सहनशीलता और सब्र सफलता की कुंजी

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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सहनशीलता मानव का सबसे बड़ा गुण है। जिस मानव के अंदर यह गुण रहता है वह महान कहलाता है। जो व्यक्ति जितना सहन करके चलता है उसका चरित्र उतना ही ऊंचा होता है। चरित्र वह हीरा है जो टूटकर जुड़ता नहीं। चरित्र निर्माण मानव की स्वाधीन प्रक्रिया है। चरित्र ही ऐसा है जिसे मानव गढ़ सकता है। यह उसके अपने अधिकार का विषय है। किसी व्यक्ति को किसी बुराई का परित्याग करने को कहा जाता है तो अक्सर उत्तर मिलता है कि क्या करूं मैं मानता हूं कि यह कार्य गलत है किंतु मेरी आदत पड़ गई है, आदत छूटना बड़ा कठिन है। कई तो यहां तक कह देते हैं कि मैंने इस आदत को त्यागने का खूब प्रयास किया किन्तु मैं इसे छोड़ नहीं सका। ये सारी बातें जो अक्सर आया करती है, जिन्हेें सुनकर मैं हैरान रहता हूं। 

मैं एक बात पूछता हूं ऐसे व्यक्तियों से कि भाई तुम अपनी आदत को बदल नहीं सकते तो बताओं क्या बदल सकते हो? चांद-सूरज बदल सकते हो या धरती आसमान को बदल सकते हो? क्या अपने एक सफेद बाल को भी काले बाल में बदल सकते हो? वास्तविकता यह है कि मानव कुदरत के सिद्धान्तों को बदलने में नितांत असमर्थ है। हां एक ही बात व्यक्ति के अपने हाथों में है, और वह है अपने आपको बदलना। यह कैसी विडंबना है कि जो मानव कर सकता है उसके लिए ही कहा करता है कि मैं यह नहीं कर सकता। चरित्र निर्माण के संबंध में पहली आवष्यकता है व्यक्ति अपनी आत्म-षक्ति को पहचाने। अपने आप में एक अनंत शक्ति का स्रोत निरंतर प्रवाहित है, इस ध्रुव सत्य को आत्मसात कर लिया जाए। ध्यान धारणा द्वारा अपने-आपको अंतर पुष्ट करने की एक प्रबल आवष्यकता है। सहनशीलता का अपने आप में अनुभव एक ऐसी जबर्दस्त प्रक्रिया है कि वह जीवन के प्रति समस्त दृष्टिकोण को बदल देती है। एक जगह जन्म लेने और पनपने वाले व्यक्तियों मं भी बड़ा भारी अंतर पाया जाता है। एक शेर की तरह जीता है और दूसरा गीदड़ की तरह दबा-दबा रहता है। 

आखिर यह अंतर क्यों? विभिन्न जीवन धाराओं का गहराई तक अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष सामने आता है कि विभिन्न जीवन प्रक्रियाओं की मौलिक असमानता का कारण क्षेत्र, वातावरण, खान, पान, पहनावा मूल नहीं होकर मौलिक कारण आत्म-षक्ति का प्रकाट्य संबंधी अंतर है। सत्य और न्याय आत्म स्वीकृत तत्व हैं और उसके प्रत्येक स्फुरण में वे ही जगमगाते हैं। वह एक सिंह है, सूर्य है। अंधकार और अनुचित के लिए वहां कोई अवकाष नहीं। जिधर निकलता है एक नई लहर, एक नया तेज स्फुरित हो जाता है। वह भी एक जीवन होता है किन्तु जगमगाता हुआ। मानव जीवन समता और सहिष्णुता का जीवन है। भौतिक सुख-दुःख का मानव-जीवन में कोई स्थान नहीं। 

उसकी सम्पूर्ण चर्यां आध्यात्मिक गुणों से परिपूर्ण होती है। जिसने संयम के मार्ग को स्वीकार कर लिया है, उसके जीवन में कठोर और मृदु संवेदनों का आना आवश्यक है। संयम के कठोर मार्ग पर चलने वाले साधक के जीवन में परीषहों का आना स्वाभाविक है, क्योंकि साधक का जीवन चारित्र की मर्यादाओं से बधा है। मर्यादाओं के पालन से मानव जीवन की सुरक्षा होती है। मर्यादाओं का पालन करते समय संयममार्ग से च्युत करने वाले कष्ट एवं संकट ही मानव की कसौटी हैं इसलिये उन कष्टों को समभाव से सहन कर वह अपने आचार का पालन करे। साधक के लिये परीषह बाधक नहीं साधक होते हैं। मानव में जीवन यापन के दो प्रमुख आयाम होने चाहिए- अहिंसा और कष्ट सहिष्णुता। कष्ट सहने का अर्थ शरीर, इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं, किन्तु अहिंसा आदि धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाये रखना है। 

मानव जीवन में अनेक बाधायें, प्रतिकूलतायें तथा उपसर्गादि आते ही रहते हैं, इन्हें समतापूर्वक सहना ही परीषह जय कहलाता है। कहा गया है- क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात। अर्थात् बड़े लोगों का यह धर्म है कि यदि छोटे लोग किसी प्रकार का उत्पात भी करे तो उन्हें क्षमा कर दें। सहनशीलता के बिना यह संभव नहीं है। अतः सहनशीलता मानव का सर्वोत्तम गुण है। जिस व्यक्ति में सहनशीलता नहीं रहती, जो व्यक्ति अहंकारी होता है उसका विनाश बहुत शीघ्र हो जाता है। प्रकृति भी सहनशीलता का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पृथ्वी का एक नाम क्षमा है। अर्थात् पृथ्वी सबकुछ सहन कर लेती है और अपने आश्रितों को सुख प्रदान करती है। वृक्ष अपने काटने वालों को भी छाया प्रदान करता है। जो व्यक्ति वृक्षों को काटता है वृक्ष उसे भी छाया प्रदान करता है। वृक्ष की सबसे बड़ी सहनशीलता यह है कि फल आने के बाद वह झुक जाता है।

प्रकृति के ऐसे गुणों से मानव को शिक्षा लेनी चाहिए। रामचरितमानस में सहनशीलता का उदाहरण पदे-पदे दिखलायी देता है। भगवान राम का चरित्र हमें यह शिक्षा देता है कि जीवन में चाहे जितने भी कष्ट आये मनुष्य को विचलित नहीं होना चाहिए। उन कष्टों को समभाव से सहन करना चाहिए। भगवान राम के जीवन में जब उनके राज्याभिषेक की तैयारी हो रही थी उसी समय वनगमन का प्रस्ताव भी उपस्थित हो गया। इस परिस्थिति की विषमता से वह तनिक भी विचलित नहीं हुए और सहर्ष ही वनगमन के प्रस्ताव को स्वीकार कर वनगमन के लिए प्रस्थान कर गये। वन में उन्होंने सहिष्णुता पूर्वक जीवन-यापन किया। जितने भी कष्ट आये उन सबको समभाव पूर्वक सहन किया। यही भारतीय संस्कृति की उदात्तता है। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि विषम परिस्थितियों में विचलित नहीं होना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)