स्वायत्तता स्वच्छंदता की जननी


डा. रक्षपाल सिंह चौहान


(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद एवं आगरा विश्व विद्यालय शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।) 


http//daylife.page


इस बारे में सभी भली भाँति अवगत हैं ही कि स्वायत्तता उस शक्ति को कहा जाता है जिसमें किसी को निर्दिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु स्वयं के स्तर पर अपना फैसला लेने का अधिकार मिलता है। मानव जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, उन क्षेत्रों में स्वायत्तता अपनी भूमिका को रेखांकित करती ही है , चाहे परिणाम उसके सुखद हों अथवा न हों । और  इसमें अहम बात यह भी है कि स्वायत्तता प्राप्ति लोगों की कार्यशैली पर निर्भर करती है। किसी भी देश का शिक्षा क्षेत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र होता है क्योंकि देश के अन्य सभी क्षेत्रों में अपनी अपनी सेवाएं प्रदान करने वाले लोग शिक्षा क्षेत्र से ही अपने हुनर सीखकर उन क्षेत्रों में पहुँचते हैं तथा अपनी निष्ठा,ईमानदारी,परिश्रम एवं समर्पण से योगदान करते हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा क्षेत्र में कार्य करने वाले लोग योग्य,व्यवहारकुशल ,अपने कार्य में दक्ष एवं संस्कारवान हों जिससे कि उन्हें जिस क्षेत्र में कार्य करने का अवसर मिले, उसमें वह अपना आवश्यक योगदान सुनिश्चित कर सकें ।


नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 की घोषणा के समय इसकी खूबियों का वर्णन तो हमारे समक्ष  बखूबी किया गया है,लेकिन इसका धरातलीय क्रियान्वयन कितना हो सकेगा, इसका पता तो इस नीति के ड्राफ्ट के अनुसार 2040 तक ही लग पायेगा। यदि विगत शिक्षा नीति 1986/92 की खामियों और  घोषित शिक्षा नीति -2020 की खूबियों पर दृष्टिपात करते हुए गंभीरता से विश्लेशण करें तो घोषित शिक्षानीति - 2020 के क्रियान्वयन की धरातलीय स्थिति के बारे में अनुमान लगाने में कठिनाई नहीं होगी। शिक्षा नीति -2020 में शिक्षा तंत्र को स्वायत्तता प्रदान किये जाने पर काफी जोर दिया गया है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो स्वायत्तता की कमी ही विगत शिक्षा नीति 1986/92  की आधी अधूरी सफलता का कारण रही है। यहां यह जानना भी आवश्यक है कि  शिक्षा नीति- 2020 में विगत शिक्षा नीति-1986/92 को मार्गदर्शी दस्ताबेज बताया गया है तथा इस दौरान लगभग 15 साल कांग्रेस व 13 साल भाजपा सरकारें केन्द्र की सत्ता में काबिज रहीं हैं और जो खामियां व विकृतियां शिक्षा तंत्र में पनपीं, उससे कांग्रेस और भाजपा दोनो ही अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकतीं।


केन्द्र सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में उच्चतर शिक्षण संस्थानों को श्रेणीबद्ध स्वायत्तता देने के लिये एक चरणबद्ध प्रणाली स्थापित किये जाने तथा कालान्तर में धीरे-धीरे महाविद्यालय डिग्री देने वाले स्वायत्त महाविद्यालय (Autonomous  college) बन सकेंगे अथवा किसी विश्वविद्यालय के अंग के रूप में विकसित हो सकेंगे। यही नहीं ,अगर वो चाहें तो उपयुक्त मान्यता के साथ स्वायत्त डिग्री देने वाले कालेज अनुसंधान गहन या शिक्षण गहन विश्वविद्यालयों में विक्षित हो सकते हैं।महाविद्यालयों को एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में जाने की स्वायत्तता और स्वतन्त्रता होगी। इस प्रकार वर्तमान में  संचालित उच्च शिक्षा व्यवस्था  में आमूल-चूल परिवर्तन करते हुए शिक्षा नीति-2020 के क्रियान्वयन को सन 2040 तक पूरा होने की सम्भावना जताई गई है। ऐसी स्थिति में इस नीति के गुणावगुण की समीक्षा इसका पूर्णरूपेण क्रियान्वयन हो जाने के बाद ही हो सकेगी । यहां विगत लगभग 28 साल से संचालित शिक्षानीति-1986/92 के तहत   उच्च शिक्षा  व्यवस्था में हुए क्रियान्वयन की स्थिति के कतिपय निम्न बिन्दुओं पर विचार-विमर्श करना समीचीन होगा क्योंकि हो सकता है कि नई शिक्षा नीति- 2020 में उच्च शिक्षा के संदर्भ में दी जारही स्वायत्तता के प्रति कुछ दिशा मिल सके।


यहां हम देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की उच्च शिक्षण संस्थानों के बारे में बताना आवश्यक समझते हैं। यूपी में राज्य विश्व विद्यालय 18, प्राइवेट विश्वविद्यालय 27, राज्य महाविद्यालय 169(2•4 %), सहायता प्राप्त महाविद्यालय, 331(4•6%) एवं निजी महाविद्यालय (93%) संचालित हैं। इनमें से राज्य विश्वविद्यालयों,महाविद्यालयों एवं सहायता प्राप्त महाविद्यालयों में सामान्य तौर पर पठन- पाठन होता है, लेकिन शिक्षकों की कमी हो जाने के कारण बाधित होता है। यदि मानकों  के अनुरूप शिक्षकों की व्यवस्थाएं होती रहें और कुलपतिगण अपने अधीन महाविद्यालयों की व्यवस्थाओं की निगरानी करते कराते रहें तो राजकीय व सहायता प्राप्त  महाविद्यालयों में शिक्षा का गुणवत्तापूर्ण माहौल बनाया जा सकता है । उक्त अधिकांश महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की उपस्थिति लगभग 50% ही रहना तथा पाठयेत्तर गतिविधियॉं भी न के बराबर होना अफसोसजनक है।


