चिन्तन का मुख्य लक्ष्य जीवन के दुःखों को दूर करना


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


भारतीय दर्शन में मोक्ष की अवधारणा
भारतीय ऋषियों के लिए दार्शनिक चिन्तन का मुख्य लक्ष्य जीवन के दुःखों को दूर करना है। मोक्ष भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। मोक्ष जीवन मरण के चक्र से और परिणामस्वरूप सभी प्रकार के सांसारिक दुःखों से हमेशा के लिए मुक्ति है। भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों को आस्तिक और नास्तिक के स्थान पर वैदिक और अवैदिक कहना अधिक उचित होगा। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा या वेदान्त ये छः वैदिक दर्शन हैं । चार्वाक, जैन एवं बौद्ध दर्शन अवैदिक हैं। न्याय-वैशेषिकों के अनुसार मोक्ष की अवस्था में दुःख के साथ-साथ सुखों का भी अभाव रहता है। मोक्ष की स्थिति सुख एवं दुःख दोनों से अतीत है। इस अवस्था में आत्मा अपने सभी आगंतुक धर्मों का त्याग कर देती है। सुख, दुःख इच्छा, द्वेष, कर्तव्य, भोक्तृत्व इत्यादि आत्मा के आगन्तुक धर्म है।


मोक्ष में आत्मा इन सबका त्याग कर देती है। इस अवस्था में आत्मा की स्थिति प्रायः उसी प्रकार की हो जाती है जिस प्रकार गाढ़ सुसुप्तावस्था में जड़ पाषाणवत् संज्ञाश्शून्य हो जाता है। वात्स्यायन कहते हैं कि सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति से सांसारिक पदार्थों में आसक्ति का नाश हो जाता है। फलस्वरूप आत्मा को मन, वाणी या शरीर से किसी कर्म को करने की प्रवृत्ति नहीं होती। अतः पुनः जन्म नहीं ग्रहण करना पड़ता। धीरे-धीरे उसके प्रारब्ध कर्म भोग द्वारा समाप्त हो जाते हैं और उनकी समाप्ति पर वह मुक्त हो जाता है।



पूर्व मीमांसकों के दोनों सम्प्रदाय प्रभाकर एवं कुमारिल के अनुसार आत्मा का स्वरूप लगभग वैसा ही है जैसा न्याय वैशेषिक आत्मा का है। अतः मोक्ष की स्थिति एवं उसे प्राप्त करने के साधन भी लगभग वही है जिन्हें नैयायिक स्वीकार करते हैं। शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त का सार प्रायः आधे श्लोक में इस प्रकार रखा जाता है-’केवल ब्रह्म ही परम सत्य है, विविधता और बहुलता से भरा यह जगत् मिथ्या है तथा जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। अन्य सभी दर्शन और वेदान्त के अन्य सम्प्रदाय भी अपने दर्शन का आधार केवल जागृत अवस्था को बनाते हैं। जागृत अवस्था का अनुभव ही उनके लिए एकमात्र और पूर्ण सत्य मानव अनुभव है।


परन्तु शंकर अनुभव की इन चारों अवस्थाओं को महत्वपूर्ण मानते हैं। अनुभव की प्रत्येक अवस्था में अनुभव किये गये पदार्थों की कुछ न कुछ सत्यता है। प्रतिभासिक पदार्थों की सत्यता बहुत कम समय तक होती है, जबकि व्यावहारिक जीवन के पदार्थ अनेकों जन्मों तक भी, जब तक ब्रह्मज्ञान का उदय नहीं होता, सत्य बने रहते हैं। ब्रह्मज्ञान के उदय होने पर ज्ञात होता है कि वास्तविक सत्यता केवल ब्रह्म की ही है। ब्रह्मज्ञान के उदय होने पर जीव अनुभव करता है कि जगत् स्वप्नवत् हो गया है और वह स्वयं ब्रह्म से भिन्न नहीं है। पारमार्थिक दृष्टिकोण से कहा जाता है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है और जीव तथा ब्रह्म में अद्वैत सम्बन्ध है। ब्रह्म अपने आप में निर्गुण और निराकार है।


