टेसू का फूल और होली


                बसंत में अपनी रंगत का जादू दिखाने वाले टेसू के फूलों की बहार खिलने लगी है। हूबहू दीपक की लौ के आकार तथा रंग के कारण अंग्रेजी साहित्यकारों ने इसे फ्लेम आॅफ फाॅरेस्ट यानी जंगल की आग नाम भी दिया। ब्रह्मवृक्ष का दर्जा प्राप्त टेसू को पलास, परसा, ढाक तथा केसू के नाम से भी जाना जाता है। तोते की चोंच के समान फूलों का आकार होने के कारण से किंशुक नाम भी दिया गया है। टेसू के फूलों से होली खेलने का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।


                पौराणिक कथा के अनुसार कामदेव ने टेसू के वृक्ष पर बैठकर भगवान शिव की तपस्या की थी । शिव ने क्रोध में अपनी तीसरी आँख खोलकर कामदेव को भस्म कर दिया। वृक्ष जलने लगा तो कामदेव ने शिव से प्रार्थना कर अपने को बचाया। कहते हैं इसी वजह से शिव के दहकते हुए तीसरे नेत्र की भाँति इसके फूल हो गए। कहा जाता है कि टेसू के वृक्ष में सृष्टि के प्रमुख देवता, ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी निवास है। हिंदू धर्म में इस वृक्ष का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में बहुतायत से किया जाता है। इस पेड़ की लकड़ी से दण्ड बनाकर द्विजों का यज्ञोपवित संस्कार किया जाता है। टेसू के वृक्ष भारत के अलावा दक्षिण पूर्वी एशिया के बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान, थाइलैंड, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका तथा पश्चिम इंडोनेशिया में बहुतायत से देखा जा सकते हैं। मध्यप्रदेश के जंगलों में भी टेसू के वृक्षों के जंगल होने की पुष्टि होती है, लेकिन तेजी से कम होते पेड़ों के कारण अब ये पेड़ कहीं-कहीं ही दिखाई देते हैं। बदलते दौर में लोगों ने भले ही टेसू जैसे उपयोगी फूल को भुला दिया है, पर रासायनिक रंगों के मुकाबले टेसू के फूलों से बना होली का रंगे तथा गुलाल ज्यादा सुरक्षित होता है। कई औषधिक गुणों से भरपूर होने के कारण प्राचीन काल में होली खेलने के लिए टेसू के रंगों का ही उपयोग किया जाता था।



                हिंदू राज्यों के अलावा मुस्लिम शासकों और मुगलकाल में भी होली का पर्व धूमधाम से मनाने की प्रथा थी । अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह जफर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारम्भ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने-चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े तथा केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महलों में उम्दा ठंडाई, मिठाइ तथा पान और इलायची से मेहमानों की आवभगत की जाती थी।


                आयुर्वेद में टेसू के अनेक गुण बताए गए हैं। इसके पाँचों अंगों तना, जड़, फल, फूल और बीज से दवाइयाँ भी बनती हैं। टेसू के पत्तों से पत्तल-दोने भी बनाए जाते हैं। कहा जाता है कि पलाश के पत्तों में खाना खाने से चाँदी के बर्तन जितने स्वास्थ्य संबंधी फायदे होते हैं। प्रसाद तथा पंचामृत के लिए इसके पत्ते शुभ माने जाते हैं। टेसू के फूल त्वचा संबंधी रोगों के लिए रामबाण इलाज है। इसके फूल को पानी में उबालकर नहाने से त्वचा संबंधी कई समस्याएँ दूर हो जाती हैं। गर्मियों में लू आदि से बचने के लिए भी पलाश के फूलों का इस्तेमाल होता है। इसके पेड़ से गोंद प्राप्त होता है जिसे ‘कमरकस’ कहा जाता है। गर्भवती महिलाओं को इससे फायदा होता है। पौरूष कमजोरी में भी पलाश का गोंद स्पर्म काउंट बढ़ाने के लिए असरदार माना जाता है।


                जानकार कहते हैं कि सफेद पलाश का पेड़ भी चमत्कारी होता है । दुर्लभ प्रजाति का होने के कारण इसके केवल दो ही पेड़ बचे हैं जो मध्यप्रदेश के मंडला जिले के सकरी गाँव में हैं। करीब 250 साल पहले पुराने इस पेड़ पर शासन ने संरक्षित प्रजाति का बोर्ड भी लगाया है पर ग्रामीण खुद ही इसकी देखभाल करते हैं। टेसू के फूल की इतनी लोकप्रियता के कारण ही उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे राज्य पुष्प् का दर्जा दिया है तथा इस फूल को भारतीय डाक विभाग द्वारा डाक टिकट पर भी स्थान दिया गया है।


                पलाश या टेसू के फूल को कविवर हरिवंशराय बच्चन ने क्रांतिकारी नजरिए से देखा है वह लिखते हैं कि ‘‘वह देखो पलाश के वन से उठ क्रांति की पताका लहराई।’’ टेसू के फूलों से होली खेलने की प्रथा अब समय के साथ कम होती जा रही है। इसी कारण इसे खेलते समय गाए जाने वाले गीत भी विस्मृत होते जा रहे हैं। शारदीय नवरात्र के दिनों में उत्तर-भारत तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में साझी और टेसू का खेल काफी लोकप्रिय था। विषय की दृष्टि से इसके गीत बड़े ही उटपटांग होते थे लेकिन मनोरंजक होते थे। प्रादेशिक भाषा के गीत गाते हुए लड़के-लड़कियों की टोलियाँ गली-मौहल्लों में हाथ में टेसू के फूलों की डालियाँ लिए घूमती रहती थी।


                रासायनिक रंगों से रंगी इस दुनिया ने टेसू के फूल को भले ही भुला दिया है लेकिन छत्तीसगढ़ के हर्बल रंग अमेरिका, इटली, कनाडा, रूस, बैल्जियम, आॅस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, नेपाल, स्पेन, यू.एस., मलेशिया सहित वल्र्ड के 20 से ज्यादा देशों में पहुँच रहे हैं। टेसू से हर्बल रंग बनाने के लिए छत्तीसगढ़ के कई गाँवों से टेसू के फूल रायपुर पहुँचते हैं । जानकारों के अनुसार एक किलो फूल से 500 ग्राम गुलाल बनाया जाता है। होली के समय टेसू के फूलों से बने रंगों की माँग इतनी बढ़ जाती है कि पिछले साल 15-20 दिनों में तकरीबन 40 लाख रू. का कारोबार हुआ। बढ़ते कारोबार का कारण यह है कि ये रंग इंटरनेशनल स्टैंडड पर खरे उतर रहे हैं। यहाँ के टेसू से बने हर्बल रंग प्रेसिडेंट हाउस तथा पी.एम. हाउस में पहुँच रहे हैं। (लेख में लेखक के अपने विचार हैं)



रेणु जैन


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