स्वामी विवेकानंद ने कहा "लक्ष्य प्राप्ति तक रूको मत" 


अध्यात्म और विज्ञान के आधार पर उनके पास सामाजिक समस्याओं के निराकरण के नुस्खे थे। 


उनके विचार मनुष्य को मनुष्य से अलग देखकर या उनमें बँटवारा करके देखने वाले कतई नहीं थे। 


किसी भी युवा अच्छे-बुरे का वैज्ञानिक आधार पर गहन परीक्षण करके अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेना चाहिए। 


जो अपनी मंजिल शीघ्र से शीघ्र हासिल करना चाहता है। इसीलिए वे अवसाद, चिढ़चिढ़े और गुस्सैल भी होते जा रहे हैं।


स्वामी विवेकानंद एक ऐसे स्वप्न दृष्टा थे, जो गाँधी जी की तरह गाँवों में ही काम करने और उसका रस लेने की भी नसीहत देते थे। 


 नोबल  पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि यदि भारत को जानना-समझना हो तो विवेकानंद को अच्छे से पढ़ लो। इन्हीं स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन 12 जनवरी (सन् 1863 कोलकाता)  के अवसर पर देश में युवा-दिवस मनाया जाता है। विवेकानंद का अजर-अमर वाक्य था- उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रूको मत। लक्ष्य प्राप्ति से स्वामी विवेकानंद का मतलब था सटीक एकाग्रता। एक बार विदेश में वे किसी शहर में नदी के किनारे से जा रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ बच्चे नदी में पड़े अण्डों पर निशाना साथ रहे हैं मगर हर बार वे चूक रहे थे। स्वामी विवेकानंद ने तीर-कमान खुद हाथ में लिया और सभी 12 निशाने साध दिए। बच्चों ने इस आश्चर्यजनक सफलता का राज पूछा। विवेकानंद बोले जो भी काम करो, जो भी लक्ष्य बनाओ केवल  उसी  पर  पूरा  ध्यान रखो। स्वामी विवेकानंद ने लगभग 39 की उम्र (04 जुलाई 1902) में ही देह त्याग दी थी, मगर भारतीय दर्शन के पुनरूद्धार के लिए लगभग सारी उम्र सनातन हिन्दु धर्म का प्रचार-प्रसार करते रहे।


इसका मतलब यह कतई  नहीं  था कि वे किसी भी अन्य धर्म के आलोचक थे या व्यर्थ में हिन्दु धर्म का महिमामंडन करते थे। चूँकि स्वामी विवेकानंद ने भारत में जन्म लिया था सिर्फ इसीलिए सनातन हिंदु धर्म के प्रचारक-प्रसारक बने। यही कारण था कि उन्हें अमेरिकी राज्य  शिकागो  में 1893  में  विश्व  सनातन धर्म में व्याख्यान देने  हेतु  निमंत्रित किया गया  था। इस ऐतिहासिक व्याख्यान की स्मृति तो आज तक कई लोगों को होगी मगर कदाचित यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि अंगे्रजी में ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स आॅफ यूनाइटेड  स्टेट्स  आॅफ  अमेरिका सम्बोधन से जब उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया, तो सुनने वाले शून्य में चले गए थे । दरअसल  विवेकानंद  के नाम  के आगे शून्य लगा दिया गया था। स्वामी विवेकानंद ने शून्य की व्याख्या करनी शुरू कर दी। इसके पहले अमरिकी  और  यूरोपीय  लोग  भारतीय सभ्यता  को हेय दृष्टि से देखते थे, लेकिन जब विवेकानंद  के  इस  सभा  में व्यक्त किए गए संपूर्ण  विचारों को सुना गया  तो  पूरे  अमेरिका  और  यूरोप  में  भारत  के प्रति तुरंत धारणा बदलने लगी। 


विवेकानंद अमेरिका में करीब तीन साल रहे और अपनी सैद्धांतिक और बहुत व्यावहारिक थी उससे लोगों को आंदोलित करते रहे जिसके कारण उनके गुरू रामकृष्ण की याद में रामकृष्ण मिशन की कई शाखाओं की स्थापना हुई, जिसके कारण कई लोग इन मिशनरीज में सम्मिलित होने लगे। विवेकानंद ने 25 वर्ष की उम्र में ही गेरूए वस्त्र धारण कर लिए थे और संन्यासी हो गए थे। वे अपने गुरू रामकृष्ण की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने गए। उनसे मिलने के बाद विवेकानंद इतने प्रभावित हुए कि विवेकानंद ने पूरे भारत की पैदल यात्रा की । यदि सिर्फ भाषणबाजी से ही काम चल जाता तो विवेकानंद के लिए यह बहुत आसान था, क्योंकि वे किसी भी विषय पर बोल सकते थे, पर उन्होंने लोगों की हर तकलीफ को पहले खुद सहकर दिखाया। वे कोलकाता की सड़कों पर ठंड से ठिठुरते या बारिश से भीगते गरीबों को अपने बिस्तर पर सुलाकर रात भर जागते रहते थे और जरूरतमंदों को अपने हिस्से का खाना खिला देते थे। विवेकानंद ने भारतीय गौरव को दुनिया के नक्शे पर फिर से स्थापित करके दिखाया। इसीलिए आज के युवा उन्हें आदर्श तथा मार्ग प्रदर्शक मानते हैं।


