पर्यावरण सिर्फ शब्द नहीं, गम्भीरता से सोचना होगा 


आज हम कहाँ खड़े हैं? ये प्रश्न मैं सभी के समक्ष रख रही हूँ क्योंकि हम चेतन तो हैं पर जागरुक नहीं।
प्रकृति से उसका नाता जिस रूप में भी कम होता जायेगा, उसके दुःखों में बढ़ोत्तरी होती जायेगी।
प्रकृति आज मानव द्वारा दिये गये ज़ख्मों से कराह रही है और प्रश्न कर रही है क्या मेरा रूप यही है?
आज ये प्रश्न हमें स्वयं से करना होगा कि विकास की अंधी दौड़ में हम क्या खोना व क्या पाना चाहते हैं?
स्वतंत्र भारत में लोगों में पश्चिमी प्रभाव, औद्योगीकरण तथा जनसंख्या विस्फोट के परिणाम स्वरूप देश में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दिया।


    आज की भागमभाग की पद्धति में मनुष्य जितना भौतिक सुखों के पीछे भाग रहा है, स्थायी सुख और शांति उससे उसी अनुपात में पीछे छूट रहे हैं। आज मानव हेतु ईंट-गारे के आशियानें ढूंढना सरल है लेकिन खुशियों के आशियानों की खोज और उनकी प्राप्ती सब्जबाग से कम नहीं। बल्कि यह हमारी व आपकी जीवनशैली और प्रकृति से जुड़ा अनुभूतिजन्य भाव है। पर मनुष्य को यह स्वीकारना होगा कि प्रकृति से उसका नाता जिस रूप में भी कम होता जायेगा, उसके दुःखों में बढ़ोत्तरी होती जायेगी। आज मानव अधिक खाने-पीने व कमाने की चाह में प्रकृति को छल रहा है, परोक्ष व अपरोक्ष दोनों ही रूपों में। इसका प्रतिफल क्या मिला? पीड़ा, घुटन और बीमारियों को आमंत्रण क्योंकि जो धरा कभी हरे सोने से ढकी, इतराती बलवती व इठलाती थी आज मानव द्वारा दिये गये ज़ख्मों से कराह रही है और प्रश्न कर रही है मेरा रूप यही है? पर्यावरण के प्रति बढ़ती ये असंवेदनशीलता आज ये परिणाम उत्पन्न कर रही है। एक तरफ बढ़ती जनसंख्या उस पर प्रकृति का अनुचित प्रयोग, वास्तव में संक्रमणकालीन युग है। यदि हम अभी भी नहीं चेते तो सभ्यताओं के अवसान में देरी नहीं लगेगी।


    पर्यावरणीय समृद्धि की चाहत या उपभोगवादी चीन और अमेरिका जैसा बनने की चाहत क्यों? ये प्रश्न भारत स्वयं से करे? भारत में पर्यावरण संरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है। हड़प्पा संस्कृति पर्यावरण से ओत-प्रोत थी, तो वैदिक संस्कृति पर्यावरण संरक्षण हेतु पर्याय बनी रही। भारतीय मनीषियों ने समूचि प्रकृति ही क्या सभी प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना। मध्यकालीन एवं मुगलकालीन भारत में भी पर्यावरण प्रेम बना रहा। अंगे्रजों ने भारत में निजी आर्थिक लाभ के कारण पर्यावरण को नष्ट करने का कार्य प्रारंभ किया। विनाशकारी दोहन नीति के कारण पारिस्थितिकीय असंतुलन, भारतीय पर्यावरण में ब्रिटिश काल में ही दृष्टिगोचर होने लगा था। स्वतंत्र भारत में लोगों में पश्चिमी प्रभाव, औद्योगीकरण तथा जनसंख्या विस्फोट के परिणाम स्वरूप तृष्णा जाग गई, जिसने देश में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दिया।


     मानव हस्तक्षेप के आधार पर देखें तो पर्यावरण को दो प्रखण्डों में विभाजित किया जाता है। जैसे प्राकृतिक या नैसर्गिक पर्यावरण और मानव निर्मित पर्यावरण। हालांकि पूर्ण रूप से प्राकृतिक पर्यावरण (जिसमें मानव हस्तक्षेप बिल्कुल न हुआ हो) या पूर्ण रूपेण मानव पर्यावरण कहीं नहीं पाये जाते। यह विभाजन प्राकृतिक प्रक्रियाओं और दशाओं में मानव द्वारा की गई छेड़छाड़ की मात्रा और न्यूवता का दयोतक मात्र हैं। अधिकतर पर्यावरणीय समस्यायें पर्यावरणीय अवनयन, मानव  जनसंख्या और मानव द्वारा संसाधनों के उपयोग में वृद्धि से जुड़ी हैं। अतः इसके अंतर्गत प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता का क्षरण और अन्य प्राकृतिक आपदाएं इत्यादि शामिल हैं।


     आज के परिवेश में जो भी दिख रहा है, वह एक दशक पूर्व नहीं था, उसका रंग-रूप वैसा नहीं था, मन को प्रसन्न करने वाला रंग, स्वच्छ वायु, निर्मल जल व लहलहाती प्रकृति। परेशान न होइए, इसका सटीक उत्तर आज कोई भी दे सकता है क्योंकि यह सार्वभौमिक उत्तर जो बन चुका है। पर मानव की आम वृत्ति होती है कि जब तक वह किसी चीज को प्रत्यक्ष रूप से देख-सुन व भोग नहीं लेता, तब तक उस पर विश्वास नहीं करता। यही बात आज पृथ्वी के संकट को लेकर भी है। कुछ समय पूर्व जो लोग धरती को हो रहे नुकसान को सिरे से खारिज़ करते थे, आज उसको बचाने की पहल की अगुवाई करते नज़र आ रहे हैं।


    आज ये प्रश्न हमें स्वयं से करना होगा कि विकास की अंधी दौड़ में हम क्या खोना व क्या पाना चाहते हैं? पहले ये तो सुनिश्चित करें क्योंकि विकास की चाहत में प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता जितनी घटती जायेगी, विकास के पैमाने प्राप्त करने की चीख-पुकार उतनी ही बढ़ती जायेगी। अतः नमामी गंगे का संकल्प हो, स्वच्छ भारत, डिजीटल इंडिया, वनों की रक्षा या प्राकृतिक संरचना का वास्तविक रूप-स्वरूप सभी का परम्परागत ढांचा चरमरा जायेगा।


     वस्तुतः पर्यावरण की जटिल समस्या पर विश्व का ध्यान केंद्रित करने हेतु 5 जून 1977 को एक विशेष दिन ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के नाम से घोषित किया गया ताकि इस समस्या व चिंता के विषय को विश्व के प्रत्येक नागरिक का प्रथम विषय बनाया जा सके पर आज हम कहाँ खड़े हैं? ये प्रश्न मैं सभी के समक्ष रख रही हूँ क्योंकि हम चेतन तो हैं पर जागरुक नहीं। (लेखक के अपने विचार, अध्ययन और अनुभव है) 


                                                             
         रश्मि अग्रवाल
वाणी अखिल भारतीय हिन्दी संस्थान (संस्थापक-अध्यक्षा) बालक राम स्ट्रीट नजीबाबाद- 246763, (बिजनौर), मोबाइल : 09837028700, ईमेल : rashmivirender5@gmail.com