सहज ज्ञान
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बचपन से ही परमपिता भगवान भोलेनाथ मेरे आराध्य (गुरु) रहे हैं। पुराने भजन की एक लाइन "मैं तो शिव की पुजारिन बनूँगी" हमेशा दिल की गहराईयों में बजती रहती हैं। समय के साथ भोलेबाबा के बाक़ी परिवार के लोगों से भी परिचय हुआ - माँ पार्वती, भगवान कार्तिकये एवं गणेश जी, नंदी बैल, वासुकी सर्प इत्यादि। वो भी मुझे अपने से ही लगें। जैसे आमजन शिव परिवार की पूजा करते हैं, मैंने भी उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया। हाँ, उम्र के अनुसार बढ़ती समझ एवं ज्ञान के साथ पूजा करने के तरीक़े वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर परिवर्तित होते गए।
वर्ष 2020 ने इक नयी तरह की समझ विकसित की हैं और शिव अब केवल भगवान ही नज़र नहीं आते बल्कि आदियोगी भी दिखाई देते हैं। यह "सहज ज्ञान" भी जागृत हो गया कि "शिव-शक्ति" तो हमारे शरीर में ही समाये हुए हैं..एक ही समय पर वो "साकार" एवं "निराकार" दोनों हैं। इन दोनों रूपों को एक करने की कुंजी "गन्नू भैया" (भगवान गणेश) के पास हैं और इसीलिए इनको सबसे पहले पूजना पड़ता हैं। चलों इसको एक कहानी के माध्यम से समझते हैं...
शिव महापुराण के अनुसार गणेश जी की उत्पत्ति का वर्णन कुछ इस प्रकार हैं कि एक बार माँ पार्वती कैलाश पर्वत पर अकेली थी और उन्हें स्नान करने के लिए जाना था तो उन्होंने अपने शरीर के मैल से एक बालक की उत्पत्ति की और उसे अपना द्वारपाल बना दिया। उस बालक को माँ पार्वती ने आदेश दिया की वो किसी को भी अंदर प्रवेश ना करने दें। थोड़ी देर में भगवान शिव वहाँ पर आये और अंदर जाने लगे, क्योंकि वो बालक भोलेनाथ को पहचानता नहीं था तो उसने उन्हें भी अंदर जाने से रोक दिया। भगवान् शिव इस बात से क्रोधित हो गए और उन्होंने बालक का सिर धड़ से अलग कर दिया। जब पार्वती माता इस घटना से बहुत दुःखी हो गयी तो भोलेनाथ ने ग़ज़राज का सिर बालक के धड़ से जोड़कर उसे फिर से ज़ीवित कर दिया और उन्हें "गणेश" के नाम से पूजा जाने लगा।
इस कथा को अगर हम अपने शऱीर एवं ज़ीवन चक्र से जोड़ कर देखें तो "अहम् ब्रह्मासि" - मैं ही ब्रह्मांड हूँ की प्रमाणिकता के बारे में ज्ञान मिलता हैं। गणपति अर्थवशीर्ष के अनुसार भगवान गणेश हमारे शऱीर के "मूलाधार चक्र" में स्थापित हैं जो की हमारे शरीर का सबसे निचला (गुह्य) भाग हैं और जिसका सात चक्रों में "पहला" स्थान हैं। इस मूलाधार चक्र के ऊपर ही माँ "शक्ति' "कुंडलिनी" या हमारी सूक्ष्म "आत्मा" अथवा "ऊर्जा" के रूप में सुप्त अवस्था में विराजमान हैं। गणेश उनकी रक्षा में द्वारपाल की भूमिका निभाते हैं। "शिव" जो सातवें चक्र "सहस्त्रार" के रूप में हमारे सिर के ऊपर स्थित हैं, जो "परमात्मा" हैं, और जिनसे मिलने के लिए ही कुंडलिनी शक्ति को जागृत किया जाता हैं और इनके मिलन से ही "चेतना" के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा जा सकता हैं, उसके लिए यौगिक प्रक्रिया में सर्वप्रथम गणेश जी (मूलाधार चक्र) को ही मनाना (जगाना) पड़ता हैं। अब यह कैसे होता हैं?
