशीराम को सरकारी नौकरी मिल गई।
कांशीराम 1958 से डिफेंस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) पुणे की एक प्रयोगशाला में सहायक के तौर पर काम करते थे। यहां आने के बाद उन्होंने देखा कि पिछड़ी जाति के लोगों के साथ किस तरह का भेदभाव और शोषण हो रहा है।कांशीराम के लिए यह स्तब्ध और दुखी कर देने वाला अनुभव था। यहीं से कांशीराम में एक ऐसी चेतना की शुरुआत हुई जिसने उन्हें सिर्फ अपने और अपने परिवार के हित के लिए काम करने वाले सरकारी कर्मचारी के बजाय एक बड़े मकसद के लिए काम करने वाला जन नेता बनने की दिशा में आगे बढ़ा दिया। कांशीराम को अंबेडकर और उनके विचारों से परिचित कराने का काम हमारे सामाजिक आंदोलन की वास्तुकला के जनक और सामाजिक न्याय आंदोलन के सबसे आराध्य नेता माननीय डी के खपारडे साहब ने किया। खपारडे साहब भी डीआरडीओ में ही काम करते थे। वे जाति से महार थे लेकिन बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था। खपारडे साहब ने ही कांशीराम को अंबेडकर की ‘एनाहिलेशन ऑफ कास्ट’ पढ़ने को दी और जिस रात कांशीराम को यह मिली,उस रात वे सोए नहीं और तीन बार इसे पढ़ डाला। यह जातिवाद, भेदभावपूर्ण व्यवस्था और भारत के दबे-कुचले, वंचित, हाशिए और गरीब लोगों के खिलाफ शोषण के बारे में आंख खोलने वाला अनुभव था।
इसके बाद उन्होंने अंबेडकर की वह किताब भी पढ़ी जिसमें उन्होंने यह विस्तार से बताया है और पुस्तक के ज्ञान के माध्यम से वह जान सका था कि शासक सरकार द्वारा उत्पीड़ितों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है और सरकार ने अछूतों का कितना बुरा किया है। कांशीराम ने बाद में कई मौकों पर माना कि इन दो किताबों का उन पर सबसे अधिक असर रहा। यहां से कांशीराम जिस रास्ते पर चल पड़े, उसमें सरकारी नौकरी ज्यादा दिनों तक चलनी नहीं थी। नौकरी छोड़ने पर उन्होंने 24 पन्ने का एक पत्र अपने परिवार को लिखा। इसमें उन्होंने बताया कि अब वे संन्यास ले रहे हैं और परिवार के साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है। वे अब परिवार के किसी भी आयोजन में नहीं आ पाएंगे। उन्होंने इस पत्र में यह भी बताया कि वे ताजिंदगी शादी नहीं करेंगे और उनका पूरा जीवन भारत के दबे-कुचले, वंचित, हाशिए, पिछड़ों और गरीब लोगों के उत्थान को समर्पित करेंगे। जिस दौर में कांशीराम भारत के दबे-कुचले, वंचित, हाशिए, पिछड़ों और गरीब लोगों के उत्थान के मकसद के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे,उस दौर में देश का प्रमुख दलित संगठन रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया थी।
कांशीराम इससे जुड़े और जल्दी ही उनका इससे मोहभंग भी हुआ। 14 अक्टूबर,1971 कांशीराम ने अपना पहला संगठन बनाया। इसका नाम था "शिड्यूल कास्ट, शिड्यूल ट्राइब, अदर बैकवर्ड क्लासेज ऐंड माइनॉरिटी एंप्लॉइज वेल्फेयर एसोसिएशन" संगठन के नाम से साफ है कि कांशीराम इसके जरिए सरकारी कर्मचारियों को जोड़ना चाहते थे। लेकिन सच्चाई यह भी है कि वह एक दूरदर्शी सामाजिक, राजनीतिक विचारक था और कांशीराम बहुत समझदार,चतुर और बुद्धिमान था और कांशीराम का लक्ष्य ज्यादा व्यापक था और शुरू में वह कोई गड़बड़ी और बाधा नहीं चाहता था और न ही वे शुरुआत में कोई ऐसा संगठन नहीं बनाना चाहते थे जिससे उसे सरकार के कोपभाजन का शिकार होना पड़े। 1973 आते-आते कांशीराम और उनके सहयोगियों की मेहनत के बूते यह संगठन महाराष्ट्र से फैलता हुआ दूसरे राज्यों तक भी पहुंच गया। इसी साल कांशीराम ने इस संगठन को एक राष्ट्रीय चरित्र देने का काम किया और इसका नाम हो गया ऑल इंडिया बैकवर्ड ऐंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉइज फेडरेशन।
यह संगठन बामसेफ के नाम से मशहूर हुआ। सन 1973 में कांशी राम ने अपने सहकर्मियो के साथ मिल कर BAMCEF (बेकवार्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीस एम्प्लोई फेडरेशन) की स्थापना की जिसका पहला क्रियाशील कार्यालय सन 1976 में दिल्ली में शुरू किया गया। इस संस्था का आदर्श वाक्य था एड्यूकेट ओर्गनाइज एंड ऐजिटेट। यह घोषणा देश की राजधानी दिल्ली में की गई और 80 के दशक की शुरुआत आते-आते यह संगठन सबसे बड़ा कर्मचारी संगठन बन गया। कांशीराम ने 1981 में डीएस-4 की स्थापना की। डीएस-4 का मतलब है: दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। यह एक राजनीतिक मंच नहीं था लेकिन इसके जरिए कांशीराम न सिर्फ भारत के दबे-कुचले, वंचित, हाशिए, पिछड़ों और गरीब लोगों को बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच भी एक तरह की गोलबंदी करना चाह रहे थे। डीएस-4 संगठन के माध्यम से कांशीराम ने सघन जनसंपर्क अभियान चलाया। उन्होंने एक साइकिल मार्च निकाला, जिसने सात राज्यों में तकरीबन 3,000 किलोमीटर की यात्रा की।
इसी सामाजिक पूंजी से उत्साहित होकर कांशीराम ने 14 अप्रैल,1984 को एक राजनीतिक संगठन स्थापना की। कांशीराम ने सियासत में जो भी हासिल किया,उसमें उस मजबूत बुनियाद की सबसे अहम भूमिका रही जिसे कांशीराम ने डीएस-4 और बामसेफ के जरिए रखा था। भले ही कांशीराम को उस वक्त मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी हो लेकिन देश के सियासी पटल पर कांशीराम के विचारों वाली बहुजन समाज के उभार से राजनीति फिर कभी पहले जैसी नहीं रही। 9 अक्टूबर, 2006 को लंबी बीमारी के बाद कांशीराम का नई दिल्ली में निधन हो गया। कांशीराम ने वास्तविक जमीनी स्तर से लोगों के दिल और दिमाग में बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की दूरदर्शी विचारधारा की प्रासंगिकता स्थापित की। अपने सामाजिक और राजनैतिक कार्यो के द्वारा कांशीराम ने निचली जाति के लोगो को एक ऐसी बुलंद आवाज़ दी जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। कांशीराम के बहुजन समाज ने उत्तर प्रदेश और अन्य उत्तरी राज्यों जैसे मध्य प्रदेश और बिहार में निचली जाति के लोगों को असरदार स्वर प्रदान किया। "मान्यवर" कांशीराम साहब की 87वीं जयंती पर हम इस जन नेता को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)