भाग्य एवं पुरुषार्थ


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


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भाग्य एवं पुरुषार्थ एक सिक्के के दो पहलू है। कुछ लोग भाग्य को मानते है कुछ लोग पुरुषार्थ को। पुरुषार्थ के बिना भाग्य नहीं बनता। जो हम इस जन्म में कर रहे है चाहे वह अच्छा कर्म है या बुरा इनमें से कुछ कर्मों का फल तो हमें इसी जन्म में प्राप्त हो जाता है और कुछ कर्म प्रारब्ध बन करके अगले जन्म में प्राप्त होते है। भाग्य और पुरुषार्थ का खेल यही से प्रारंभ हो जाता है। इस संसार में कुछ लोग भाग्यवादी है और कुछ लोग पुरुषार्थवादी। भाग्यवादी भाग्य को ही मानकर चलते है ओर कहते है कि जो कुछ भाग्य में लिखा है वही सब होकर रहेगा। पुरुषार्थवादी कहते है कि पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य को बदला जा सकता है। भाग्य के भरोसे बेठे रहने से कार्य नहीं होता। आज का युग प्रतिस्पर्धा का युग है। विज्ञान अथवा तकनीकी क्षेत्र में मनुष्य ने अभूतपूर्व उन्नति की है।


परन्तु बहुत कम ही लोग ऐसे होते है जिन्हें जीवन में वांछित वस्तुएं प्राप्त होती है। अथवा अपने जीवन से वे संतुष्ट होते है। हममे से अधिकांश लोग जिने मनवांछित वस्तुएं प्राप्त नहीं होती है वे स्वयं की कमियों को देखने की बजाय भाग्य  को दोष देकर मुक्त हो जाते है। भाग्य भी उन्हीं का साथ देता है जो स्वयं पर विश्वास करते है जो अपने पुरुषार्थ के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति पर आस्था रखते है। वही व्यक्ति जीवन में सफलता के मार्ग पर अग्रसित होता है। भाग्य और पुरुषार्थ एक-दूसरे के पूरक है। पुरुषार्थि अथवा कर्म पर विश्वास करने वाला व्यक्ति जीवन में आने वाली बाधाओं और समस्याओं को सहजता से स्वीकार कर उसका निवारण करने का प्रयास करता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वह विचलित नहीं होता। जीवन संघर्ष में वह निरंतर अग्रसित होता है। किसी कवि ने ठीक ही लिखा है- दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है,


       मरता है जो, एक ही बार मरता है। 
       तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे। 
       जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!


कुछ लोग ऐसे होते है जो भाग्य भरोसे बैठे रहते है। ऐसे व्यक्ति थोड़ी सी सफलता अथवा खुशी मिलने पर अत्यन्त प्रसन्न हो जाते है और थोड़ी सी कठिनाई आने पर विचलित हो जाते है। ऐसे व्यक्तियों से सफलता बड़ी दूर रहती है। ऐसे व्यक्ति स्वयं की कमियों को खोजने तथा उनको ढूंढ़ने के बजाय अपने भाग्य को दोष देते है। महात्मा गांधी ने अपने सत्य और अहिंसा के बल पर अपने पुरुषार्थ से अंग्रेजी दास्ता से मुक्ति दिलायी। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म का मार्ग पुरुषार्थ का मार्ग है। धैर्यपूर्वक अपने पथ पर अडीग रहना चाहिए। पुरुषार्थी व्यक्ति ही जीवन में यश अर्जित करता है। वह स्वयं को ही नहीं अपितु अपने परिवार, समाज अथवा देश को गौरवान्वित करता है। भाग्य हमारे कर्मों का फल है कोई ईश्वर इच्छित वस्तु नहीं।


हम नित्य प्रति कुछ न कुछ क्रिया करते है और उसका परिणाम भी हमें मिलता है। यही परिणाम ही हमारा भाग्य होता है। यदि कोई बच्चा चारपाई पर चढ़कर कूद पड़े तो उसे अवश्य चोट आयेगी। इस घटना पर यह कहा जा सकता है कि चोट उसके भाग्य में बदी थी। परन्तु यदि इस चोट के अनुकूल कार्य न किया गया होता तो बच्चे को चोट न आती। इसी प्रकार यदि एक विद्यार्थी परीक्षा में कठिन परीश्रम करता है तो वह अवश्य उत्तीर्ण होगा। परन्तु वही विद्यार्थी भाग्य के भरोसे बैठे रहकर परीश्रम करना बंद कर दे तो उसका उत्तीर्ण होना असंभव है। यहां पर हम देखते है कि एक ही विद्यार्थी उत्तीर्ण भी हो सकता है और अनुत्तीर्ण भी। इसका केवल यही कारण है कि विद्यार्थी जैसा चाहे वेसा ही होगा।



ईश्वर ने मनुष्य को कोई भी व्यर्थ की वस्तु नहीं दी है। किसी न किसी रूप में प्रत्येक वस्तु का उपयोग मनुष्य द्वारा होता ही रहता है। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि इसलिए दी है कि वह अपने प्रयत्न और पुरुषार्थ द्वारा अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करें। यदि सबकुछ पूर्वनिर्धारित ही होता तो बुद्धि और चेतना की क्या आवश्यकता थी। फिर उसकी विचार शक्ति, क्रियाशीलता और पुरुषार्थ की आवश्यकता और उपयोगिता ही क्या रह जाती। पुनः हम यह देखते है कि इस संसार में कोई दुःखी है, कोई सुखी है, कोई धनवान है, कोई दरिद्र और कोई बुद्धिमान और कोई मुर्ख। यदि यह कहा जाये कि यह सब ईश्वर की देन है या ईश्वर ने किसी के भाग्य में अच्छा लिखा है और किसी के भाग्य में बुरा तो यह भी ठीक नहीं है।


ईश्वर तो सच्चा न्यायी है। वह ऐसा न्याय कर ही नहीं सकता। ईश्वर तो न्यायपूर्वक सभी को एक दृष्टि से देखता है। वह न किसी को नीचा समझता है न किसी को ऊँचा। उसके लिए सब समान है। ईश्वर सभी को बराबर शक्ति और सम्पत्ति देता है तो कोई साधन सम्पन्न और कोई साधनहीन क्यों हो जाता है। हमें जानना चाहिए कि ईश्वर केे पास सभी समान है। लेकिन कोई अपनी शक्ति का सदुपयोग करता है तो कोई दुरूपयोग। जो सदुपयोग करता है वह उन्नति करता है और उसका विकास होता है। जो दुरूपयोग करता है उसकी अवनति होती है और उसका ह्रास होता है। जो उपयोग करता ही नहीं उसकी शक्तियां तथा सम्पत्तियां सब बेकार हो जाती है। अतः भाग्य और पुरुषार्थ दोनों सत्य है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)