अन्न और मन

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान

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शरीर को चलाने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। बिना भोजन के शरीर चल नहीं सकता। अन्न एक प्रकार का प्राण कहा गया है। अन्न और मन का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसीलिए कहा जाता है कि जैसा खाये अन्न वैसा बने मन। अन्न के प्रभाव से ही मन की सोचने समझने की शक्ति विकसित होती है। प्राचीन काल से ही आपसी रिश्तों में घनिष्ठता और प्रेम बढ़ाने के लिए लोग रिश्तेदारों और मित्रों को अपने घर खाने पर आमंत्रित करते थे। यह परम्परा आज भी चली आ रही है। भोजन सबके यहां नहीं किया जाता। क्योंकि कुधान्य खाने से पाप बढ़ता है और पुण्य नष्ट होता है। किसी भी महिला की पहचान उसके चरित्र से होती है। चरित्रवान महिला ही अपने गुणों से घर को स्वर्ग बना देती है। 

ऐसी स्त्री के घर में अन्नपूर्णा माता स्वयं निवास करती है। उसकी रसोई में पका भोजन प्रसाद समान होता है। इसके विपरित चरित्रहीन महिला का भोजन खाया जाये तो खाने वाले पर उसके चरित्र में बसी नकारात्मकता का संचार होेने लगेगा। जब कोई व्यक्ति खाना बनाता है तो उस खाने में उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के गुण भी आ जाते है। अतः जो व्यक्ति स्वभाव से गुस्सा करता हो उसके हाथ का बना भोजन नहीं करना चाहिए। अन्यथा उसके गुस्से का अवगुण भीतर समाविष्ट हो सकता है। धर्म शास्त्रों में किन्नरों को दान देने का अत्यधिक महत्व बतलाया गया है। मान्यता यह है कि इन्हें प्रसन्न करने के असीम सुख की प्राप्ति होती है। कौन किस भाव से दान दे रहा है यह कोई नहीं जानता। इसलिए उनके घर भोजन नहीं खाना चाहिए। जो लोग अपने घर में नौकरों का ठीक ढ़ंग से ध्यान न रखते हो उन्हं बेवजह परेशान करते हो उनके यहाँ भोजन नहीं खाना चाहिए। क्योंकि नौकरों द्वारा दी गयी हाय आपकों भी लग सकती है। 

जब भी किसी के घर भोजन के लिए जाये तो उस घर के नौकरों को कुछ इनाम अवश्य दें। महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार जिस समय पितामह भीष्म शरशैय्या पर लेटे हुए थे उस समय कौरव और पाण्डव दोनों पक्ष के लोग युद्ध की समाप्ति पर सायंकाल ज्ञानवात्र्ता करने के लिए उनके पास जाया करते थे। पाण्डवों के साथ द्रौपदी भी जाती थी। द्रौपदी भी कुछ पूछना चाहती थी किन्तु स्वभाववश शांत रहती थी। एक दिन पितामह भीष्म ने द्रौपदी से कहा कि बेटी! तुम कुछ पूछना चाहती हो लेकिन पूछ नहीं पाती क्या बात है? द्रौपदी ने कहा पितामह आज जब आप शरशैय्या पर पड़े है तो बहुत ज्ञान का उपदेश दे रहे है। उस दिन जब हमारा चीर हरन हो रहा था और द्युत क्रीडा में मुझको दाव पर लगा दिया गया था तो उस दिन आपने कुछ नहीं कहा। पितामह भीष्म ने उत्तर दिया कि मेने दुर्योधन का कुधान्य खाया था जिससे हमारी बुद्धि मलीन हो गयी थी। सत्य को जानते हुए भी सत्य बोलने की क्षमता मुझमें नहीं थी। क्योंकि जो जिसका अन्न खाता है उसका प्रभाव उसके मन और वाणी पर पड़ता है। 

फलस्वरूप मेरी बुद्धि भी उस समय भ्रष्ट हो गयी थी। इससे यह पता चलता है कि व्यक्ति जैसा अन्न खाता है वैसे उसका मन बन जाता है और जैसा पानी पीता है वाणी भी वैसी बन जाती है, जैसी संगति करता है तो उस पर वैसा रंग चढ़ जाता है। जिस घर में भ्रष्टाचार का धन आता है और उस धन से यदि परिवार का भरण-पोषण होता है तो उस घर के लोगों का मन, वाणी और बुद्धि विकृत हो जाता है। भगवान कृष्ण कौरव और पाण्डव में के मध्य समझौता कराने के लिये जब धृतराष्ट्र के पास गये तो दुर्योधन भी वहां मौजूद था। उसने भगवान कृष्ण के खाने-पीने की उत्तम व्यवस्था करा रखी थी। किन्तु भगवान कृष्ण ने उसका मेवा और पकवान स्वीकार न करके विदुर के घर साकपात को ग्रहण किया। भगवान कृष्ण जानते थे कि दुर्योधन का कुधान्य खाने से बुद्धि मलीन हो जायेगी। इसलिए उन्होंने दुर्योधन का आतिथ्य स्वीकार नहीं किया। अन्न जल से उपजता है जिसे मानव खाता है।

उस अन्न में जो अन्न जिस मानसिक स्थिति से उगाया जाता है और जिस वृत्ति से प्राप्त किया जाता है जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है उसी अनुसार मानव की मानसिकता बनती है। इसीलिए सदैव भोजन शांत अवस्था में पूर्ण रूची के साथ करना चाहिए और कम से कम अन्न जिस धन से प्राप्त हो वह धर्म भी श्रम का होना चाहिए। आज विश्व में अनेक देशों में धर्म के नाम पर अत्याचार किये जा रहे है। वहां के निवासियों के द्वारा ग्रहण किया गया अन्न ही दूषित है। वहां मांस, मदिरा, कुधान्य का सेवन होता है। ऐसा भोजन तामसिक वृत्ति को बढ़ाता है। तामसिक वृत्ति वाले लोगों का मन सदैव क्रूरतापूर्ण होता है। नरसंहार करने में उनके अन्दर थोड़ी सी भी सहानुभूति या दया का भाव नहीं रहता। क्योंकि तामसिक प्रवृत्ति का यह गुण है कि वह मन को कठोर बना देती है। इसलिए मार, काट, हत्या, अपराध, बलात्कार, नरसंहार जैसी घटनाएं विश्व में आम बात हो गयी है। 

अन्न में जो प्रभाव रहता है वह प्रभाव खाने वाले में अवश्य पड़ता है। एक बार एक माता ने क्रोध की अवस्था में अपने बच्चे को दूध पिलाया। परिणाम यह हुआ कि बच्चा अस्वस्थ हो गया। जब बच्चे को डाॅक्टरों के पास ले जाया गया तो डाॅक्टर ने कहा बच्चे को कोई रोग नहीं है किन्तु इस बच्चे को इसकी माता ने जो दूध पिलाया है उसी का परिणाम है की बच्चा अस्वस्थ हो गया है। माता का दूध तो अमृत के समान होता है जिससे बच्चों का पालन-पोषण होता है। किन्तु क्रोध के समय बच्चे का पिलाया गया दूध बच्चे के लिये जहर का काम कर दिया। अतः अन्न जिस भाव से खाया जाता है उसका प्रभाव शरीर पर अवश्य पड़ता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)