सवेरे-सवेरे तोताराम के साथ घूमने निकले। जैसा कि होता है, रास्ते में तरह-तरह के बोर्ड और सूचनाएँ दिखते हैं- 'नगर परिषद के कर्मचारी काम पर हैं', 'इधर से रास्ता बंद है', 'असुविधा के लिए खेद है'। इसके अतिरिक्त कुछ और गतिविधियाँ भी बिना सूचना के चलती रहती हैं जैसे रास्ते में किसी मकान का काम चल रहा है और बजरी, ईंटें, पत्थर आदि रास्ते में पड़े हैं । पर आज जो सूचना देखी उससे बड़ा आश्चर्य हुआ, एक मकान के पास एक सूचना पट्टा रखा हुआ था- 'सावधान, अन्दर मंथन चल रहा है।'
मंथन तो बिलोने को कहते हैं और बिलोना तो परंपरागत घरों में सवेरे-सवेरे की एक सामान्य क्रिया है। इसमें 'कुत्तों से सावधान' जैसी सूचना लिखने की क्या आवश्यकता थी। हमने तो बचपन से देखा है कि हमारे उठने से पहले ही माँ दही बिलोना शुरू कर देती थी। बीच-बीच में हमें उठाने के लिए आवाज़ भी लगा देती थी और हम थे कि उठने की बजाय बिलोने की लोरी जैसी घर्र-घर्र की मधुर आवाज़ का आनंद लेते पड़े रहते थे। और एक यह मंथन! कौनसा खतरा है इसमें, जो लिखा है- 'सावधान, अन्दर मंथन चल रहा है।'
हम तो सोच ही रहे थे पर तोताराम ने तो तत्काल कार्यवाही शुरू कर दी बोला- चल, अन्दर देखते हैं क्या हो रहा है? हमारे उत्साह न दिखाने पर भी तोताराम हमें घसीटता हुआ अन्दर ले ही गया। अन्दर जा कर देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ। कई लोग सिद्धांतों का एक बड़ा सा लट्ठ कीचड़ के एक कुंड में डाल कर अपने पायजामें के नाड़ों का रस्सा बना कर उस कीचड़ को बिलोने की कोशिश कर रहे थे। कीचड़ उछल-उछल कर उनके कपड़ों और चेहरों पर गिर रहा था।
तोताराम से रहा नहीं गया । पूछा तो बोले- मंथन चल रहा है। हमने कहा- भाई, मंथन तो दही का होता है जिसमें से मक्खन निकलता है। बड़ा ध्यान रखना पड़ता है दही के मंथन में । सावधानी से रई को घुमाना पड़ता है कि कहीं उछल कर दही बाहर न गिर पड़े। यदि बिलोते-बिलोते सारा दही ही उछल कर बाहर गिर गया तो अंत में बचेगा क्या ? बिलोने की मेहनत और बेकार जायेगी। और फिर सर्दी में गरम पानी और गर्मी में ठंडा पानी बड़े नाप-जोख से डाला जाता है। बड़े धैर्य और कलाकारी का काम है बिलोना।
बिलोनेवाले भी लगता है थक गए थे सो हमसे बातें करने के बहाने सुस्ताना चाहते थे, बोले- यह ऐसा-वैसा मंथन नहीं है। यह तो हार के कारणों को जानने के लिए किया जा रहा है। हमने कहा समुद्र-मंथन तो सुरों और असुरों ने मिलकर किया था। और समुद्र में ही सब कुछ होता है- विष, वारुणी, अमृत, कामधेनु, कल्पवृक्ष, लक्ष्मी आदि। पर आप तो कीचड़ का मंथन कर रहे हैं तो इसमें से क्या निकलेगा । इसमें तो हैं ही जोंक, घोंघे, सेवार। इसमें मोती कहाँ से मिलेंगे?
कबीर जी ने कहा है-
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ ।
मैं बौरी बूडन डरी रही किनारे बैठ ।।
वे बोले- जी, मोती तो हम सब चाहते हैं पर डूबने कि रिस्क कोई नहीं उठाना चाहता।
हमने कहा- तो फिर करते रहिये मंथन इस कीचड़ का और लिथदते रहिये।
हम और तोताराम वहाँ से चल दिए। पीछे से फिर ज़ोर-ज़ोर से घर्र-घर्र की आवाज़ आने लगी। (लेखक के अपने विचार हैं)
पता : रमेश जोशी (वरिष्ठ व्यंग्यकार, संपादक 'विश्वा' अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, अमरीका)
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