कविता
अपने बच्चों में अपना बचपन देख लेती हूँ
मैं माँ बन के माँ आप की छाँव से लिपट लेती हूँ
अपने भीतर न जाने कितने भावों को भर लेती हूँ
नव वधु से नव सिखी, अब बड़े-बड़े जतन कर लेती हूँ
रात ,रात जग के बिन आलार्म के जग लेती हूँ
मैं माँ बनके, माँ आप से हर दिन मिल लेती हूँ
परवल, टिंडे, बैगन, सब कुछ बना लेती हूँ
माँ, आप वाली खुशबू मैं भी मिला देती हूँ
सब की झुलझुलाहटो को मैं हँस के सह लेती हूँ
खुद को भूल कर मैं सब को जी लेती हूँ
झुठला देती हूँ, सहला लेती हूँ ,कभी कभी छुपा लेती हूँ
मैं माँ अम्बर को फाड़ कर चादर बना लेती हूँ
सब के सोते सब काम निपटा लेती हूँ
सब के जगते ही ख़ुद को आराम में बता देती हूँ
सब की जरूरतों का आभाष कर लेती हूँ
दिन निकलने से पहले ही, रात तक कि तैयारी कर लेती हूँ
मैं माँ बन के पूर्णता के अहसास से सवर लेती हूँ
घर को मंदिर ,खुद को धूप सी बिखेर देती हूँ
ममता सिंह राठौर (गाज़ियाबाद)