पुरुषार्थ : विवेकशील प्राणी का लक्ष्य


(डे लाइफ डेस्क)


पुरूषार्थ दो शब्दों से मिलकर बना है-पुरुष तथा अर्थ। पुरुष का अर्थ है विवेकशील प्राणी तथा अर्थ का तात्पर्य है लक्ष्य। अतः पुरुषार्थ का अर्थ है विवेकशील प्राणी का लक्ष्य। इस अर्थ में पुरुषार्थ एक और सांसारिक लक्ष्य और पारलौकिक लक्ष्य और कत्र्तव्य है तथा दूसरी और इसमें नैतिकता आर्थिक, शारिरीक तथा आध्यात्मिक मूल्यों को संतुलित किया गया है। पुरुषार्थ के अंतर्गत मनुष्य भौतिक सुखों को उपभोग करते हुए धर्म का भी समान रूप से अनुसरण करके मोक्ष का अधिकारी होता है। मोक्ष भारतीय जीवन का परम लक्ष्य है। इसी की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है। पुरुषार्थ चार है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।


धर्म शब्द का अर्थ धारण करना है। धर्म प्रजा को धारण करता है। धर्म मानव को कत्र्तव्यों सतकर्मों एवं गुणों की और ले जाता है। धर्म व्यक्ति की विविध रूचियों, इच्छाओं, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं आदि के बीच संतुलन बनाये रखता है।


सदाचार को धर्म का लक्षण माना गया है। सदाचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। धर्म वही है जो किसी को कष्ट नहीं देता अपितु लोककल्याण करता है। धर्म का ही आश्रय ग्रहण करके व्यक्ति इस संसार में तथा परलोक में शांति प्राप्त करता है जो व्यक्ति धर्म का सम्मान करता है धर्म उसकी सदैव रक्षा करता है। शरीर नष्ट हो जाने पर सबकुछ छूट जाता है। किन्तु धर्म जीव के साथ जाता है। धर्म को साक्षात् ईश्वर का स्वरूप माना गया है। तप, शौच, दया और सत्य धर्म के चार अंग है। धर्म का संबंध मनुष्य के अंतकरण से होता है। धर्म का पालन मनुष्य को अंतर्मुखी बनाकर शुद्ध कर देता है। दूसरा महत्वपूर्ण पुरुषार्थ अर्थ है जिस प्रकार आत्मा के लिए मोक्ष बुद्धि के धर्म और मन के लिए काम की आवश्यकता होती है उसी प्रकार शरीर के लिए अर्थ की आवश्यकता है। अर्थ धर्म का मूल है। अर्थ के अभाव में जीवन चलाना बहुत ही कठिन हो जाता है। इसीलिए धन को भी पुरूषार्थ में स्थान देकर इसे उचित मानवीय आकांक्षा माना गया है।



पंचमहायज्ञों को सम्पन्न करने के लिये भी अर्थ के महत्व को स्वीकार किया गया है। मोक्ष प्राप्त के लिए भी अर्थ जरूरी है। अर्थ सम्पन्न व्यक्ति के पास मित्र, भ्रम, विद्या, गुण क्या नहीं होता? अतः धन में सभी गुण समाहित हो जाते है। यदि अर्थ धर्म का विरोधी हो तो उसे त्याग देना चाहिए। अर्थसंचय धार्मिक आधार पर होना चाहिए। अधार्मिकता से अर्जित धन को दुःखद और निंदनीय कहा गया है। तीसरा महत्वपूर्ण पुरुषार्थ काम है। काम का मुख्य उद्देश्य संतानोत्पत्ति तथा वंशवृद्धि करना है। काम का सर्वोत्तम और आध्यात्मिक उद्देश्य पति-पत्नि में आध्यात्मिकता, मानवप्रेम, परोपकार तथा सहयोग की भावनाओं का विकास करना होता है। काम शब्द से कला संबंधी भाव, विलाश, ऐश्वर्य तथा कामनाओं का भी बोध होता है। काम जीवन का प्रमुख अंग है किन्तु इसकी अधिकता भयंकर दुर्गुण है। धर्म अर्थ की प्राप्ति का कारण है और काम अर्थ का फल है। जो व्यक्ति धर्मरहित काम का अनुसरण करता है वह अपनी बुद्धि को समाप्त कर देता है। इन्द्रियां जिसके वस में होती है उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। कामतृप्ति न होने से क्रोध और क्रोध से मोह उत्पन्न होता है।


मोह अविवेक का प्रतिरूप है। इससे स्मृतिभ्रंस, स्मृतिभ्रंस से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से विनाश हो जाता है। इसलिए काम पर अंकुश रखने के लिए उसे धर्म के आवरण में लिप्त किया गया तथा काम की अतिवादिता को अवरूद्ध करने के लिए उस पर धर्म का अंकुश लगाया गया। अंतिम और महत्वपूर्ण पुरुषार्थ मोक्ष है। मानव देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण को पुरा करके ही मोक्ष में ही मन लगाये है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए संलग्न व्यक्ति के लिये यह आवश्यक है कि वह शास्त्रो का अध्ययन करें, धर्मानुसार पुत्रों को उत्पन्न करें। धार्मिक अनुष्ठान करें। तब मोक्ष को प्राप्त करें।


सन्यास आश्रम का अन्यायी व्यक्ति शुभ और अशुभ कर्मों का त्याग करके जब अपना स्थूल शरीर छोड़ता है तब वह जन्म और मृत्यु तथा पुनर्जन्म से पूर्णतः मुक्त हो जाता है। इन्द्रिय निरोधी, रागद्वेष का त्यागि और अहिंसा में लगा हुआ व्यक्ति ही मोक्ष योग्य होता है।  मोक्ष प्राप्ति के विशुद्ध चारित्र आवश्यक है। मोक्षार्थि व्यक्ति ही शत्रु मित्र से समभाव रखते हुए किसी भी जीव के प्रति द्रोह नहीं करता। लोभ, मोह, काम, क्रोध और अहंकार को पूर्णतः त्याग देता है।


धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। इसमें धर्म को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है मोक्ष से धर्म का प्रत्यक्ष संबंध भी है। धर्म व्यक्ति को मोक्ष की और ले जाता है। व्यक्ति इस संसार में रहकर सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करें। उपभोग करें। धर्मसंचय करें। किन्तु यह सब धर्मानुकूल होना चाहिए। मानव धर्मानुकूल अर्थ, काम का सेवन करने के पश्चात् परम पुरुषार्थ के समीप पहुंचता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनमें से एक की भी न्यूनता में पुरूषार्थ का सेवन ठीक से नहीं हो सकता।


पुरुषार्थ की अवधारणा जीवन के उच्चतर आदर्शों की प्राप्ति के लिये कही गई है। पुरुषार्थ के माध्यम से ही मानव जीवन का सर्वांगीण विकास हो सकता है। पुरुषार्थ की अभियोजना पूर्ण है और इसी से पूर्णत्व की प्राप्ति संभव है। यह व्यक्ति और समाज के निर्माण का भी अधिकार है। पुरुषार्थ का सिद्धांत भारतीय संस्कृति की आत्मा है। पुरुषार्थ के माध्यम से व्यक्ति विभिन्न उत्तरदायित्वों को निष्ठापूर्वक निभाने में समर्थ हो सकता है। संयम, नियम और अनुशासन के कारण जीवन में संतुलन बना रहता है। (लेखक के अपने विचार हैं)



प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़


पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान