डा. रक्षपाल सिंह चौहान
अलीगढ़। प्रख्यात शिक्षाविद एवं डा. बीआर अम्बेडकर विश्व विद्यालय शिक्षक संघ, आगरा के पूर्व अध्यक्ष डा. रक्षपालसिंह चौहान ने प्रो. आलोक राय, कुलपति ,लखनऊ विश्व विद्यालय, प्रो. जेवी वैशम्पायन, कुलपति,बुन्देलखंड विश्व विद्यालय झांसी, प्रो. एनके तनेजा, कुलपति, सीसीएस विश्वविद्यालय मेरठ एवं प्रो. सुरेन्द्र दुबे, कुलपति, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय को भेजे पत्र में मांग की है कि यूपी के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों हेतु शिक्षा सत्र 2021-22 से एक समान पाठ्यक्रमों का निर्धारण किया जाये।
चौहान ने पत्र में उक्त विषयक मुद्दे को महत्वपूर्ण हाई पावर कमैटी में शामिल किये जाने के लिए बधाई देते हुए कहा है कि नई शिक्षा नीति-20 के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन में आपकी विद्वता, योग्यता, क्षमता, अनुभव एवं सूझबूझ मील का पत्थर साबित होगी,ऐसी हमारी कामना है। पत्र में आगे चौहान ने लिखा है कि आपसे ज्यादा कौन जान सकता है कि नई शिक्षा नीति-1986/92 के लागू होने से पूर्व उत्तर प्रदेश के विश्विद्यालयों, सहायता प्राप्त/सरकारी महाविद्यालयों में पठन पाठन एवं पाठ्येत्तर गतिविधियाँ सामान्यतः संतोषजनक हुआ करती थी। समय पर परीक्षाएं संपन्न होने के साथ ही समय से उनके परिणाम घोषित होते थे। विभिन्न विषयों की थ्यौरी एवं प्रयोगात्मक पाठयक्रमों को पूरा कराया जाता था, चाहे शिक्षकों को अतिरिक्त कक्षाएं ही क्यों न लगानी पड़ी हों। लेकिन अफसोस का विषय है कि नई शिक्षा नीति-1986/92 लागू होने के बाद उपरोक्त स्थिति नहीं रह सकी।
उल्लेखनीय है कि नई शिक्षा नीति-1986/92 लागू होने से पूर्व जहाँ यूपी में सहायता प्राप्त/सरकारी लगभग 500 महाविद्यालय ही थे और अब विगत लगभग 28 वर्षों में यह संख्या 7031 पहुंच चुकी है जिनमें से 331 सहायताप्राप्त (4• 6%),169 सरकारी (2•4%) एवं 6531 स्ववित्त पोषित (93%) मान्यता प्राप्त महाविद्यालय हैं। प्रदेश में 18 राज्य विश्विद्यालयों व 27 निजी विश्विद्यालयों को सरकार द्वारा मान्यता दी गई है। आप सहमत होंगे कि राज्य विश्वविद्यालयों के आवासीय परिसरों के शिक्षण संस्थानों में तो अधिकांश विद्यार्थियों की उपस्थिति रहती है, थ्यौरी व प्रैक्टिकल का पाठ्यक्रम पूरा कराया जाता है, अधिकांश सहायता प्राप्त एवं कुछेक सरकारी महाविद्यालयों में पठन पाठन संतोषजनक कराने की कोशिशें होती हैं, लेकिन विद्यार्थियों की कक्षाओं में उपस्थिति संतोषजनक नहीं रहती। परिणामत: पाठ्यक्रम पूरा करने में व्यवधान आता रहता है।
जहाँ तक प्रदेश के 93% स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों का प्रश्न है तो उनमें से 10% ही ऐसे होंगे जिनमें विद्यार्थियों की पढ़ाई संतोषजनक होती है ,10-15% ऐसे होंगे जिनमें आधा-अधूरा पाठ्यक्रम पढाया जाता है,लेकिन प्रैक्टिकल कार्य की रस्म अदायगी ही हो पाती है। शेष स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में तो जुलाई से नवम्बर तक प्रवेश होते हैं, फरवरी-मार्च--अप्रैल -मई में परीक्षाओं की रस्म अदायगी चलती रहती है, लेकिन पठन पाठन नदारद रहता है। पठन पाठन हो भी कैसे क्योंकि मानकों के अनुरूप वहां पर शिक्षकों -कर्मचारियों की नियुक्तियां ही नहीं होतीं।
स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों के परीक्षार्थी परीक्षा केन्द्रों के संचालकों से सांठगांठ कर नकल की सुविधायें प्राप्त कर उत्तीर्ण होने का जुगाड़ कर ही लेते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में प्रयोगात्मक कार्य की तो रस्म अदायगी भी नहीं होती और परिणामत: वह प्रैक्टिकल परीक्षाओं में कुछ भी करने की स्थिति में नहीं होते ।ऐसी विषम परिस्थितियों में स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों के संचालक परीक्षार्थियों से धनराशि वसूलकर और परीक्षकों को लिफ़ाफ़ा देकर उनके नाम के सामने प्रथम श्रेणी के अंक एवार्ड शीट पर चढ़वा कर परीक्षा की रस्म अदायगी करते हैं। ये कुप्रथा विगत लगभग 7-8 सालों से चल रही है और यूपी सरकार के संज्ञान में लाने के वाबज़ूद फलफूल रही है ।
