शरीर धर्मक्षेत्र-संसार कर्मक्षेत्र


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श्रावण मास, सर्वश्रेष्ठ माना जाता क्योंकि इस पूरे महीने में व्यक्ति शिवभक्ति से जुड़ा, मन को शुद्ध करने, इच्छाओं की पूर्ति हेतू व्रत-उपवास के साथ अन्य अनुष्ठान में रत रहता, पर संसार में जो स्वरूप प्राप्त कर लेता वह अपने मृत्यु प्रारब्ध को लेकर आता, चाहे ज्ञानी, अज्ञानी, विकलांग, तपस्वी, साधक, महात्मा संत, अवतारी या साधारण मानव ही क्यों न। क्योंकि जन्म होने पर मृत्यु निश्चित किन्तु सनातन धारा में देह की मृत्यु/जन्म होता परन्तु आत्मा सर्वव्यापी निर्लेप रहती है। जो कर्म, धर्म, गति निश्चित, उसका शोक क्यों? इसलिए, क्या मिलेगा? ऐसे प्रश्न प्रत्येक प्राणी मात्र के विचारों में गतिशील रहने चाहिएं क्योंकि पंच महाभूत की उत्पत्तिलय क्रियायें ब्राह्माण्ड में अनादि काल से अखण्ड अवस्था में चलती रहती और स्वयं प्रकृति रोक पाने में असमर्थ है।



प्रत्येक मनुष्य चाहता कि भगवान उसके हों, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं को उसके अनुरूप पूर्ण करते रहें, पर ये संभव है?
जिस परिवार में प्रतिदिन ईश्वर-चिन्तन होता, प्रातः-सायं नियमित वन्दन होता, उसमें ईश्वर का वास स्वमेव ही होता, क्योंकि मन, वाणी और चरित्र की पवित्रता ज्ञान का वो प्रकाश, जहाँ धर्म चर्चा होगी अर्थात सुविचारों की ज्योति प्रज्जवलित होगी ही।



श्रावण मास का अर्थ है कि जब आप ईश्वर के प्रतिनिधी, सर्वोच्च विभूति के पुंज, तब क्या अधिकार कि स्वयं को दीन-हीन या अभागा समझें? ईश्वर का अपमान नहीं कर सकते। वस्तुतः ईश्वर की अनुपम रचना, मानव को समपूर्ण विभूतियों सहित प्रथ्वी पर भेजा गया, उसमें आई कमी या निर्बलता स्वनिर्मित अतः ईश्वरिय भक्ति के साथ-साथ अपने विषय में क्षीणता और कमजोरी की भावनाओं का बहिष्कार कर उपयुक्त भावना से कार्य करें, अपने प्रति कर्तव्यों को समझकर पूर्ण करें, ये ही सच्ची भक्ति व शक्ति है।


             


लेखिका : रश्मि अग्रवाल
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