बशीर बद्र ग़ज़ल से गुफ्तगू 


विश्वप्रसिद्ध शायर डा. बशीर बद्र के जन्म दिवस (15 फरवरी पर विशेष)


एक मेले जिसे उर्स भी कहा जा सकता है की बात है। सोलह-सत्रह बरस का एक लड़का एक दुकान पर रूका पीछे टंगी चादर पर एक शेर जड़ा हुआ था-


उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,


न जाने जिंदगी की किस गली में शाम हो जाए।


उक्त दुकानदार को शेर के शायर का नाम याद नहीं था। वक्त के दरिया में बहते-बहते यह शेर सात समंदर पार एक इबादत की तरह याद रखा जाता है और भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने इसी शेर से अपने अन्तिम भाषण की समाप्ति की थी। स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी (तत्कालीन प्रधानमंत्री) यह शेर ऐसे याद रखती थीं जैसे कोई मंत्र हो। इस शेर को वे अपनी बहुत गहरी सहेली अमिताभ बच्चन की माँ स्व. तेजी बच्चन को अक्सर सुनाया करती थीं। इस शेर को अपनी कलम से खिलाने वाले शायर का नाम है डा.बशीर बद्र (पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर) सन् 1935 की 15 फरवरी को जन्म लेने वाले बशीर साहब का 85 वाँ जन्मदिन आज है।


फिलहाल वे भोपाल में डिमेंशिया नामक ऐसी बीमारी से ऐसे जूझ रहे हैं जिसमें याददाश्त गिरफ्तार हो जाती है लेकिन बशीर साहब बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं जैसे कभी मुशायरों को सालों तक लूट लिया करते थेबशीर साहब ने मात्र 11 बरस की उम्र में इस फलसफे को गलत साबित कर दिया था कि कोई भी शेर कहने के पहले उस्ताद शायरों के हजारों शेर याद करने पड़ते हैं और शेर कहना लोहे में कील ठोंकने जैसा काम है। एक स्कूली बच्चे की उम्र में उनका शेर था


हवा चल रही है उड़ा जा रहा हूँ तिरे इश्क में मैं मरा जा रहा हूँ।


उन्होंने इस शेर को जब कानपुर में एक मुशायरे में सुनाया तो इसे ऐसे नवाजा गया कि उनका नाम हो गया सिर्फ बशीर बदर । मैं करीब 15-17 साल पहले उन्हें इंटरव्यू करने (इन्दौर) में गया था। मैंने उन्हें उनके तब के एक फिल्मी नगमे उजालों की परियाँ नहाने लगीं नदी गुनगुनाई ख्यालात की याद दिलाई तो वे इतने बुजुर्ग होते हुए भी मुझे बार-बार सेल्यूट करने लगे। फिर बताया मेरी रेल दरअसल गंगा के पुल से गुजर रही थी उसी मचलते, बहते पानी को मैंने अपनी सीट से देखा और यह शेर (मतला) लिख दिया। उन्होंने मुझे एक बार फिर सेल्यूट किया। दरअसल, गजल सदियों से एक शोख, सुंदर, नर्मोनाजुक रंगीन पैहरन रखती है। आप आज से लेकर बशीर साहब के हर संकलन की पड़ताल कर लीजिए, कहीं भी वे बहकते, चिढ़ते या हारते नजर नहीं आएंगे अपने बर्ताव के बारे में उनका एक शेर -


इबादतों की तरह ये काम करता हूँ,


मेरा ऊसूल है मैं पहले सलाम करता हूँ।


बशीर साहब से बात करना, मतलब गजल से सीधे गुफ्तगू करना है। क्या किसी को ये यकीन हो सकता है कि जब वे बी.ए. की पढ़ाई कानपुर में कर रहे थे उनके कोर्स में ही उनकी गजलें शामिल कर ली गई थीं।


जब बशीर साहब मेरठ में रहते थे तो दंगाइयों ने उनकी पूरी सम्पत्ति खाक कर दी थी। उन्हें भोपाल में दूसरा ठिकाना ढूँढ़ना पड़ा, जहाँ उन्हें म.प्र. उर्दू साहित्य अकादमी का कार्यभार सौंपा गया। इसी दौर का उनका एक शेर आज भी याद किया जाता है कोई हाथ भी नहीं मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो हिन्दी साहित्य में भवानीप्रसाद मिश्र को हैं - जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख और से काम लिया। जब हिन्दी के महाकवि-गीतकार-