भगवान गणेश की मुखाकृति - ग़ज़राज की लंबी सूंड को अगर हम ध्यान से देखें तो यह तीन तरीक़े की होती हैं - बाईं तरफ मुढ़ी हुईं (श्री मोती डूंगरी गणेश जयपुर, राजस्थान), दायीं तरफ मुढ़ी हुई (श्री सिद्धि विनायक मुम्बई, महाराष्ट्र) एवं बिलकुल सीधी (दुर्लभ श्रेणी)। यौगिक पद्धति के अनुसार हमारे शऱीर में तीन तरह की मुख्य नाड़ियां होती हैं - "इड़ा" (बायीं), "पिंगला" (दायीं) एवं "सुषुम्ना" (मध्य) जिनमें से ऊर्जा का संचरण होता हैं। तीनों नाड़ियों का उद्गम "मूलाधार चक्र" (गणेश जी का स्थान) से ही होता हैं। बायीं इड़ा नाड़ी "स्त्रीत्व ऊर्जा" (चन्द्रमाँ) और दायीं पिंगला नाड़ी "पुरुषत्व ऊर्जा" (सूर्य) का प्रतिक होती हैं। गणेश जी की सूंड बायीं/ दायीं दिशा में मुड़ी हुई होना उस दिशा से सम्बंधित गुणों (स्त्रीत्व/ पुरुषत्व) का वर्चस्व स्थापित होना दर्शाती हैं। अब यह छोटी सी बात तो हम लिंगभेद (जेंडर) में भी पड़ते आ रहे है कि पुरुष एवं स्त्री के संतुलन से ही एक सभ्य समाज की स्थापना की जा सकती हैं। तो हमारे शरीर में भी इन दोनों ऊर्जाओं के संतुलन करने की प्रक्रिया ही "ध्यान"/ "मैडिटेशन" कहलाती हैं। जब यह दोनों ऊर्जा संतुलित हो जाती हैं (गणेश जी की सीधी सूंड) तो कुंडलिनी शक्ति जो सुषम्ना नाड़ी (मूलाधार चक्र के मध्य) में स्थापित हैं, जाग जाती हैं और सहस्त्रार चक्र से जाकर "एकाकार" हो जाती हैं। जो की मानव जीवन का "सर्वोच्च आनंद" हैं, इसे ही हम आत्मा का परमात्मा से मिलन भी कहते हैं और इसे ही मानव शरीर से मुक्ति / "मोक्ष" भी माना गया हैं।
बस इसी "परम आनंद" की प्राप्ति की कुंजी "गन्नू भैया" के पास हैं, और हाँ उनकी लंबी सूंड एक लक्ष्य को केंद्रित करके लगातार आगे बढ़ते रहने का संकेत भी देती हैं..तभी तो उन्हें ही "बुद्धि" का देवता भी माना गया हैं। कुंडलिनी (शक्ति /आत्मा) का सहस्त्रार (शिव/ परमात्मा) से मिलने के लिए केंद्रित रहकर लगातार आगे बढ़ते रहना ही सबसे आवश्यक प्रक्रिया हैं।
अब मुझे शिव परिवार की सही एवं सटीक व्याख्या समझ में आती हैं... क्यों गन्नू भैया को सबसे पहले पूजा जाता हैं? क्यों शिव परिवार में सब विपरीत स्वभाव के होते हुए भी "संतुलन" बनाए रखने में इतने सफल हैं कि सारे संसार में उनसे बेहतर "परिवार' नहीं मिलता। मुझे यक़ीन हैं कि गन्नू भैया की कृपा से जैसे मुझे इतना "गूढ़" परंतु उतना ही "सरल" ज्ञान प्राप्त हुआ हैं, आप भी स्वमं अपने अनुभव से इस "सहज ज्ञान" को प्राप्त करेंगे और आनंदित रहेंगे।
भक्तवत्सल भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद आप सब पर हमेशा बना रहें। चिदानंद रूपे शिवोह्म शिवोह्म.. (लेखिका के अपने विचार एवं अध्ययन है)