जन्मदिन पर विशेष
स्व. राजेंद्र माथुर यानी रज्जू बाबू
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एक दोपहर बीए या एमए अंग्रेजी साहित्य में कर रहा एक युवक, अपने परम मित्र के साथ इन्दौर के नई दुनिया दैनिक के दफ्तर में आया। कोने में बैठे थोड़े बुजुर्ग हो रहे सम्पादक काम में लीन थे। दोस्त ने ही परिचय करवाया और फ़िर कहा, ये मेरे फलां मित्र हैं। दरअसल, इनका इरादा नई दुनिया में नियमित लिखने का है। सम्पादकजी ने जानी पहचानी मुस्कान के साथ कहा, अच्छी बात है। हम तो ऐसे युवाओं से लिखवाने को हरदम उत्सुक रहते हैं, लेकिन बरखुरदार यह तो बताइये कि आपके विषय क्या होंगे। विदेश नीति, नम्रता से जवाब मिला। फिर कुछ देर सन्नाटा रहा।
सम्पादक महोदय ने कहा दो चार दिन में कुछ लिखकर लाइए। तब पढ़ने के पश्चात ही कुछ बता पाऊँगा। दोनों दोस्त चहकते हुए बाहर निकले। दो तीन दिन बाद वह युवक हाथ में लेखों का बण्डल थामे सही समय पर आया और बण्डल मेज पर रखकर खडा रहा। सम्पादकजी ने करीब सारे लेख सरसरी तौर पर मगर ध्यान से पढ़े, लेकिन सोचते हुए पूछा इन्हें प्रकाशित कहाँ करेंगे। नई दुनिया में तो जगह की बड़ी किल्लत रहती है। युवक ने ही सुझाव दिया, सम्पादकीय के नीचे चार सौ शब्दों में अनुलेख के रूप में। प्रस्ताव मंजूर हो गया और उस युवक की तमन्नाओं के छोटे से नेट विमान ने नई दुनिया की एअर बेस पर प्रधान संपादक नियुक्त होने तक इंतजार किया। फिर एक उड़ान राफेल जैसे विमान से भरी और उस एअर बेस पर विमान लैंड किया, जिसे टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप कहा जाता है। अब तक वह युवक प्रौढ हो चुका था।
नाम था स्व. राजेंद्र माथुर यानी रज्जू बाबू, हिंदी पत्रकारिता के नए परिभाषा पुरूष। नई दुनिया के सन्दर्भित सम्पादकजी का नाम था स्व. राहुल बारपुते, यानी सभी के बाबा, जिन्हें नए पत्रकारों की खेती किसानी कर्तव्य लगती थी। उक्त दोस्त का नाम भी जान लें, लब्ध प्रतिष्ठित व्यंग्यकार पद्मश्री स्व. शरद जोशी। बाबा, रज्जू बाबू, तत्कालीन प्रबंध सम्पादक स्व. नरेंद्र तिवारी स्व. बसंतीलाल सेठिया, उनके पुत्र महेंद्र सेठिया, पद्मश्री अभय छजलानी, सहायक सम्पादक वरिष्ठ पत्रकार महेश जोशी इत्यादि ने मिलकर नईदुनिया को पत्रकारिता का विश्व विद्यालय बना दिया था लेकिन इसके कुलपति थे स्व. बाबू लाभचंद छजलानी। तब सवाल उठता था नई दुनिया में हिंदी पत्रकारिता नही की तो क्या पत्रकारिता की।
जैसे इन्दौर की पहचान लता मंगेशकर, सर्राफा बाजार, छप्पन दुकानों के खाऊ ठिये हैं वैसा ही आलम नई दुनिया का था। तब बिक्री पहुंच गई थी कदाचित डेढ़ लाख कॉपीज प्रति दिन यानी एक शहर से इतना बडा अखबार, कदाचित देश में नई दिल्ली एवं मुम्बई के बाद तीसरे नम्बर पर, लेकिन साज सजावट, ले आउट और छाप छपाई में अव्वल। तब एक जोड़ी मशहूर हो गई थी। अब्बूजी मतलब पद्मश्री अभय छजलानी तथा स्व रज्जू बाबू। अभयजी तो अठारह घण्टे काम करते थे। और रज्जू बाबू रात में भी चले आते थे। एक बार वे घर लौट रहे थे। जाते जाते हम कुछ लोगों से पूछा ,मैं जा रहा हूँ। कोई और काम तो नहीं है मुझसे। हम लोगों ने कहा, आज बाबा नहीं आए हैं अभी तक। पेज छोड़ना है। सम्पादकीय का क्या करें। रविवार को एक ही लम्बा एडिट जाता था।
रज्जू बाबू ने कलम निकाली और समय के पहले ही एडिट लिखकर एक ज्यूनियर साथी को चैक करने को दे दिया। साथी ने पढ़कर जारी कर दिया। अपनी बात कहने की उनका अपना ढंग था। एक दिन बोले अखबार दरअसल रोज़ पैदा होने वाला अंडा होता है, जो सुबह पैदा होता है और रात में मर जाता है, क्योंकि अगले ही दिन दूसरा अंडा पैदा होने वाला होता है।एक बार कहे, अखबार माचिस की तीलियाँ फेंकते रहने का भी खेल है। पता नहीं कौन सी तीली बारूद के ढेर में गिरे और विस्फोट हो जाए। पत्रकार या सम्पादक के बारे में आम सोच यही कि वह टिप्पणी करता रहता है, भविष्य के गर्भ में झांकने का उसे समय ही नहीं मिलता। इस फिलॉसफी को रज्जू बाबू ने यह लिखकर एक बार खारिज कर दिया था कि एक दिन सोवियत यूनियन ऑफ रशिया का विभाजन हो कर रहेगा और आगे चलकर वैसा हुआ भी। उनके ज़माने में नईदुनिया में कम से कम रोज़ दो सवा दो सौ पत्र सम्पदाक के नाम आते थे ,जिनमें से सिर्फ दस ग्यारह पत्र खुद रज्जू बाबू सिलेक्ट एवं एडिट करके जारी करते थे। पुनः उनकी पावन स्मरण को सादर नमन। (लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक : नवीन जैन
इंदौर (म.प्र.)