लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
http//daylife.page
उपनिषद् शब्द उप और नि उपसर्ग पूर्वक सद् धातु से बना हुआ है। श्री मदाद्यशंकराचार्य ने उपनिषद् का अर्थ ब्रह्म विद्या किया है। यह विद्या सर्व पापों का नाश करने वाली है। उपनिषद् का अर्थ गुरू के सान्निध्य मे बैठकर ज्ञान प्राप्त करने को भी कहा जाता है। उपनिषदों की संख्या एक सौ आठ है। वैसे मूलरूप से जिन उपनिषदों पर श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने भाष्य लिखा है वही मुख्य उपनिषदें मानी जाती है। किन्तु सभी उपनिषदें प्रमुख है। उपनिषद् आत्म विद्या प्रतिपादक शास्त्र है इसमें आत्मा, परमात्मा, जीव, जगत की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, श्वेताश्वतर, छांदोग्य, बृहदारण्यक आदि प्रमुख उपनिषदे है। इन उपनिषदों में परा विद्या, अपरा विद्या, ब्रह्म इत्यादि का विवेचन है। छान्दोग्योपनिषद् में उल्लिखित नारद सनत्कुमार संवाद से भी यह ज्ञात होता है कि विद्यायें दो हैं, इनमें से जो पराविद्या अर्थात् आत्मविद्या को जानता है वही सच्चा ज्ञाता है वह संसार सागर को पार कर जाता है।
उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन है--एकमेवाद्वितीयम् (छा0 6/2/2), सर्वंखल्विदं ब्रह्म (छा0 3/14/1) इत्यादि महावाक्यों से आत्मा और ब्रह्म में अभेद प्रदर्शित किया गया है। यही परम सत है। प्रायः सभी उपनिषदों में इस परमतत्त्व या चरम सत्य का प्रश्न उठाया गया है। ‘वह क्या है जिसका ज्ञान हो जाने पर शेष सबकुछ स्वतः ज्ञात हो जाता है, वह क्या है? जो सदा सचेतन रहता है, सृष्टिकार्य में संलग्न रहता है, यद्यपि शरीर निद्रा में अचेत पड़ा रहता है। वह कौन सा मूलतत्त्व है जिससे जीवन का वृक्ष अंधे अंवच्छेदक मृत्यु द्वारा बारम्बार काटे जाने पर भी नित्य नवीन उदित होता रहता है। इन प्रश्नों का समाधान उपनिषदों में किया गया है। उपनिषदों की भाषा में परमतत्त्व अंतिम तत्त्व है, सर्वाधार है, सभी वस्तुओं का मूलस्थान है। तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुसार-उसी को मूलतत्त्व कहा जा सकता है, जिससे इस जगत् की उत्पत्ति हुयी है, जो सभी वस्तुओं की सत्ता का आधार है और जिसमें अन्ततः इन सभी वस्तुओं का लय हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि उपनिषदों में जगत् का आदि और अन्त ब्रह्म को माना गया है। अतः ब्रह्म ही परमतत्त्व है। इसे ही आत्मतत्त्व भी कहते हैं। उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूप माने गये हैं--मूर्त और अमूर्त, मतर्य और अमृत, स्थित और चर तथा सत् और त्यत्। ब्रह्म के विषय में सविशेष श्रुतियां और निर्विशेष श्रुतियां दोनों उपलब्ध हैं। ब्रह्म को सविशेष सगुण भी कहा गया है और निर्विशेष निर्गुण भी। सगुण ब्रह्म को ‘अपर’ ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म को पर ब्रह्म कहा गया है। अपर रूप में ब्रह्म सविशेष, सगुण, सप्रपंच, सविकल्प और सोपाधिक है तथा पर रूप में ब्रह्म निर्विशेष, निर्गुण निष्प्रपञ्च, निर्विकल्पक और निरूपाधिक है। अपर ब्रह्म की संज्ञा ईश्वर भी है जो समस्त विश्व का कर्ता, धर्ता, हर्ता और नियन्ता है। ये ही सर्वज्ञ और सर्वअन्तर्यामी हैं। ये ही सम्पूर्ण जगत् के कारण हैं, क्योंकि सभी प्राणियों की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय के स्थान ये ही है। उपनिषदों में सगुण ब्रह्म के दोनों लक्षण उपलब्ध हैं। जगत्कारणता, समस्त कल्याण गुण सम्पन्नता, विश्व व्यापकता, और सम्प्रभुता आदि सगुण ब्रह्म के तटस्थलक्षण हैं। ब्रह्म जगत् की उत्पत्ति स्थिति और लय का निमित्त और उपादान कारण है। तटस्थ लक्षण वस्तु के आगन्तुक और परिवर्तनशील गुणों का वर्णन करता है। स्वरूप लक्षण वस्तु के तात्विक स्वरूप को प्रगट करता है।
सगुण ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है--‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ और विज्ञानमानन्दं ब्रह्म। ब्रह्मपरम सत्य है, विशुद्ध ज्ञान है, अनन्त है, अखण्ड आनन्द है। यह ब्रह्म का स्वरूप है। ब्रह्म सत् चित् आनन्द है, शान्त और शिव है। उपनिषदों में ब्रह्म का निर्गुण रूप भी प्राप्त होता है। निर्गुण ब्रह्म के निर्वचन में निषेधात्मक पदों का प्रयोग किया गया है। निर्गुण होने से ब्रह्म सभी सांसारिक धर्मों से परे है। अतः लौकिक विशेषणों का प्रयोग ब्रह्म के लिये नहीं किया जा सकता। अतीन्द्रिय, निर्विकल्प, निरुपाधि और अनिर्वचनीय ब्रह्म, इन्द्रिय, बुद्धि विकल्प और वाणी द्वारा ग्राह्य नहीं है। ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप का ऐसा ही वर्णन माण्डक्योपनिषद् में भी मिलता है। निर्गुण-निराकार निर्विशेष ब्रह्म का ज्ञान न तो बाहर की ओर है, न भीतर की ओर है और न दोनों ही ओर है, जो न ज्ञान स्वरूप है, न जानने वाला है और न नहीं जाननेवाला है, जो न देखने में आ सकता है, न व्यवहार में लाया जा सकता है, न ग्रहण करने में आ सकता है, न चिन्तन करने में, न बतलाने में आ सकता है और न जिसका कोई लक्षण ही है, जिसमें समस्त प्रपश्च का अभाव है, एकमात्र परमात्मसत्ता की प्रतीत ही जिसमें सार है--ऐसा सर्वथा शान्त, कल्याणमय, अद्वितीय तत्त्व है।
कठोपनिषद् में कहा गया है कि ब्रह्म अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, अरस, अगन्ध, अनादि और अनन्त है। उपनिषदों में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन नेति-नेति रूप में दिया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्म अलक्षण और अनिर्वाच्य है। शब्दों के द्वारा उसका निर्वचन नहीं किया जा सकता। केनोपनिषद् में ब्रह्म को वाणी से अनुपास्य बतलाया गया है। जो वाणी से प्रकाशित नहीं होता, किन्तु जिससे वाणी प्रकाशित होती है। जो मन से मनन नहीं किया जा सकता, किन्तु जिससे मन मनन करता है। जो चक्षु आदि इन्द्रियों से सर्वथा अतीत है। उसके विषय में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जिसकी शक्ति और प्रेरणा से चक्षु आदि इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को प्रत्यक्ष करती है वह ब्रह्म है। यह उपनिषदों का प्रतिपाद्य है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)