स्काॅटिश काॅलेज, कोलकाता से कला में स्नातक विवेकानंद का बचपन का नाम नरेन्द्र दत्त था। वे एक कुलीन कायस्थ परिवार में जन्मे थे, पर उन्होंने अपना नाम बाद में बदल लिया। वास्तव में वे भारत को अंगे्रजों की गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के हक में थे । विवेकानंद के कारण ही यह बात स्थापित करने की आज भी भरपूर कोशिश होती है कि मनुष्य जाति की बेहतरी के ईमानदार प्रयास भारत ने ही किए । स्वामी विवेकानंद को चलता-फिरता वीकिपीडिया भी कहा जा सकता है, क्योंकि उन्हें वेदांत, मनोविज्ञान, दर्शन, न्याय, समाज शास्त्र, तर्क शास्त्र, कला, विज्ञान, साहित्य और इतिहास का अद्भुत ज्ञान था। कहा तो यहाँ तक जाता है कि विवेकानंद एक घंटे मात्र में 700 पृष्ठ तक पढ़ जाया करते थे । इस बात पर विश्वास इसलिए किया जा सकता है क्योंकि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट एक दिन में तीन किताबें तक पढ़ जाया करते थे । हमारे देश में तो पंड़ित जवाहलाल नेहरू से लेकर बुजुर्ग तक सलाह देते रहे हैं कि बढ़ना है तो पढ़ना है।


फ्रांस हो या सिंगापुर वहाँ आज भी शिक्षा को विकास का सबसे बड़ा कारक माना जाता है। विवेकानंद का भी यही विचार था कि आधुनिक भारत का निर्माण शिक्षा ही कर सकती है, मगर इसका कोई उदाहरण कहीं नहीं मिलता कि विवेकानंद ने सिर्फ सैद्धांतिक बातें कहीं। वे युवा-पीढ़ी के सर्वांगीण के हित में खड़े होकर व्यावहारिक शिक्षा पद्धति के लिए आंदोलित करते थे । स्वामी विवेकानंद शिक्षा के विचारों की यदि प्रखर परिभाषा और उसका अनुसरण किया जाए तो हमारी आज की अधूरी शिक्षा प्रणाली को चुस्त करते हुए उत्तरोत्तर शिक्षित समाज का गठन किया जा सकता है। उन्होंने ही बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के विचार प्रतिपादित किए। उनका मानना था कि कोरे-मोरे सिद्धांतों के नमूनों से सिर्फ विनाश ही होता है। स्वामी विवेकानंद ने कई प्रेरणास्पद विचार व्यक्त किए । उन्हीं ने यह सीख दी थी कि जब भी कोई नया काम किया जाता है, तो पहले उसका मजाक बनाया जाता है, फिर उसका विरोध किया जाता है और अंततः उसे स्वीकार्य कर लिया जाता है। शासद इसीलिए आजकल स्वामी विवेकानंद को युव-जन अपना आदर्श मानने लगे हैं।


कहा जाता है कि मात्र 39 वर्ष की उम्र में विवेकानंद ने खुद देह त्याग दी थी। स्वामी एक ऐसे स्वप्न दृष्टा थे, जो गाँधीजी की तरह गाँवों में ही बच्चों को काम करने और उसका रस लेने की भी नसीहत देते थे । उनके विचार मनुष्य को मनुष्य से अलग देखकर या उनमें बँटवारा करके देखने वाले कतई नहीं थे। वे लिजलिजे, भावुक, अटपटे या फिर वायवीय भी नहीं थे । इसी कारण अध्यात्म और विज्ञान के आधार पर उनके पास सामाजिक समस्याओं के निराकरण के नुस्खे थे। उनके नाम से स्पष्ट होता है कि किसी भी युवा को विवेक सम्पन्न यानी अच्छे-बुरे का वैज्ञानिक आधार पर गहन परीक्षण करके अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेना चाहिए। यह संदेश इस जमाने के युवाओं के खास काम का है, जो अपनी मंजिल शीघ्र से शीघ्र हासिल करना चाहता है। इसीलिए वे अवसाद, चिढ़चिढ़े और गुस्सैल भी होते जा रहे हैं। (लेख में लेखक के अपने विचार हैं)
        



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