भारतीय ऋषि परम्परा 



(डे लाइफ डेस्क)


हमारा देश भारत ऋषि परम्परा का देश है। हमारे देश में ऋषियों, मुनियों, संतों को मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया गया है। ऋषि या संत उसे कहते है जो शांत होता हैै जो अपनी इन्द्रियों का दमन कर लिया है। काम, क्रोध, मद, लोभ जैसे कषाय उसमें नहीं होते। प्राचीन भारत में आश्रम व्यवस्था को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इस व्यवस्था की नियोजना मनुष्य के जीवन को सुगठित और सुव्यस्थित करने के लिए की गयी थी। वस्तुतः जीवन की वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए ज्ञान कत्र्तव्य और आध्यात्म के आधार पर मानव जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में विभक्त किया गया है। इसका सर्वोपरि और अंतिम उद्देश्य मोक्ष माना गया है।


ब्रह्मचर्य आश्रम प्रथम आश्रम है। इसमें शिष्य ऋषियों के आश्रम में अपने श्रम के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। इस आश्रम को प्रमुख उद्देश्य विद्या की प्राप्ति थी। प्राचीनकाल में चैदह विद्याऐ बतलायी गयी है। ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचारी गुरू के आश्रम में और उनके सान्निध्य में इन विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करता था। दूसरा महत्वपूर्ण आश्रम गृहस्थ आश्रम है। गृहस्थ आश्रम ऐहिक और पारलौकिक सुख प्राप्त के लिए विवाह करके अपने सामथ्र्य के अनुसार परोपकार करने और नियतकाल में यथाविधि इश्वरोपासना और गृहकृत्य करने और सत्य धर्म में ही अपना तन, मन, धन लगाने और धर्मानुसार संतानोतपति करने का उतरदायित्व रहता था।


गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम को समाप्त कर गुरूगृह से स्नातक बनकर विवाहोपरान्त प्रवेश करता था। जैसे वायु के आश्रय से जीवों का जीवन होता है। वैसे ही गृहस्थ आश्रम से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यासी आदि सब आश्रम वासियों का निर्वाह होता है। ऋषियों के सान्निध्य में उनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का उपयोग मनुष्य इस जीवन में करता है। गृहस्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ आश्रम का प्रारम्भ होता था। वन की और प्रस्थान करना वानप्रस्थ आश्रम था। इस आश्रम में नित्य वेद पाठ कर जप को स्थिर रखना, शीत, ग्रीष्म आदि को सहन करना और सब प्राणियों पर दया रखने का भाव इस आश्रम में रहता था।


चैथा आश्रम संन्यास आश्रम कहलाता है। सन्यास आश्रम महत्वपूर्ण आश्रम है। इस आश्रम में समस्त आसक्तियों का त्याग करके परिब्राजक होकर संन्यास आश्रम में प्रवेश किया जाता था। इसमें हर्ष शोकादि द्वन्द्वों से विमुक्त होकर संन्यासी ब्रह्म में अवस्थित होता है। परिब्राजक उसे कहते है जो सबकुछ त्यागकर वनों में या प्रकृति के अंचल में अपना निवास बना लेता है। आश्रम व्यवस्था के बाद समाज व्यवस्था को चलाने के लिए हमारे देश में वर्ण व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्ण है। ब्राह्मण का कार्य समाज को शिक्षा देना, क्षत्रिय का काम राष्ट्र की रक्षा करना, वैश्य का कार्य समाज का भरण-पोषण करना और शूद्र का कार्य सेवा करना निर्धारित था। गुरूकुल प्रणाली ऋषि परम्परा की प्रणाली थी। आश्रमों में विद्यार्थी प्रातः उठकर नित्य कर्म करके मंद सुगंध वायु का सेवन करने के लिए आश्रमों में भ्रमण किया करते थे। यह आश्रम प्रकृति के नजदीक रहता था। जीवन मंे अनुशासन का पाठ ऋषियों के सान्निध्य में ही विद्यार्थी प्राप्त करता था। इस आश्रम में आत्म तत्वों को जानने की प्रेरणा मिलती थी। उन्हें यह शिक्षा दी जाती थी की जियो और जिने दो।


प्राचीन काल में राज्यसत्ता को नियंत्रित करने के लिए गुरू परम्परा का विधान था। राजा भी गुरूओं को महत्व देते थे। कोई भी निर्णय गुरू के परामर्श से ही लिया जाता था। गुरू रिद्धि-सिद्धि सम्पन्न होते थे। किन्तु आजकल यह परम्परा लुप्त हो गयी है। स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए ऋषि परम्परा का पुनुरूथान करना है। मनुष्य कितना भी आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाए किन्तु जब तक मानसिक शांति नहीं प्राप्त होती सबकुछ बेकार है। मानसिक शांति के लिए स्वार्थ, परार्थ, परामर्थ की चेतना का विकास होना जरूरी है। परमार्थ की चेतना जागृत हो जाने पर मानवता का विकास सर्वोत्कृष्ट हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो में व्याख्यान देने के लिए जब खड़े हुए तो लोग उनके वेशभूषा को देखकर हश पड़े। किन्तु जब उनका भाषण सम्पन्न हुआ तो सभी लोग उनकी प्रशंसा करने लगे।


स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति वेशभूषा से महान नहीं होता बल्कि आचार विचार और चरित्र से महान होता है। मानव का चिंतन यदि उच्च आदर्शात्मक है तो उसके आदर्श भी ऊँचे होंगे। आज भारत में जो प्राकृतिक संपदा सुरक्षित है उसमें ऋषियों मुनियों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीनकाल में वृक्षों को देवता मानकरके पूजा होती थी। पीपल का वृक्ष आज भी पूजनीय है। इसमें वासुदेेव का वास माना जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी अगर विचार किया जाये तो पीपल का वृक्ष सबसे अधिक आॅक्सीजन को छोड़ने वाला वृक्ष है।


ऋषि बुरे कर्मों से इन्द्रियों के निरोध, राग-द्वेष आदि दोषों के क्षय और निर्वैरता से सब प्राणियों का कल्याण करता है। वैसे तो अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष जीवन के चार पुरूषार्थ बतलाये गये है। धर्म जीवन को अनुशासित करता है। अर्थ जीवन का भरण-पोषण करता है। काम समाज के संबंध को पुष्ट करता है। मोक्ष जीवन की अंतिम अवस्था है। इस अवस्था में मनुष्य सबकुछ त्यागकर परमात्मा में लीन होना चाहता है। मोक्ष की अवस्था परमशांत की अवस्था है। यही जीवन का परम उद्देश्य है। भारतीय ऋषि परंपरा में जीवन के सभी आदर्श समाहित है।



प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़


पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान