लेखक : लोकपाल सेठी
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक
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दक्षिण भारत में पार्टी की स्थिति को मजबूत करने कीनीति के अंतर्गत बीजेपी ने हाल में पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर को केरल में पार्टी का मुखिया बनाया है। अब इसके नेता अपना रुख तमिलनाडु की ओर कर रहे है। हालाँकि कि कहने को तो जी पी नड्डा बीजेपी के अध्यक्ष हैं, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि केन्द्रीय गृहमंत्री ही पार्टी के मुख्य रणनीतिकार है। उनके चलते ही केरल में बदलाव किये गए थे। अब वे तमिलनाडु को साधने में लगे हैं। राज्य में विधानसभा चुनाव अगले साल होने है इसलिए यहाँ की राजीनीति तेज़ी से करवट ले रही है। नए समीकरण बन रहे हैं।
तमिलनाडु में बड़े दो क्षेत्रीय दल-द्रमुक ओर अन्नाद्रमुक गत कई दशकों से अपना दबदबा बनाये हुए है। छोटे दल इनके साथ ही मिलकर चुनाव लड़ते आ रहे है। बीजेपी तथा कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल यहाँ हाशिये पर रहे है। कारण यह है कि क्षेत्रीय दल द्रविड़ अस्मिता और संस्कृति को आगे रख कर चुनाव लड़ते है जबकि राष्ट्रीय स्तर के दल राष्ट्रीय मुद्दे सामने रखते है। अगर पिछला राजनीतिक इतिहास देखा जाये तो यह बात सामने आती है कि राष्ट्रीय स्तर पर अपना वजूद दिखाने के लिए द्रमुक और अन्नाद्रमुक कभी कांग्रेस और कभी बीजेपी के साथ हाथ मिलते रहे हैं।
राज्य की छः बार मुख्यमंत्री रही और अन्नाद्रमुक की मुखिया जयललिता का 2016 में निधन होने के बाद अन्नाद्रमुक के पास कोई बड़ा राजनीतिक चेहरा नहीं है पार्टी में फूट भी आ रही थी। कभी जयललिता की खास रही शशिकला के समर्थकों ने पार्टी पर कब्ज़ा करने की भरसक कोशिश की। जब वे इसमें सफल नहीं हुए तो पार्टी का विभाजन कर दिया। हालाँकि उनके साथ अधिक लोग नहीं गए। पार्टी के इस अलग गुट के नेता दिनाकरण थे। उधर पलानिस्वामी जयललिता के उत्तराधिकारी के रूप में उभरे तथा जयललिता के बाद वे मुख्यमत्री बने। वे पिछड़ा वर्ग से आते है तथा उनका राजनीतिक कद जयललिता जैसा नहीं था। राज्य में 2021 में विधान सभा चुनाव होने थे। धीरे-धीरे पार्टी का यह गुट बीजेपी के निकट आता चला गया। दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा। लेकिन राज्य में उस समय द्रमुक की हवा थी। लेकिन उस समय द्रमुक में भी करुणानिधि जैसा नेता नहीं था। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने बेटे एम के स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। द्रमुक का लम्बे समय से कांग्रेस के साथ गठबंधन चला आ रहा था जिसमें कांग्रेस गठबंधन की जूनियर पार्टनर थी और अभी भी है। विधान सभा चुनावों में इस गठबंधन की जीत हुई. इसे 234 में से 133 सीटें मिली। उधर अन्नाद्रमुक और बीजेपी गठबंधन को कुल 75 सीटें मिली। राज्य में पहली बार बीजेपी का खाता खुला और इसे 4 सीटें मिली।
लेकिन लोकसभा चुनाव आते आते अन्नाद्रमुक और बीजेपी के गठबंधन में दरार आनी शुरू हो गई। बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व ने यहाँ अन्नामलाई को राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाया। वे आईपीएस अधिकारी रहे हैं तथा कर्नाटक कैडर के थे। उन्होंने वीआरएस लेकर राजनीति में आने का निर्णय किया था। वे मूल रूप से तमिलनाडु के है तथा पिछड़ा वर्ग से आते है। वे और अन्नाद्रमुक के प्लानिस्वामी एक ही समुदाय के है। अन्नामलाई शुरू से ही इस सोच के हैं कि बीजेपी को यहाँ स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बनानी चाहिए। उनका कहना था कि अगर छोटे दलों को साथ ले लिया जाये तो पार्टी राज्य में द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बाद तीसरा विकल्प बन सकती है। इसलिए लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने अलग से लड़ा। अन्नाद्रमुक ने भी कुछ छोटे दल अपने जोड़े। लेकिन यह गणित लोकसभा चुनावों में काम नहीं आया। द्रमुक और कांग्रेस ने मिलकर राज्य की 39 में से 31 सीटों पर कब्ज़ा कर लिया। अन्नाद्रमुक और बीजेपी को एक भी सीट नहीं मिली . दोनों ने इस हार से सबक सीखा और अब वे फिर एक साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते है।
पिछले दिनों पलानिस्वमी और अन्नाद्रमुक के कई अन्य नेता दिल्ली में अमित शाह से मिले तथा यह तय हुआ कि पुरानी बातों को भूलकर दोनों को विधानसभा का चुनाव मिलकर लड़ना चाहिए। यह माना जा रहा है कि पार्टी जल्दी ही अन्नामलाई को अपना पद छोड़ने के लिए कह सकती है ताकि दोनों दलों का फिर गठबन्धन बनने में कोई कठिनाई नहीं आये। उन्हें पार्टी के केन्द्रीय स्तर कोई पद दिया जा सकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)