ग़ज़ल किंग स्व. जगजीतसिंह के जन्म दिवस के अवसर पर विशेष

फूलों पर पड़ी शबनम की रेशमी चोट जैसी झंकार


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जब मीनाकुमारी का निधन हुआ था, तो सदाबहार अभिनेता स्व. देवानन्द साहब ने सदाबहार बात कही थी। उसे ज़रा सुने, मीना जैसी शख्सियत कहाँ जा सकती है और कब तक के लिए जा सकती हैं? कहीं तन्हा बैठी होंगी। कुछ देर रुको वो आती ही होंगी कुछ नए अशआर लेकर। शायद, आप में कुछ लोग नहीं जानते होंगे कि जब मीना गुमनामी के आकाश में खो जाती रही हैं, तो अक्सर अपनी लिखी एक दो ग़ज़ल लिखकर नई रोशनी के साथ खिल उठती थीं। यही बात जगजीतसिंह के बारे में कही जा सकती है। उनका नश्वर शरीर तो 10 अक्टूबर 2011 को ही समय की नाइंसाफी का शिकार हो गया। मग़र चूँकि आज ही के दिन यानी फ़रवरी 08 को राजस्थान के श्रीगंगानगर में उन्होंने पहली किलकारी भरी थी। 

इसलिए उनकी न जाने कितनी गज़लें नज्म एवं भजन कानों में घण्टियाँ बजाने लगे हैं। अजीब सी बात थी कि जिस दिन ब्रेन हेमरेज के कारण वे दिवंगत हुए। उसी शाम पाकिस्तान के गज़लों के एक और नूर गुलाम अली साहब के साथ मुंबई उनकी महफ़िल जमने वाली थी। गुलाम अली साहब आज भी कहते हैं मैं अपने यार के साथ संगत तो कर नहीं पाया था लेकिन यह भी कोई ज़िंदगी हुई कि उन्हें मुझे भी कंधा देना पड़ा। सुना था कि पाकिस्तान में भी न जाने कितनी सूरतें लटक गई थीं, खासकर पूर्व क्रिकेटर अकरम की।जगजीतसिंह को याद करना यानी कभी अपने को फ़िर से पाना है। कभी अपने में फ़िर से लौटना है और फ़िर औफ! रफ़्ता रफ़्ता अपने को भूलना है। जगजीत को सुनने का मतलब है अपनी उदासियों, अपने दुःखो के नए अर्थ खोजना, अपनी गुमशुदा खुशियों के सन्नाटे को फिर से आवाज देना है। पाकिस्तान के एक शायर ने इसी बात को कुछ इस तरह कहा था। 


कोई हवा चले, पता तो चले,

कोई कैसा है, पता तो चले... 

जगजीत की जवानी की शरारतें  सुनें, लेकिन करें नहीं, 

         हुजूर आपका भी एहतराम करता चलूँ,

         इधर से गुज़रा था, सोचा सलाम करता चलूँ

 जगजीत के बारे में लिख रहा हूँ तो चाहें तो समझें शब्दों की आग से खेल रहा हूँ। उनकी आवाज़ एक अदाकारी की तरह भी है, जो कभी हँसाती है, कभी रुला जाती है और कभी कहती है कि कोई बात नहीं बॉस, चिल मारो, चिल! लोग कहते हैं कि जैसे जैसे वक़्त गुजरता है, हरेक ज़ख्म की ताब ठंडी पड़ने लगती है, पर कुछ घाव समय की हवा से फिर हरे होने लगते हैं। जगजीत सिंह के साथ भी यही हुआ। उनके जवान हो रहे बेटे को सन 1990 की एक कलमुँही रात ने सड़क दुर्घटना में बेटे विवेक को लील लिया था। वह रात तो चली गई लेकिन चित्रा एवं जगजीत के अंदर बाहर तक सदियों लम्बा अंधेरा छोड़ गई। 