जहाँ तक प्रदेश के निजी विश्वविद्यालयों का प्रश्न है तो लगभग उन  50 % में तो पठन पाठन का वातावरण सृजित हुआ है जो समाज में उच्च शिक्षा की बेहतरी का उददेश्य लेकर ही खोले  गए थे, लेकिन जो व्यवसाय के ही लक्ष्य को लेकर खोले गए, वे तो डिग्रियां बांटकर ही अपना व्यवसाय बढ़ा रहे हैं।उत्तर प्रदेश के अधिकांश विद्यार्थी (70%) तो स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों से ही डिग्री प्राप्त करने को ही अपने लिये आसान व श्रेयष्कर समझते हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 90 % निजी महाविद्यालयों के संचालन की मान्यतायें एवं संचालन निम्नवत हों:


1--निजी शिक्षण संस्थानों की मान्यतायें /सम्बद्धतायें देने में नियमों का पूर्ण पालन हो।
2-- नियमानुसार शिक्षा सत्र में 180 दिन पठन पाठन होना चाहिये, प्रत्येक विद्यार्थी की कक्षाओं में  75% उपस्थिति अनिवार्य रूप से हो।
3-- मानकों के अनुरूप प्रत्येक महाविद्यालय में योग्य शिक्षकों -शिक्षणेत्तर कर्मचारियों की नियुक्तियां हों और निर्धारित वेतनमान के अनुरूप उन्हें वेतन दिये जाने की व्यवस्था हो।
4--कक्षाओं में पठन पाठन कार्य एवं प्रयोगशालाओं में प्रायोगिक कार्य समय सारिणी के अनुसार प्रतिदिन सम्पादित हों तथा प्रयोगात्मक कार्य का रिकार्ड तैयार किया जाए।
5-- सभी परीक्षाएं नकलविहीन संपन्न हों व मूल्यांकन गोपनीय रहे ।
6--महाविद्यालय परिसर में  पीने के पानी, लड़के व लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय एवं कामन रुम ,खेल कूद के मैदान के  उचित रख-रखाव आदि की समुचित व्यवस्थायें हों।  


उत्तर प्रदेश के निजी महाविद्यालयों की हकीकत
उत्तर प्रदेश के 7031 महाविद्यालयों में से 6531 निजी महाविद्यालय हैं जिनमें से 10--15 % में सामान्य तौर पर सन्तोषजनक शिक्षा प्रदान की जाती है, लेकिन शेष 80 % से अधिक में शिक्षण कार्य नहीं होता क्योंकि उनमें क्वालीफायड शिक्षकों की व्यवस्थाएं ही नहीं हैं । वह यदा-कदा ही खुलते हैं । यहां पंजीकृत विद्यार्थी परीक्षाओं के समय ही नज़र आते हैं । इन महाविद्यालयों के परिसरों को देखकर ही स्पष्ट हो जाता है कि इनको मान्यता नियमों को ताक पर रखकर ही दी गई थी। बहुत से महाविद्यालय परिसर चरागाह दिखते हैं। जबकि इनमें पढ़ाई ही नहीं होती तो उस स्थिति में विद्यार्थियों के लिये आवश्यक सुविधाओं का प्रश्न ही कहां उठता है।


जहाँ तक प्रयोगात्मक परीक्षाओं की बात है तो परीक्षार्थियों के द्वारा पूरे साल पाठ्यक्रम में शामिल एक भी प्रयोग न करने के कारण वे कुछ भी नहीं करते और परीक्षा की रस्म अदायगी के बतौर  परीक्षा पुस्तिका में कुछ भी लिख देते हैं और परीक्षकों द्वारा 80 % के आसपास सभी तथाकथित परीक्षार्थियों को अंक प्रदान कर दिये जाते हैं। 10-20 % जो तथाकथित परीक्षार्थी अनुपस्थित रहते हैं ,अंकतालिका में उनको भी अंक प्रदान कर दिये जाते हैं और परीक्षकगण अपने लिफाफे प्राप्त कर परीक्षाओं की रस्म अदायगी पूरी कर इतिश्री कर देते हैं। प्रयोगात्मक परीक्षाओं का ये चलन ही यूपी में ही नहीं, लगभग सभी हिन्दी प्रदेशों में व्याप्त है ।प्रयोगात्मक परीक्षाओं एवं आन्तरिक मूल्यांकन की उक्त बीमारी माध्यमिक बोर्ड परीक्षाओं में ही नहीं,अपितु सी बी एस ई की परीक्षाओं में भी घुस चुकी है तथा राजकीय/ सहायता प्राप्त महाविद्यालयों में उनके प्रवेश द्वारों पर खड़ी  है।


नई शिक्षा नीति- 2020 में उच्च शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता प्रदान किये जाने का उल्लेख है, लेकिन निजी महाविद्यालयों के संचालन में  व्याप्त उक्त कारनामे तो स्वायत्तता की परिधि को भी लाँघकर स्वच्छन्दता के द्योतक हैं।स्वायत्तता मिलने पर तो ये शिक्षण संस्थान अन्य कोई हैरतंगेज़ कारनामा करेंगे तथा राजकीय एवं सहायता प्राप्त महाविद्यालयों को भी अपने आगोश में ले लेंगे , इन हालात में अब वे दिन ज्यादा दूर नहीं हैं। (लेखक के अपने विचार है)