राष्ट्र कवि प्रदीप : गाँधी जी की दूसरी तस्वीर


यह एक हादसा है जिसे भुलाया भी नहीं जा सकता और याद करने से बचा भी नहीं जा सकता। पिछले महीने 26 जनवरी को 71वाँ गणतंत्र दिवस मनाया गया। हर जगह, हर आवाज में बारम्बार यादगार गाना बजाया गया ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँखों में भर लो पानी (रचयिता स्व. कवि प्रदीप, गायिका लता मंगेशकर)। इस तराने को सुनकर अपने आप आँखों से सैलाब निकलने लगता है, मगर शायद ही कहीं पिछली 26 जनवरी को स्व. कवि प्रदीप का कोई जिक्र ही किया गया हो। श्रद्धांजलि तो दूर की बात है। यदि उक्त दिन गणतंत्र दिवस था तो प्रदीप दिवस भी था। जान लें कि प्रदीप का जन्म छह फरवरी को मालवा (मध्यप्रदेश) के ख्यात शहर उज्जैन के पास बड़नगर में सन् 1915 को हुआ था। अपने सिद्धांतों के पक्के प्रदीप ने 84 वर्ष की उम्र में भी किसी से उधार की जिंदगी नहीं मांगी। यदि अपनी बात को मर्दांनगी से कहते थे और उन्होंने उक्त विश्व चर्चित गाना 1962 में भारत-चीन युद्ध जिसमें भारत की शर्मनाक हार हुई थी शहीद मेजर शैतानसिंह की शाहिदगी से तड़प रक 1963 में लिखा था। संगीतकार थे सी. रामचंद्र। प्रदीप अपनी कलम की आबरू रखने को अंतिम समय तक तैयार थे।
 
इसीलिए घोर बीमारी में किसी से कोई मदद नहीं माँगी। सिर्फ लता मंगेशकर ने उन्हें एक लाख रूपए की राशि उनके मुंबई स्थित आवास पर दी थी। प्रदीप को फिल्मों का सबसे बड़ा पुरस्कार दादा साहेब पुरस्कार 1978 में दिया गया, मगर भारत रत्न तो क्या पद्मश्री, पद्मभूषण या पद्मविभूषण तक नहीं। बस राष्ट्र कवि घोषित करके काम चला लिया गया। ऐसे कथित स्वघोषित राष्ट्र कवि तो खासकर इन दिनों कई जगह मिल जाएँगे । इससे ज्यादा दुखद बात और क्या हो सकती है कि गणतंत्र दिवस की  जिस पूर्व संध्या पर लता मंगेशकर ने जब स्वयं यह गाना सुनाया तो तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू समेत कई फिल्मी हस्तियाँ जार-जार रोई थीं, मगर वहाँ प्रदीप कहीं मौजूद नहीं थे। उन्हें निमंत्रित ही नहीं किया गया था। उसकी बिटिया मृतुल प्रदीप ने उक्त बातें एक साक्षात्कार में बताते हुए कहा था कि करीब तीन माह बाद स्वयं पंडित नेहरू उनके निवास पर क्षमा माँगने आए थे। मान लेना चाहिए स्वयं एक परिपक्व लेखक होने के नाते नेहरू हर लेखक-कवि का दिल खोलकर सम्मान करते थे, इसलिए उनसे प्रदीप से माफी माँगे बिना व्यक्तिगत रूप से रहा नहीं गया होगा। उन्होंने प्रदीप के मुँह से यह गाना फिर सुना।
 
 बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि कुल 71 फिल्मों के लिए लिखे गए 1700 से ज्यादा में से  कुछ इतने बेजोड़ भक्ति पद वीर गीत भी थे कि उनका एकमात्र उदाहरण है फिल्म जय संतोषी माता का गीत मझधार में है अटका बेड़ा पार करो माँ। यह गीत देश-दुनिया में इतना छा गया कि मात्र इसी के लिए बार-बार दर्शकों की भीड़ टाॅकीजों में लगती थी। पैसे तथा स्त्रियाँ श्रद्धावश अपने गहने तो हाॅल में अर्पित कर ही देते थे, उसके बाद कहा जाता है कि हजारों महिलाओं ने संतोषी माता का व्रत रखना शुरू कर दिया और इसका बाॅक्स आॅफिस पर कलेक्शन था महाहिट ‘शोले’ से जरा सा कम।
 