परन्तु जब निर्गुण और निराकार ब्रह्म को बुद्धि द्वारा समझने का प्रयास किया जाता है तो वह हमें सगुण और साकार प्रतीत होता है। इसी को शंकर सगुण ब्रह्म या ईश्वर भी कहते हैं। निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म में वहीं सम्बन्ध है जो रज्जु और रज्जु-सर्प में है। ’तात्विक ब्रह्म’ का धार्मिक संस्करण ईश्वर है। शंकराचार्य अपने मोक्ष संबंधी सिद्धान्त का प्रतिपादन ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथमपाद के चतुर्थ सूत्र पर भाष्य करते समय करते हैं। मोक्ष के स्वरूप को बतलाते हुए वे लिखते हैं कि यह परमार्थ है, कुटस्थ नित्य है, आकाश के समान सर्वव्यापी है, सभी विकारों से शून्य है, नित्य तृप्त है, अवयवों से रहित है, स्वभाव से स्वयं प्रकाश है। वह एक ऐसी स्थिति है, जहां तक पाप और पुण्य अपने फल सहित त्रिकाल में भी नहीं पहुंच सकते हैं।



बौद्ध दर्शन के अनुसार ’सब कुछ अनित्य है, सब कुछ निःसार है तथा केवल निर्वाण में ही शान्ति है।’ यह त्रिसूत्री शिक्षा बौद्ध दर्शन के प्रासाद की आधारशिला है। निर्वाण का अर्थ -बुझ जाना, पुनर्जन्म के रास्ते को छोड़ देना, सभी प्रकार के दुःख देने वाले कर्मरूपी धागे, जो कि जन्म मरण का ताना बाना बुनते हैं, से मुक्ति, दुःख देने वाले कर्मों से मुक्ति, इत्यादि होता है। अन्य भारतीय दर्शनों की भांति जैन दर्शन भी मोक्षशास्त्र है। जैन सम्मत मोक्ष साधना में आचार की शुद्धता का विशेष महत्व है। उमास्वामी के अनुसार सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और समक् चारित्रिक मोक्षमार्ग है। सम्यक् श्रद्धा, सही ज्ञान और नैतिक आचार जैन धर्म के त्रिरत्न या रत्नत्रय हैं। सही आस्था और दर्शन प्राप्त करने के लिए बौद्धिक चिन्तन आवश्यक है।


योग साधना के अभ्यासी की कृतकृत्यता ’कैवल्य’ प्राप्त करने में है। जीवन की सफलता एवं परिपूर्णता इसी में है। प्रत्येक व्यक्ति प्रतिकूल वेदनीय दुःख से छुटकारा चाहता है। ’कैवल्य’ ही ऐसी अवस्था है जिसमें निश्चित रूप से तथा पूरी तरह से दुःख का नाश करने की सामथ्र्य है। मोक्ष, मुक्ति आदि इसके पर्याय हैं। योग के अनुसार पुरुषार्थशान्य गुणों का प्रतिप्रसव (अपने कारण में लय) तथा पुरुष का स्वरूपावस्थान मोक्ष है। तात्पर्य यह है कि पुरुष के स्वरूप में अवस्थित हो जाने पर उससे सम्बन्धित बुद्धि (प्रकृति) भी मुक्त हो जाती है और पुरुष भी। इसे ही जीवित योगी की ’जीवन्मुक्ति’ कहते हैं। प्रारब्ध कर्म का भोग द्वारा क्षय होने पर देहपात के पश्चात् ’विदेहमुक्ति’ होती है। इस प्रकार ’केवलस्य भावः कैवल्यम्’ अर्थात् पुरुष की केवलता अथवा स्वस्वरूपावस्थिति  की पद्धति समझ में आ जाती है। पुरुष को मुक्त करके बुद्धि भी निवृत्त हो जाती है। (लेखक के अपने विचार हैं)