कोई हाथ भी नहीं मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से


नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो


हिन्दी साहित्य में भवानीप्रसाद मिश्र को आधुनिक कबीर की केटेगरी में रखा जाता है।


उनकी रोशन पंक्तियाँ हैं -


जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख


और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दीख ।


बशीर बद्र ने इसी सपाट बयानी से काम लिया। जब हिन्दी के महाकवि-गीतकार-शायर नीरज मुशायरों या कवि सम्मेलनों में साथ में नुमाया होते थे, नीरज बार-बार बशीर साहब की दाद ही चाहत रखते थे। दोनों को फूल, कली, खुशबू, तितली, शाख, पतझड़, वसंत, रात, चाँद, तारे जैसे सीधे-सादे शब्दों में बात कहना पसंद आता रहा। बशीर साहब ने नए प्रयोग भी किए मगर उलझाने या शब्द-क्रीड़ा के लिए नहीं। जैसे कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ, वो गजल का नया-नया न कहा हुआ न सुना हुआ हर कवि-शायर को लगातार अपने समाज और लोगों की परिक्रमा करते रहना पड़ती है, ताकि जो भी नुक्स हों या सुंदरता हो उसे उसी समाज को दिखा सकें । यह जोखिमभरा काम तो है, मगर इसे किए बिना रहा भी नहीं जाता। बशीर साहब का एक शेर अर्ज है-


कई साल से कुछ खबर ही नहीं, कहाँ दिन गुजारा कहाँ रात की ।


अपने आप पर भरोसा पुरअसर रखने की बात वे इस तरह कहते हैं -


हम तो दरिया हैं, अपना हुनर मालूम है,


जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा,


सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,


इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा।


प्यार, इश्क, वफादारी, बेवफाई के साथ ही डा. बशीर राजनीतिक, सामाजिक सरोकारों के प्रति भी एक सैन्यकर्मी की तरह, मगर पूरी मोहब्बत से हरदम तैनात रहे। उन्होंने स्वार्थ, नफरत, आग, भटकाव की आंधियों में कभी खुद को खो देना पसंद नहीं आया। हरदम आम आदमी की तरह जिद और उसी की तरह तथा उसी के लिए उसी की भाषा में बात कहते रहे।



डा. बशीर उस कलमकार का नाम है जिसने अपने एक-एक शब्द से रोशनियों की झालर या वंदनवार सजा दिए । वे असली हिंदुस्तानियत के सही प्रतीक हैं और ऐसे शायर-कवि हैं, तो माना जाना चाहिए कि हिंदुस्तान आखिरकार हिंदुस्तान ही रहेगा। मीर, गालिब के विरासतदार डा. बशीर शब्दों की फिजूलखर्ची या ज्ञान नहीं बघारते। वे इतनी हिम्मत भी रखते हैं कि अपने पहले संकलन इकाई की अधिकांश गजलों को खुद ही बर्खास्त कर देते हैं और साफगाई से कहते हैं कि मेरे एक भी मिसरे में एकाध शब्द भी बेकार या मुश्किल हो तो उसे तत्काल हटा दिया जाए ।


आजकल के बच्चे कितने बुद्धिमान हो गए हैं इसे डा. बशीर साहब ने सन् 2004 के आसपास ही समझकर शेर गढ़ा


थामुख्तसर बातें करो बेजा वजाहत मत करो


ये नई दुनिया है बच्चों में जिहानत है


बहुत शेर कहने की सबसे पहली तालीम डा.बशीर को उनकी अम्मी (माँ) आलीया बेगम से मिली जो दशकों पहले रवायतों तोड़कर मुशायरों और कव्वालियों में जाया करती थीं। पद्मश्री, साहित्य अमादमी और दूसरे सम्मानों से नवाजे गए इस सतरंगी शायर के प्रमुख संग्रह, आमद, आसमान, इमेज और आज आ चुके हैं। उनका लगभग पूरा कृतित्व बशीर बद्र समग्र (वाणी प्रकाशन) भी आ चुका है। जब 1972 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी एवं पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. जुल्फिर अली खान भुट्टो के बीच एतिहासिक शिमला समझौता हुआ तो भुट्टो ने इंदिरा जी को बशीर साहब का एक शेर सुनाया था :


दुश्मनी करो, जमकर करो, लेकिन यह गुंजाईश रहे,


जब हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों।


उनका यह शेर तो बहुत पसंद किया जाता रहा है


कि लोग टूट जाते एक घर बनाने में,


तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।


आखिर में एक नए तरह का शेर टहनी पर चाँद टिका था समझा बैठे हो। आमीन, जल्दी ही फिर मिलेंगे-



     नवीन जैन


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