दृष्टि : किसान आंदोलन

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

(वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)

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यह विडम्बना ही है कि देश के किसान को आज एक वर्ग विशेष के विचारवंत महाभट विद्वानों के द्वारा खालिस्तानी, पाकिस्तानी, विरोधी दलों के चमचे और न जाने कितने - कितने विशेष अलंकरणों से विभूषित किया जा रहा है। ऐसा इसलिए कि वह सरकार की कृषि-किसान विरोधी नीति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। वह गूंगी और बहरी सरकार को अपनी पीड़ा सुनाना चाहते हैं। इसीलिए वह दिल्ली आना चाहते हैं। लेकिन वह दिल्ली न आ सकें, इस ख़ातिर सरकार ने जो जतन किये, उनको रास्ते में ही रोकने के लिए पुलिस बलों की तैनाती की, सड़कें खोदी, मिट्टी के टीले बनाये, गड्ढे खोदे, यह क्या जाहिर करता है। जबकि वह पहले ही साफ तौर पर कह चुके हैं कि हम किसान की लड़ाई लड़ने आये हैं। हमारे लिए सभी जातियां, धर्म, वर्ग और संप्रदाय एक समान हैं। 

हम सभी का सम्मान करते हैं , सभी हमारे साथ हैं और सभी का हमें हर संभव सहयोग भी मिल रहा है। हमारी लड़ाई तो देश बचाने को लेकर है। देश की मिट्टी, कृषि सरकार द्वारा चंद पूंजीपतियों के हाथों में सौंपने के खिलाफ है। कंपनियां, हवाई अड्डे, बंदरगाह, रेल, बस अड्डे और किलों को तो वह पहले ही गिने-चुने अपने पूंजीपतियों मित्रों को बेच ही चुकी है। हमारे आंदोलन की योजना सड़क खोदना नहीं है, ना रास्ता रोकना है। हम तो अपनी पीड़ा सरकार को बताना चाहते हैं। वह भी सरकार सुनना नहीं चाहती। हमारा रास्ता तो सरकार सड़क खोदकर, वैरीकेड लगाकर, वाटर कैनन कर और दमन के जरिये रोक रही है। पुलिस को रास्ते - रास्ते हमारा रास्ता रोकने के लिए ,लाठी चार्ज करने के लिए तैनात किया है। वह कर भी रही है। फिर भी हम पुलिस वालों पर हाथ नहीं उठायेंगे। उनके आगे लेट जायेंगे। लेकिन हाथ नहीं उठायेंगे। वह तो सरकार का हुक्म मानने के लिए यहां भेजे गये हैं। मजबूर हैं। वह हमारे दुश्मन तो नहीं हैं। यह सच है कि किसी पर डंडा लाठी पड़ती है तो उसे गुस्सा तो आता ही है। लेकिन यह भी सच है कि आखिर वह भी तो हमारे ही बेटे हैं। 

उस हालत में वह हमारे ऊपर लाठी क्यों चलायेंगे। हां हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई हमें खालिस्तानी कहे, पाकिस्तानी कहे या देश की विरोधी पार्टियों का चमचा कहें, हम हिंदुस्तानी हैं, हिंदुस्तानी रहेंगे। हम किसान हैं, जो देश के लोगों का पेट भरने के लिये सर्दी, गर्मी और बरसात में अपना खून-पसीना बहाते हैं। असलियत यह है कि हमें जो खालिस्तानी, पाकिस्तानी और कांग्रेस आदि विरोधी दलों का चमचा बता रहे हैं, वह तो रेपिस्टों का समर्थन करने वाले हैं, हत्यारों को पूजने वाले हैं और हिटलरी मानसिकता के लोग हैं, उनसे इसके अलावा और उम्मीद ही क्या की जा सकती है। 

सरकार का यह रवैया उसकी हठधर्मिता और लोकतंत्र विरोधी मानसिकता का प्रमाण है। इससे जाहिर हो जाता है कि अपने हक के लिए आवाज बुलंद करना इस सरकार के दौर में अपराध है। यदि यह अपराध है तो फिर देश के सत्ताधीश समूची दुनिया में किस मुंह से सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दंभ भरते नहीं थकते। उनका यह दोमुँहापन अब देश और देश का किसान बखूबी समझ चुका है। यह आंदोलन सरकार के किसान विरोधी रवैये का परिणाम है। यहां गौरतलब है कि यदि सरकार का इसी तरह का रवैया बरकरार रहा तो अभी तो वह सरकार की कृषि - किसान विरोधी नीति का ही विरोध कर रहे हैं, भविष्य में वह किसान वर्ग के लिए आरक्षण की मांग न करने लग जायें, इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता। समय की मांग है कि सरकार किसानों की मांग पर गंभीरता से देश हित को दृष्टिगत रखते हुए विचार करे और उनसे बातचीत के माध्यम से समस्या का हल निकालने का प्रयास करे। यही वक्त का तकाजा है। अन्यथा यह विरोध आत्मघाती भी हो सकता है। 

लेकिन दुख तो तब होता है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात कार्यक्रम में कृषि कानून की वकालत करते हुए उसे किसान हित में बताते हैं जबकि यह जगजाहिर है कि इस काले कृषि कानून के चलते देश का पच्चासी फीसदी किसान जो ज्यादा से ज्यादा पांच एकड़ से भी कम का मालिक है, पूंजीपतियों का गुलाम हो जायेगा और उसकी हैसियत केवल मजदूर जैसी हो जायेगी। पूंजीपतियों को जमाखोरी - कालाबाजारी की खुली छूट मिल जायेगी और कम से कम पच्चीस से तीस लाख करोड़ का कृषि किसानी का कारोबार का मालिक किसान नहीं, देश के गिने-चुने चार-पांच पूंजीपति हो जायेंगे। किसान न अपनी मर्जी से कोई फसल बो सकेगा और न उसे अपनी मर्जी से कहीं बेच सकेगा। सरकार की नीयत का खुलासा इसी बात से हो जाता है कि जब किसान की मक्का की फसल बाजार में आने वाली थी, उसी दौरान सरकार ने विदेशों से लाखों टन मक्का का आयात किया। ऐसी सरकार किसान की हितैषी हो सकती है क्या? (लेखक के अपने विचार हैं)