लेखक : लोकपाल सेठी
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक
www.daylife.page
देश के संवैधानिक इतिहास में संभवतः ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी राज्य सरकार ने विधानसभा में पारित किसी विधेयक को बिना राज्यपाल के हस्ताक्षर के ही कानून में बदल दिया और इसकी विधिवत सरकारी अधिसूचना भी जारी कर दी। दक्षिण के तमिलनाडु राज्य में,जहाँ द्रमुक और कांग्रेस की मिली जुली सरकार है, ऐसा करके दिखा दिया। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, तब तक कोई विधेयक कानून नहीं बन सकता जब तक राज्य का राज्यपाल उस अपनी सहमति नहीं देता.इसी प्रकार संसद द्वारा पारित किया गया कोई विधेयक कानून नहीं बन सकता जब तक राष्ट्रपति उस पर अपने हस्ताक्षर नहीं करते कई अन्य राज्यों में भी ऐसे मामले हो चुके है जबकि वहां के राज्यपालों ने लम्बे समय तक विधेयकों पर हस्ताक्षर नहीं किये लेकिन वहां की सरकारों ने अपनी ओर से ऐसा कोई कठोर कदम नहीं उठाया जिससे संवैधानिक संकट पैदाहो जाये।
राज्य में 2021 में द्रमुक और कांग्रेस की मिली जुली सरकार बनी। कुछ समय बाद आर एन रवि को राष्ट्रपति ने यहाँ का राज्यपाल नियुक्त किया। वे एक आई पी एस अधिकारी रहे है तथा सभी प्रकार की सरकारी प्रकिया को जानते और समझते है। राज्य सरकार ने अपने चार साल कार्यकाल में कई कानून बनाये तथा राज्यपाल ने उन सब पर बिना विलम्ब के अपने हस्ताक्षर कर दिए। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, किसी भी राज्य में सरकारी विश्वविदयालय के कुलपति वहां के राज्यपाल होते है . वे ही इनके उपकुलपति करते है। आमतौर राज्य सरकार कुछ नाम राज्यपाल को भेजती है और राज्यपाल उनमें से किसी एक नाम पर अपनी सहमति दे देते है। लेकिन 1967 के बाद देश की राजनीति में बदलाव हुआ.उससे पहले केंद्र तथा राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकारें थीं। राज्यों के राज्यपाल केंद्र की कांग्रेस सरकार की मर्जी के ही बनाये जाते थे। इस अवधि तक किसी भी राज्य सरकार और राज्य के राज्यपालों में किसी प्रकार का टकराव नहीं हुआ।लेकिन इसके बाद पिछले कई दशकों में दिल्ली में सरकार किसी एक दल की होती है जबकि कई राज्यों में सरकारें किसी अन्य दल की। कुछ साल पहले तक राज्य में सरकार और राज्यपालों में टकराव बहुत कम होते ह थे लेकिन पीछे 20 -25 सालों में ऐसे टकराव लगातार बढ़ रहे है।साधारण तौर अगर कोई राज्यपाल विधान सभा द्वारा पारित विधेयक के प्रावधानों से सहमत नहीं होता तो उसे कुछ सुझावों के साथ राज्य सरकार को वापिस भेज देता है।
अगर विधान सभा उस विधेयक को फिर पारित करके फिर राज्यपाल के पास भेजती है तो राज्यपाल को उस पर अपने हस्ताक्षर करना जरूरी होता है। हाँ अगर संशोधित विधेयक पर राज्यपाल सहमत नहीं है तो वे उसे राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेज सकते है। लेकिन पिछले कुछ से समय राजनैतिक कारणों से इस सर्व सम्मत तरीके को अपनाया नहीं जा रहा। तमिलनाडु में वर्तमान टकराव लगभग एक दर्जन विधेयकों को लेकर शुरू हुआ, ये सभी विधेयक विश्वविद्यालयों के बारे में थे। इनमें आम तौर ऐसे कई प्रावधान थे जिससे इन विश्वविद्यालयों के प्रशासन में राज्यपाल की भूमिका बहुत कम हो जाती थी। राज्यपाल आर एन रवि ने लम्बी अवधि तक न तो विधेयकों पर अपनी सहमति दी और न ही इन्हें वापिस सरकार को भेजा। इसको लेकर राज्य ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की जिसमें कहा गया कि राज्यपालों को यह निदेश दिए जाये कि वे निश्चित अवधि तय करें कि विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर के निश्चित अवधि में अपनी सहमति दने के लिए बाध्य हों। कुछ दिन पूर्व सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने यह फैसला दिया कि राज्यों में राज्यपाल तथा केंद्र में राष्ट्रपति तीन महीनों के भीतर उनके पास भेजे गए विधेयकों पर निर्णय करें। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो इन पर स्वतः ही सहमति मान ली जाएगी जायेगी। लेकिन तमिलनाडु सरकार ने इसके आधार पर ही कुल मिलाकर 10 विधेयकों बिना राज्यपाल के हस्ताक्षरों के कानून में परिवर्तित करने की सरकारी अधिसूचना जारी कर दी। तर्क यह दिया गया कि राज्यपाल के पास ये विधेयक 3 महीनें से भी अधिक अवधि से लंबित थे।
इसके साथ ही इस मामले पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस शुरू हो गई। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद उप राष्ट्रपति तथा राज्य सभा के सभापति जगदीप धनक, जो खुद के बड़े वकील रहे है, का कहना था कि कोर्ट ऐसा आदेश कार्यपालिका को नहीं दे सकता। राष्ट्रपति को ऐसा निदेश देने का अधिकार नहीं है। यह न्यायपलिका की सीधी कार्यपालिका के अधिकारों में दखल है। उधर विपक्ष का कहना है एनडीए सरकार न्यायपालिका को कमजोर करने में लगी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है।)