इस बारे में मेरा आप से कहना है कि पाठयक्रम निर्धारण समिति द्वारा किया गया परिश्रम तभी सार्थक हो सकेगा जबकि सभी उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों को उनका पूरा पाठ्यक्रम पढ़ाया जाये तथा प्रैक्टिकल कराये जायें,अन्यथा समिति का पूरा परिश्रम निरर्थक हो जायेगा। पाठ्यक्रम निर्धारण की सार्थकता उसके सांगोपांग क्रियान्वयन में है ,न कि पाठ्यक्रम पुस्तिका में मात्र उसके उल्लेख में।
आप अवगत ही हैं कि प्रयोगात्मक विषयों की थ्यौरी एवं प्रयोगात्मक कार्य दोनों ही महत्वपूर्ण हैं और दोनों के लिये प्रति सप्ताह लगभग समान समय आवंटित किया गया है,लेकिन कई वर्षों से स्थिति ये है कि प्रदेश के अधिकांश स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में क्वालिफाइड शिक्षक-कर्मचारी नहीं हैं , प्रयोगशालाओं में साजो-सामान नहीं है तथा पूरी साल प्रैक्टिकल कार्य होता ही नहीं है, लेकिन फिर भी विद्यार्थियों की अंकतालिकाओं में थ्यौरी में फ़ेल एवं प्रैक्टिकल में प्रथम श्रेणी के अंक देखे जा सकते हैं।
अफसोसजनक यह स्थिति स्पष्ट संकेत दे रही है कि अधिकांश महाविद्यालय व उनके विद्यार्थी प्रैक्टिकल्स के प्रति गम्भीर नहीं हैं,जबकि प्रैक्टिकल्स का ज्ञान थ्यौरिटीकल ज्ञान से कम महत्वपूर्ण नहीं होता। उक्त तथ्यों के मद्देनज़र स्नातक-स्नातकोत्तर कक्षाओं के विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम निर्धारण हेतु निम्न सामान्य सुझाव आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैं : 1. उच्च शिक्षण संस्थानों के लिये शिक्षा सत्र में 180 कार्य दिवस पठन-पाठन मानकर विभिन्न विषयों की कक्षाओं हेतु पाठ्यक्रम तैयार होते रहे हैं, जबकि हकीकत ये है कि विगत कई वर्षों से 140 कार्य दिवस से कम ही पठन पाठन हो सका है। परिणामत: पाठ्यक्रम पूर्ण नहीं हो पाता।ऐसी स्थिति में कार्य दिवसों की संख्या 150-160 मानकर पाठ्यक्रम निर्धारित किये जाने चाहिये। 2. थ्यौरी एवं प्रैक्टिकल्स पाठ्यक्रमों के प्रति गम्भीरता के मद्देनजर विद्यार्थियों की उपस्थिति कम से कम 75% आवश्यक की जानी चाहिये। इसके लिये समय-समय पर विश्व विद्यालय के कुलपति/रजिस्ट्रार अथवा अन्य अधिकारियों द्वारा महाविद्यालयों का निरीक्षण किया जाना चाहिये। 3. विभिन्न प्रयोगात्मक विषयों के थ्यौरी पाठ्यक्रम के पेपर्स के अंक उसकी प्रयोगात्मक परीक्षा के अंकों की तुलना में लगभग दो गुना रखे जाते रहे हैं। प्रयोगात्मक कार्य को गम्भीरता प्रदान करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि प्रयोगात्मक पाठ्यक्रम की लिखित परीक्षा का पेपर भी हो और उसके पूर्णाक थ्यौरी पेपर्स के बराबर ही रखे जायें।
ज्ञातव्य है कि 20वीं सदी के सातवें/आठवें दशकों में प्रयोगात्मक कार्य से सम्बंधित प्रश्न लिखित परीक्षाओं में पूछे जाते थे जो बाद में हटा दिये गए और परिणामस्वरूप प्रयोगात्मक कार्य उपेक्षित हो गया है। विषयों के लिये आवंटित कुल अंकों के 15% अंक विद्यार्थियों द्वारा शिक्षा सत्र में किये प्रयोगात्मक कार्य के हस्ताक्षरित रिकॉर्ड व कक्षाओं में विद्यार्थियो की उपस्थिति एवं विधवा वायस के आधार पर वाह्य व आन्तरिक परीक्षक द्वारा मूल्यांकन हेतु रखे जायें। हकीकत ये है कि विगत कई वर्षों से प्रयोगात्मक कार्य लगभग 90% स्ववित्त पोषित एवं 70% सरकारी कालेजों में होता ही नहीं और यहां तक कि परीक्षार्थियों के अंक केवल सीधे अवार्ड शीट पर ही चढाए जाते हैं।
यूपी के विभिन्न विश्व विद्यालयों में संपन्न होने वाली परीक्षाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रयोगात्मक परीक्षा तो परीक्षा केन्द्र के शिक्षक ही कराते हैं,वाह्य परीक्षक तो आन्तरिक परीक्षक की सलाह से मूल्यांकन कर अवार्ड शीट पर अंक ही चढ़ाते हैं । वर्तमान में परीक्षार्थियों द्वारा प्रयोगात्मक कार्य बिल्कुल किया ही नहीं जाता। उक्त सुझावों के क्रियान्वयन से प्रयोगात्मक कार्य की लिखित परीक्षा होने से विद्यार्थी विषय को पढ़ेंगे, प्रयोगशालाओं में आकर कार्य करेंगे तथा किये गए कार्य का सही रिकार्ड बनाना होगा , शिक्षकों को उस पर हस्ताक्षर करने होंगे तथा कालेजों के संचालकों को क्वालिफाइड शिक्षक रखने होंगे और इससे कालेजों की मनमानी पर भी अंकुश लगेगा। आशा है कि आप उच्च शिक्षा व्यवस्था के व्यापक हित में उक्त सुझावों पर गम्भीरता से विचार करेंगे।