 बड़नगर से थोड़ा बहुत पढ़कर प्रदीप, पहले पास ही स्थित मध्यप्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर में सातवीं कक्षा तक एक सरकारी स्कूल में पढ़े। वहाँ से अपने मामा के घर रतलाम भेज दिए गए, लेकिन एक दिन मामी की किसी बेजा टिप्पणी ने उन्हें इतना विचलित कर दिया कि करीब 95 कि.मी. का सफर रेल पटरी के सहारे चलकर बड़नगर वापस आ गए, मात्र स्वाभिमान के सुरक्षा कवच में कोई भी सुराख लगने से बचने के लिए। मूल रूप से मजाकिया किशोर  को इलाहाबाद (प्रयागराज) भेजा गया। वहाँ से उन्होंने लखनऊ जाकर स्नातक की पढ़ाई की। उसी बीच महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने उनकी एक कविता प्रकाशित करते हुए कहा था कि जो कवि राष्ट्र चेतना और राष्ट्रभक्ति का भाव युवाओं में जगा रहे हैं, उनमें सबसे ज्यादा प्रतिभावान, दृढ़, प्रेरणादायी ,ओजस्वी और बढ़-चढ़कर अपनी कलम की रोशनाइयों से यही युवा आने वाले अंधे समय को जगमग करेगा।


 इकहरी काया के प्रदीप जब लखनऊ के एक दोस्त की सलाह पर मुंबई (तब बंबई) गए तो हिमांशु राॅय ने उन्हें 200 रूपए माह की  नौकरी पर बाॅम्बे टाॅकीज में रख लिया। इस नौकरी के दौरान ही हिमांशु राॅय ने प्रदीप से कहा तुम्हारा पूरा नाम रेलगाड़ी जैसा है। पूरा नाम वाकई बड़ा था (रामचंद्र नारायण द्विवेदी)। इसी का बदला रूप प्रदीप हो गया। एक और रोचक किस्सा हुआ। उन्हीं दिनों अभिनेता प्रदीप कामयाब रहे थे, पर दोनों के नाम प्रदीप ही हुआ करते थे। चिटिठ्याँ एक-दूसरे के यहाँ चली जाती थीं। प्रदीप ने बीच का रास्ता निकाला नाम के आगे कवि लिख दिया। इससे ही बात बनी।


 चल-चल रे नौजवान (बंधन फिल्म) को राष्ट्र गीत के रूप में सिंध-पंजाब विधानसभा ने रोज गाया जाना प्रारम्भ कर दिया था। पश्चात् मशहूर अभिनेता बलराज साहनी ने इस अजर-अमर रचना को बीबीसी रेडियो को भेज दिया, जिसे खूब सुना गया। ऐसा  ही एक और तराना दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है को सुनकर हुकूमत इतनी डर गई कि कवि प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया गया। प्रदीप को भूमिगत होना पड़ा। कवि प्रदीप के आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ  झाँकी हिन्दुस्तान की, दे दी हमें आजादी, हम लाए हैं तूफान से किस्ती निकाल के, जैसे ऐसे गीत लिखे, जिन्हें हाॅल में बार-बार सुनाया जाता था। प्रदीप ने सुभाषचंद्र बोस, कंगन, पुनर्मिलन, अंजान, झूला, मशाल, जागृति, तलाक, दो बहन और पैगाम जैसी कई अन्य  सफलतम फिल्मों के गाने लिखे।
 
 ऐ मेरे वतन गीत की राॅयल्टी कवि प्रदीप विधवा कोष में जमा करवाना चाहते थे। उनकी बेटी मृतुल प्रदीप के अनुसार 10 लाख की इस राशि को उक्त फंड में ही जमा करने का निर्देश बाॅम्बे हाईकोर्ट ने भी दिया था। यह गाना हरदम गैर फिल्मी ही रहा। कवि के हर गाने में गाँधी की तस्वीर ही नजर आती थी। आखिर में स्व. रामावतार त्यागी की एक गीत की कुछ पंक्तियाँ याद किए बिना नहीं रहा जाता :


 जितने गीत लिखे हैं मैंने
 अपनी इस बीमार उम्र में
 उन सब को बेचूँ तो शायद
 आधा कफन मुझे मिल जाए 



(लेख मेँ लेखक का अपना अध्ययन और अपने विचार हैं)



      
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