7 मई रवीन्द्रनाथ टैगोर के जन्मदिन पर विशेष लेख
लेखक : वेदव्यास
लेखक साहित्य मनीषी एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं
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सांस्कृतिक पुनर्जागरण के महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर पुनर्जागरण के ऐसे घोषणा पत्र हैं जिसे कभी समय, समाज और मनुष्य के विकास से अलग करके देखना नितांत असंभव है। जिस तरह सूर, कबीर, तुलसी को भारत की आत्मा का कवि मानकर गाया गया है उसी प्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी आज केवल बांग्लाभाषी लोग अपनी जीवन संस्कृति का उदयगान समझकर जन्म से मृत्यु तक घर-घर में गाते सुनते हैं। 7 मई 1861 को अविभाजित बंगाल में रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म एक जागीरदार परिवार में हुआ था। 80 वर्ष की जीवनधारा में रवीन्द्रनाथ टैगोर ज्ञान और मानव विकास के ऐसे प्रेरणा स्रोत हैं कि पूरी मानवता आज उन्हें विश्व कवि और विश्व मानवता की प्रेरणा के रूप में जानती है।
जिस तरह अंग्रेजी में शेक्सपियर दुनिया का सबसे पठितऔर अनुदित रचनाकार है, उसी तरह भारतीय भाषाओं के रचनाकारों में रवीन्द्रनाथ टैगोर दिग-दिगंत के गायक हैं। राजस्थानी में जो स्थान गौरव मीरा बाई को, मराठी में तुकाराम, खड़ी बोली में कबीर और तुलसी को तथा दक्षिण भारत में तिरुवल्लुवर और त्यागराजा को प्राप्त है वहीं महत्व बांग्लाभाषा में आज भी कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर को हासिल है।
आपको याद रहना चाहिए कि भारत में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रवेश बंगाल से ही हुआ था और यही कारण रहा कि भारत में अंग्रेजों के खिलाफ मुक्ति का पहला गीत और संगीत बंगाल में ही रचा गया। यहां मुगल साम्राज्य और अंग्रेज हुकूमत से जनता ने दोहरी दासता का मुक्ति संग्राम छेड़ा था। यह वही समय था जब बंगाल में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, काजी नज़रूल इस्लाम और बंकिमचंद्र चटर्जी जैसे सामाजिक स्वप्नदृष्टा कवि और समाज सुधारक सक्रिय थे। भारत में सांस्कृतिक नवजागरण और पुनर्जागरण ने यहीं से प्रारंभ किया था। यही कारण है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने हमें 'जन-गण-मन अधिनायक जय हे' जैसा राष्ट्र गान दिया तो बंकिमचंद्र चटर्जी ने 'वंदे मातरम' सरीखा राष्ट्रगीत अपने 'आनंदमठ' उपन्यास में प्रस्तुत किया। उत्तर भारत में स्वतंत्रता के लिए सैनिक विद्रोह (1857) का सूत्रपात (मंगल पांडे) हो चुका था, और पूरे भारत में धीरे-धीरे भक्ति आंदोलन एक मुक्ति आंदोलन में बदला जा रहा था।
कृपया आप अंतरराष्ट्रीय कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की उस विचार शक्ति को समझें कि जहां 1947 में भी बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) का राष्ट्रगान (आमार सोनार बांग्लादेश) भी कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की आत्मा से ही प्राप्त हुआ था। रवीन्द्रनाथ टैगोर भले ही किसी जागीरदार के घर में पैदा हुए हों तथा संपन्न हों, लेकिन उनका पूरा मन, वचन और कर्म मनुष्य और प्रकृति को ही समर्पित था। इसी कारण वह विश्व मानवता की खोज के पथ प्रदर्शक समझे जाते हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही भारत की खोज की तरह मनुष्य में मानवता की खोज का काम किया था। यह वह समय था जब दुनिया में दो विश्वयुद्ध नहीं हुए थे और औद्योगिकीकरण का युग भी नहीं आया था और एडम स्मिथ की 'वैल्थ ऑफ द नेशन' तथा 'महात्मा गांधी की हिन्द स्वराज' अथवा कालमार्क्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो' जैसे पुस्तकें