मैं कलम हूँ चुप रहूं कैसे?
और चुप्पी का ये दंश सहूँ कैसे?
भविष्य को दर्पण दिखाने का है दायित्व मुझपर
अतीत की परछाइयों से दूर रहूं कैसे?
मै कलम हूँ चुप रहूं कैसे?
मेरी स्याही न बिखरी दर्द पर तुम्हारे
मेरी सख्तियां न टूटी कष्ट पर तुम्हारे
तो क्या औचित्य?
शक्ति के गुणगान का वैभव छूकर न गुजरे मुझे
कीर्ति यशगान के स्वर्णिम शिखर ही मेरे बोल न हो
काई जमी पानी की परत के नीचे
चुप होकर सड़ना मंजूर करूँ कैसे?
मैं कलम हूँ चुप रहूं कैसे?
जानती हूँ अपनी कीमत
अहमियत अपनी उकेरी तदबीरों की
तभी तो बिखरते है केनवास पर
मरी हुई सम्वेदनाओं के गंध भरे भद्दे चित्र
जिन्हें देख कर नाक सिकुड़ती है,भौहे चढ़ती हैं
आज जो लिखूँगी ,कल वही सच माना जायेगा
फिर रौंद कर आत्म को, झूँठ लिखूं कैसे...?
मै कलम हूँ... चुप रहूं कैसे...?
विजय लक्ष्मी जांगिड़ विजया
जयपुर
9694091536