प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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निश्चयनय एवं व्यवहारनय
प्रत्येक वस्तु के अनेक विरोधी धर्म प्रतीत होते है। अपेक्षा के बिना उनका विवेचन नहीं किया जा सकता। द्रव्य को जानते समय सम्पूर्ण रूप से उसको जान लिया जाता है किन्तु उससे व्यवहार नहीं चलता। हमारी सहज अपेक्षाएं भी ऐसी होती है कि जैसे विटामीन डी की कमी वाला व्यक्ति सूर्य का ताप लेता है तो वह उदय होते हुए सूर्य का ही लेगा। अपेक्षा हमारा बुद्धिगत धर्म है। वह भेद से उत्पन्न होता है। भेद मुख्यतः चार होते है। वस्तु भेद, क्षेत्र भेद, काल भेद, अवस्था भेद। वस्तु न नित्य है न अनित्य, किन्तु नित्य अनित्य का समन्वय है। नय के द्वारा वस्तु का आंशिक ज्ञान होता है पूर्ण ज्ञान नहीं। नय सापेक्ष होता है, इसलिए इसके दो रूप बन जाते है- जहां पर्याय गौण और द्रव्य मुख्य होता है वह द्रव्यार्थिक नय है, जहां द्रव्य गौण और पर्याय मुख्य होता है वह पर्यायार्थिक नय है।
वास्तविक दृष्टि को मुख्य मानने वाला अभिप्राय निश्चनय कहलाता है और लौकिक दृष्टि को मुख्य मानने वाला अभिप्राय व्यवहारनय कहलाता है। निश्चयनय सात प्रकार का होता है। व्यवहारनय को उपनय भी कहा जाता है व्यवहार उपचरित है। अच्छा मेघ बरसता है, तब कहा जाता है अनाज बरस रहा है यहां कारण में कार्य का उपचार है। मेघ तो अनाज का कारण है उसे अपेक्षावश फसल उत्पादक वृष्टि की अनुकूलता बताने के लिए अनाज कहा जा रहा है। यह उचित है किन्तु उसे अनाज ही समझ लिया जाये यह ठीक नहीं। व्यवहार की बात को निश्चय की दृष्टि से देखा जाये, वहां वह मिथ्या बन जाता है। अपनी मर्यादा में यह सत्य है। सत्य का साक्षात् होने के पूर्व सत्य की व्याख्या होनी चाहिए।
एक सत्य के अनेक रूप होते है। अनेक रूपों की एकता और एक की अनेक रूपता ही सत्य है। उसकी व्याख्या का जो साधन है वही नय है। सत्य एक और अनेक भाव का अविभक्त रूप है इसलिए उसकी व्याख्या करने वाले नय भी परस्पर सापेक्ष है। सत्य की व्याख्या द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से होती है। एक के लिए जो गुरु है वही दूसरों के लिए लघु। एक के लिए जो दूर है वही दूसरे के लिए निकट। एक के लिए जो उध्र्व है वहीं दूसरे के लिए निम्न। अपेक्षा के बिना इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। कोई पदार्थ अनन्त गुणों का सामंजस्य है। उसके सभी गुण अपेक्षा की श्रृंखला में गूथे हुए है। चेतन पदार्थ चैतन्य गुण की अपेक्षा से चेतन है। किन्तु उसके सहभावी अस्तित्व, वस्तुत्व आदि गुणों की अपेक्षा से चेतन पदार्थ की चेतनशीलता नहीं है। अनन्त शक्तियों और उनके अनन्त कार्य की जो एक संकलना, समन्वय या श्रृंखला है वही पदार्थ है इसलिए विविध शक्तियों और तज्जनित परिणामों को अविरोध भाव सापेक्ष स्थिति में ही हो सकता है।
कोई भी व्यक्ति पदार्थ को एक ही दृष्टि से नहीं देखता। वक्ता का झुकाव पदार्थ की और होगा तो उसकी वाणी का आकर्षण भी उसी की और होगा। यही बात पदार्थ की अवस्था के विषय में है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, समभिरूढ़ और एवम्भूत ये सात नय है। नैगमनय में तादात्म्य की अपेक्षा से सामान्य विशेष की भिन्नता का समर्थन किया जाता है। सामान्य विशेष पदार्थ का ज्ञान प्रमाण से होता है। अखण्ड वस्तु प्रमाण का विषय है। नय का विषय उसका एकांश है। अभेद और भेद में तादात्म्य संबंध है। संबंध दो वस्तुओं से होता है। केवल भेद या केवल अभेद में कोई संबंध नहीं होता। चैतन्य गुण जैसे चेतन व्यक्तियों में सामंजस्य स्थापित करता है वैसे ही यदि यही गुण अचेतन व्यक्तियो का चेतन व्यक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करता तो चैतन्य धर्म की अपेक्षा चेतन और अचेतन को अत्यंत विरोधी मानने की स्थिति नहीं आती।
संग्रह और व्यवहार ये दोनों क्रमशः अभेद और भेद को मुख्य मानकर चलते है। ऋजुसूत्र वर्तमानपरक दृष्टि है यह अतीत और भविष्य की सत्ता स्वीकार नहीं करती। अतीत की क्रिया नष्ट हो चुकी है। भविष्य की क्रिया प्रारम्भ नहीं हो सकी है इसलिए भूतकालीन वस्तु और भविष्यकालीन वस्तु न तो अर्थक्रिया समर्थ है और न ही प्रमाण का विषय है। शब्दनय भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि युक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। यह शब्द, रूप और उसके अर्थ का नियामक है। व्याकरण की लिंग वचन आदि की अनियामकता को यह प्रमाण नहीं करता है। समभिरूढ़नय एक वस्तु का दूसरी वस्तु में संक्रमण नहीं करता। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में निष्ठ होती है।
स्थूल दृष्टि से हम अनेक वस्तुओं के मिश्रण या सहस्थिति को एक वस्तु मान लेते है। किन्तु ऐसी स्थिति में भी प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वरूप में होती है। अर्थ की शब्द के प्रति और शब्द की अर्थ के प्रति नियामकता न होने पर वस्तु समिश्रण हो जाता है। कपड़े का अर्थ घड़ा और घड़े का अर्थ कपड़ा न समझने के नियम क्या होगा? कपड़े का अर्थ जैसे तन्तुसमुदाय है वैसे ही मृण्मय पात्र भी हो जाये और सबकुछ हो जाये तो शब्दानुसारी प्रवृत्ति निवृत्ति का लोप हो जाता है, इसलिए शब्द को अपने वाच्य के प्रति सच्चा होना चाहिए।
घट अपने अर्थ के प्रति सच्चा रह सकता है। पट अपने अर्थ के प्रति सच्चा रह सकता है। यह नियामकता या सच्चाई ही इसकी मौलिकता है। एवमभूतनय अतीत और भविष्य की क्रिया से शब्द और अर्थ के प्रति नियम को स्वीकार नहीं करता। घट शब्द का वाच्य अर्थ वही है जो पानी लाने के लिए मस्तक पर रखा जाता है। नय और प्रमाण दोनों सत्य है। नय आंशिक ज्ञान देता है और प्रमाण सम्पूर्ण। नयवाद अभेद और भेद पर टिका हुआ है। इसके अनुसार वस्तु अभेद और भेद की समष्टि है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं विचार हैं)