प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
(डे लाइफ डेस्क)
सर्व धर्म समभाव अर्थात् सभी धर्मों के साथ समान रूप से व्यवहार करना। धर्म का मतलब है जो प्रजा के हित को धारण करे वही धर्म है। समभाव का तात्पर्य है आदर का भाव। अतः सर्व धर्म समभाव का अर्थ है सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव। भारतीय संविधान में भारत के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। भारत में अनेक जातियों के लोग, अनेक धर्मों के लोग, अनेक मत-मतांतरों के अनुयायी रहते है। सभी सहिष्णुता पूर्वक जीवन व्यतीत करते है कोई किसी के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता जिसकी जैसी मान्यता है वह वैसा ही धार्मिक अनुष्ठान करता है। अनेकता में एकता भारत की सबसे बड़ी विशेषता है। यहां पर हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई, मुस्लिम, पारसी आदि अनेक धर्मों के लोग रहते है। सभीकी पूजा पद्धति अलग-अलग है। अपने आस्था और विश्वास के आधार पर सहिष्णुता पूर्वक धर्म में आस्था व्यक्त करते है।
साधारणतः धर्म का अर्थ लोग संप्रदाय से लगा लेते है। किंतु धर्म एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है।
धर्म की परिभाषा को ठीक से न समझने के कारण ही माक्र्स ने कहा था कि धर्म अफीम के समान है जो मानव को मानव से पृथक् कर देता है जैसे नशे में धुत व्यक्ति स्वयं को नही पहचान पाता वैसे धर्म में दीक्षित व्यक्ति वास्तविकता से मुहं मोड़ लेता है। माक्र्स ने धर्म और संप्रदाय को एक मानकर संभवतः ऐसी व्याख्या की है। अगर धर्म का वह सही अर्थ समझ पाते तो ऐसा न कहते। धर्म समाज को तोड़ता नहीं बल्कि जोड़ता है। धर्म आत्मविकास का साधन है। इसलिए इसे सबसे उत्कृष्ट कहा गया है। आत्मशोधन, आत्मस्वातंत्र और आत्म उन्नति का साधन धर्म है। धर्म के मूलतः दो भेद है- पहला निवृत्त मूलक धर्म और दूसरा प्रवृत्त मूलक धर्म। आत्म संयम, असद् आचरण का प्रत्याख्यान यह निवृत्त मूलक है। राग द्वेष, प्रमाद आदि से रहित आचरण, स्वाध्याय, ध्यान, उपवास, सेवा, विनय, आदि निवृत्ति मूलक धर्म के लक्षण हैं। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी आचरण किया जाता है। वह लौकिक प्रवृत्ति है धर्म नहीं। वस्तुतः ज्ञान दर्शन, चारित्र तप जो कि मोक्ष मार्ग के साधन है धर्म कहलाते हैं। संसार में भौतिक उन्नति प्राप्त करने के लिए जो स्पर्धा देखी जाती है वह मूलतः प्रवृति मूलक और अशांति को बढाने वाली होती है। जैसे-जैसे भौतिक विकास बढता है वैसे-वैसे लोभ भी बढता है। और जब लोभ बढता है तो दुख अवश्यम भावी होता है।
आध्यात्मिक विकास में किये जाने वाले प्रयत्न में भौतिक सिद्धियां स्वयं सिद्ध हो जाती है। राग-द्वेष संसार को बढाने वाला होता है। जहां पर सबलों का पोषण और निर्बलों का शोषण होता है वहां धार्मिक सहिष्णुता नहीं हो सकती। धर्म लौकिक कर्तव्य से भिन्न होता है। प्रायः मानव यह सोचता है कि उसके द्वारा जो कुछ किया जाता है वही धर्म है किन्तु ऐसी बात नही। शास्त्रानुकूल आचरण ही धर्म है। धर्म मोक्षाभिमुख होता है और लौकिक कर्तव्य संसाराभिमुख होता है। धर्म का लौकिक कर्तव्य से भेद सुस्पष्ट है। कृषि, वाणिज्य, व्यापार आदि कार्य केवल लोक प्रर्वतन के लिए है। मूल रूप से जिस कार्य में आत्मोन्नति हो वही धर्म है। धर्म तो मूलतः आत्म विकस ही है। संप्रदाय विशेेष की दृष्टि से इसके अनेक भेद है जैसे वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म इत्यादि। प्रायः धर्म तो अंहिसा ही है इसमें सभी धर्म एक मत है किन्तु जब इसकी सांप्रदायिक दृष्टि से व्याख्या की जाती है तो वह ठीक नही है।
जो मैं मानता हूं वही श्रेष्ठ है इस प्रकार की भावना श्रेष्ठ नहीं है। प्रायः देखा यह जाता है कि धर्म कि जो व्याख्या सांप्रदायिक रूप से की जाती है वह ठीक नहीं है। मार्ग भले ही भिन्न-भिन्न हो किन्तु उद्देश्य की सब में समानता है। यदि सभी विचार पद्धतियों में एकता हो तभी धार्मिक सहिष्णुता की संभावना हो सकती है। वैदिक दर्शन में सर्वे भवन्तु सुखिनः का सिद्धान्त लोक कल्याण का सिद्धान्त है। इसमें लोकहित की कामना की गयी है। इसी प्रकार जैन दर्शन का अनेकान्त वाद, बौद्ध दर्शन का मध्यम मार्ग, ईसाई धर्म का भाई चारा और इस्लाम धर्म का परस्पर प्रेम धार्मिक सहिष्णुता की शिक्षा देते हैं। जैसे एक शरीर के अवयव भिन्न-भिन्न हो कर भी कार्य निष्पादन में एक साथ कार्य करते है वैसे ही विभिन्न धर्मावलंबी यदि अपने विरोध भाव को छोड करके एक साथ काम करे तो यह धार्मिक सहिष्णुता का सबसे अच्छा उदाहरण हो सकता है।
भारतवर्ष धर्म प्रधान देश है। यहां आचार की महत्ता प्राचीन काल से ही मान्य रही है। आचार सम्पन्न व्यक्ति का ही जीवन परिष्कृत एवं व्यवस्थित होता है। आचार के आधार पर अवलम्बित विचार जीवन का परिष्कारक होता है। मानव-मानव से प्रेम सबसे बड़ा धर्म है। धर्म में बहुजन हिताय ओर बहुजन सुखाय की कामना की जाती है। भारतीय धर्म की यह विशेषता रही है कि अनेक आक्रान्ता इस धर्म को नष्ट करने का प्रयास किये किन्तु यह धर्म इतना उदारवादी था कि सब इसीमें समाहित हो गये। इसका मूल कारण है। भारतीय धर्म अहिंसावादी है। अहिंसा का तात्पर्य है मन, वचन, काया से किसी को दुःख न देना। सबके साथ प्रेम का व्यवहार करना, सबके साथ सहिष्णुता का व्यवहार करना, सबके साथ समानता का व्यवहार करना इस धर्म के मूल में है। यहां गुणों की पूजा होती है व्यक्ति की नहीं। यह संस्कृति ऋषि संस्कृति है। ऋषि वह होता है जो शांत होता है और समदर्शी होता है। यही सर्व धर्म समभाव है। (लेखक के अपने विचार है)