जगजीततो खैर अपने अकेलेपन को फिर लाइव कांसर्ट से भरने लगे, मग़र चित्रा डिप्रेशन में ऐसी सिमटी कि उजालों का मुंह सालों तक देखा ही नहीं। उधऱ, जगजीत ताज़ा होते जा रहे अपने नासूर से निकली वो दर्दीली, तड़पती, आवाज़ में गाते रहे जो उदासी और गुमसुम रातों में कई लोगों की धमनियों को या तो सर्द करने लगती हैं या फ़िर उनकी ही आवाज़ बन जाती हैं। कभी भारत में ग़ज़लों को खास तबके से जोड़ा जाता था। बेगम अख़्तर एवं तलत अज़ीज़ तक ही साहित्य की इस स्वीकृत शैली को स्वीकृत माना जाता था। मुन्नवर राना जैसे गजलों की ही खाने वाले यहाँ तक कहने लगे हम तो ग़ज़ल को कोठों से बाहर निकालकर घरों में लाए हैं। सही है कि इश्क आशिक़ी, मेहबूबा के गेसुओं की तारीफ की हथकडियोँ से शायद ही ग़ज़ल कभी आबाद हो। 

लेकिन संगीत के सुर ताल तो आसमान में भी छेद करके ही मानते हैं, और फ़िर जगजीत ने स्व.निदा फ़ाज़ली, डॉ. वसीम बरेलवी,स्व. कैफ भोपाली, स्व. डॉ. राहत इंदौरी, क़तील शिफ़ाई, गुलज़ार जैसे शायरों को आजमाया जो बात तो गहरी ही कहते हैं, लेकिन अपने कलाम को बिलावजह गाढ़ा या शब्दों को डिक्शनरी में ढूंढने वाले नहीं बनाते।पाकिस्तान तक के लोग जो इस मामले में भारत को भाव नहीं देते रहे। वहाँ के मीडिया को भी लिखना पडा कि यह तो खुदा की इबादत है, भगवान की पूजा  है। स्व.अटलजी की 51 कविताओं को तो जगजीत ने कम्पोज किया ही, पूर्व पीएम डॉ. मनमोहनसिंह भी उन्हें बड़ी मोहब्बत से सुनते रहे।

नोट करें कि जगजीत ने जब जावेद अख़्तर या डॉ. बशीर बद्र को भी गाया तो ग़ज़ल की मूल आत्मा से छेड़छाड़ न करते हुए उसकी प्रस्तुति को सरल एवं सहज बनाया। इसीलिए लोग कहते हैं कि जगजीत सिंह तो मरकर भी पूरी कायनात में जिंदा हो गए जैसे कबीर, तुलसी बाबा, मीरा, कीट्स, बायरन या कोई और। इसीलिए निदा साहब की कम्पोज की गई उनकी गज़लें दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है या बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। आज भी जस की तस अपना रंग बिखेरती है। उनके कलेक्शन अन्फॉरगेटबल्स से लेकर डिजायर्स में रुमानियत का खजाना है। इन गज़लों में हुस्न, इश्क, मयखाने, गुलशन का हर रंग था। उम्मीद, भांगड़े के बाँकपन, गिद्दा की शरारतें थीं। और थी पंजाब की पाँच नदियों की मस्ती। 

उनकी आवाज़ फूलों पर पड़ी शबनम की चोट की रेशमी झंकार जैसी थी। जगजीत ने देसी वाद्य यंत्रों के साथ पश्चिमी वाद्य यंत्रों के साथ जो संगीत रचाव किया उसकी वजह से उनकी ग़ज़ल का चेहरा तमाम गज़लों से अलहदा था। प्रत्येक शब्द के साथ यह संगीत रचाव धूप के जैसा चलता है। ऐसे मस्त कलन्दर को पढ़ाई लिखाई से क्या लेना देना? मौका देखा और मुम्बई का रुख जेब में सिर्फ 450 रुपए। वे अक्सर कहा करते थे कि अपने पुत्र विवेक की मृत्यु के बाद उन्हें हरेक चीज़ में मौत ही नज़र आती है, लेकिन वे अंतिम साँस तक इसलिए गाते रहना चाहते हैं कि उनके पुत्र की याद में चल रहे सामाजिक कार्यो के लिए धन एकत्र करते रहें। वे यहाँ तक बोल गए थे कि जब बच्चे उन्हें ऑटोग्राफ़ के लिए घेर लेते है, तो उन्हें लगता है कि ऊपर से विवेक अपने दोस्तों से कह रहा है, मेरे पापा का ख्याल रखना। वे मेरे बिना बिलकुल अकेले पड़ गए हैं। 

लेखक : नवीन जैन 

स्वतंत्र पत्रकार 

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