भी सामने नहीं थीं। यह ऐसा समय था जब संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म ही नहीं हुआ था और अमेरिका, फ्रांस, रूस तथा चीन जैसे दुनिया के देशों में जन क्रांतियां जन्म ले रही थीं और पुनर्जागरण का ताना-बाना बुना जा रहा था। इस दौर में भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आधार कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ही थी जो अध्यात्म, प्रकृति और मनुष्य के बीच लोक-परलोक की दिशा बनाती थीं। इसी समय में 1913 में भारत में पहला नोबेल पुरस्कार साहित्य ऋषि रवीन्द्रनाथ टैगोर की उनकी कृति 'गीतांजलि' पर मिला था और यह भारत में पहला ऐसा सम्मान था जो बांग्ला भाषा की कविताओं के बल पर आया था। अंग्रेजी के महान कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स ने इसके अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना लिखी थी और पूरा पश्चिम इस काव्य आविष्कार पर भौचक्का था।
यह वह समय था जब दुनिया में 'सात समंदर पार तक' अंग्रेजों के साम्राज्य का सूरज नहीं डूबता था, तब पूरब के भारत देश से रवीन्द्र के कवि का यह प्रादुभार्व आज भी हमें रोमांचित करता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर पर 1941 के बाद पूरी दुनिया में इतना विविध और विशद काम हो चुका है कि स्वतंत्र भारत में महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर ही दो ऐसे नाम है दुनिया के सभी देशों में जाने जाते हैं तथा माने जाते हैं तथा जिनसे पुनर्जागरण की सभी संभावनाएं प्रेरणा लेती हैं। इनकी समकालीन पीढ़ी ने (1850-1950) ही आज दुनिया को मानवता की नई सभ्यता का पाठ पढ़ाया है और पाठशालाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को प्रेरणा का शिखर कहा जाता है। बंगाल के लिए रवीन्द्रनाथ एक कविंद्र है और रवीन्द्र संगीत आज वहां के घर-घर में आत्म गौरव और पहचान की अनिवार्यता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर कवि, नाटककार, चित्रकार और बहुआयामी सृजन दृष्टा थे। इनके अनेक उपन्यास (गोरा, आंख की किरकिरी, योगा आदि) तथा नाटक, निबंध, बाल रचनाएं और ललित कलाओं की कृतियां आज भारत की सांस्कृतिक धरोहर हैं। शांति निकेतन (1902) का शिक्षण केंद्र आज रवीन्द्रनाथ टैगोर की महत्ती विरासत है और आधुनिक भारत के लिए शिक्षा, स्वदेशी समाज, पूर्व और पश्चिम, सहकारिता, ग्राम और नगर, सभ्यता का संकट भारतीय संस्कृति, सत्य स्वराज जैसे विषयों पर लिखे इनके निबंध एक राष्ट्र निर्माता के स्वप्न की तरह हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर को लेकर मैं अल्पज्ञानी आज केवल यही कह सकता हूं कि बिना स्वप्न के राजनीति, बिना प्रकृति के विकास, बिना अध्यात्मक के विज्ञान , बिना त्याग के संस्कृति, बिना सत्य और सहकार के मानवता, बिना ज्ञान के मनुष्य और बिना जनकल्याण के 'अस्तित्व और मरण' सब कुछ अपराध है।
आज 21वीं शताब्दी में महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर इसीलिए मुझे मानवता और जीवन का पर्याय लगते हैं क्योंकि आज भी मनुष्य और मानवता इस धरती पर शोषित, पीड़ित और अपमानित है तथा सत्य और अहिंसा यहां पर लहूलुहान है। मुझे बांग्ला समाज पर गर्व है कि वह अपने रवीन्द्र को जानता है और मुझे राजस्थान पर अफसोस है कि वह अपनी मीरा बाई को भी नहीं जानता और दादूदयाल को भी नहीं पहचानता। आप यदि कुछ पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि रवीन्द्रनाथ टैगोर 21वीं शताब्दी में भी आज पुनर्जागरण के कवि, चिंतक हैं और विज्ञान और भौतिकवाद से आगे की मानवता का निर्माण करते हैं। (लेखक क अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)