लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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बाढ़ एक ऐसी आपदा है जो मिनटों में हजारों-लाखों हैक्टेयर फसलों को तबाह कर देती है, घर-बार जमींदोज कर देती है, लाखों लोगों को घर-बार छोड़ दर-दर की ठोकरें खाने और विस्थापित की तरह रहने को विवश होना पड़ता है, मवेशियों को बहाकर ले जाती है और हर साल करोडों-अरबों की जान-माल की हानि होती है। दरअसल बाढ़ के लिए अक्सर नदी के असामयिक तेज प्रवाह,भारी बारिश, गाद, खराब जल प्रबंधन और तटबंधों की सार-संभाल में बरती गयी लापरवाही को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। इसके साथ बाढ़ के कारणों में बादलों का फटना, नदियों में अधिक मात्रा में कटाव, नदी भूमि पर अतिक्रमण, बांध-बैराज का कुप्रबंधन, बाढ़ के अधिकाधिक समय तक टिके रहने के पीछे मानवीय गतिविधियों द्वारा नदियों को रास्ता बदलने पर विवश करना, जल निकासी के रास्तों को अवरुद्ध करना प्रमुख हैं। इसके अलावा बारिश के दिनों में नालों में जल भराव और बांधों-बैराजों से निश्चित मात्रा से अधिक पानी का छोडा़ जाना भी एक अलग विषय है।
वह बात दीगर है कि आपदा प्रबंधन प्राधिकरण यह स्वीकार कर चुका है कि देश में नगरों की जल निकासी क्षमता औसत वर्षा से बहुत ही कम है। देखरेख और उसके प्रबंधन में लापरवाही के चलते उस क्षमता में और कमी आई है। ठोस व पाली कचरे के निष्पादन और कचरे को डंप किये जाने के अवैज्ञानिकता भरे चाल-चलन ने तथा नदियों-तालाबों-झीलों के बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण व कालोनियों के निर्माण के चलते भी जल निकासी मार्ग में बाधायें आयी हैं। फिर जमीन का एक इंच हिस्सा भी कच्चा न रह जाये, इस प्रवृत्ति ने भी बारिश के पानी को सोखने की क्षमता पर विराम लगा दिया है। देश के दिल्ली, पटना, श्रीनगर, चेन्नई, मुंबई आदि महानगर इसके जीते-जागते सबूत हैं। लेकिन हम इस ओर कतई विचार करने की जहमत नहीं उठाते कि आखिर हम नदी की धारा को मनुष्य के जीवन के क्रम से जोड़ कर समझने और समझाने वाले समग्र दर्शन से इतनी दूर क्यों चले आये हैं।
यह विचारणीय है कि यदि नदियों की मर्यादा को विखंडित करने और देश में नदियों पर नये तटबंध बांधते समय अगर हमारे योजनाकारों और नीति-नियंताओं ने उसकी जन-छवि में प्रतिबिंबित इलाके की भौगोलिक मर्यादा और पहाड़ से उतरी धाराओं के प्रवाह के विज्ञान सम्मत नियमों में तनिक भी झांक लिया होता तो बाढ़ के भीषण स्वरूप और व्यापक विनाश से बचा जा सकता था। यहां इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि नदियों की धाराएं या दिशा बदलने का इतिहास काफी पुराना है। दिशा बदलने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कटाव और बहाव के साथ वह बालू, कीचड़, कंकड़ और मिट्टी लाती हैं जिससे नदी को दिशा कहें या धारा बदलने को मजबूर होना पड़ता है। अक्सर होता यह है कि नदियां अपनी प्राकृतिक दिशा प्राप्त न कर पाने के कारण कई-कई शाखाओं में बंट जाती हैं जिसके कारण वह अलग- अलग इलाकों में फैल जाती हैं और तबाही का सबब बनती हैं।
जहां तक तटबंधों का सवाल है, गाद के लगातार बढ़ते स्तर के कारण तटबंध इसका दबाव सह पाने में सक्षम नहीं हो पाते और वे टूट जाते हैं। यह सही है कि तटबंधों का निर्माण गाद की मात्रा और बहाव की गति एवं उसके दबाव को देखते हुए ही किया जाता है लेकिन अक्सर तटबंध सिल्ट के दबाव के चलते और फिर बारिश के दिनों में सिल्ट की वजह से तटबंधों के अंदर नदी की ओर वाले हिस्से का बाहर वाले हिस्से से सीमा से ऊपर चले जाने से टूट जाते हैं। असलियत यह है कि नदियों पर तटबंध समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। यह अस्थायी व्यवस्था है। हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग का सीधा सा सरल सिद्धांत है कि जब कभी भी नदी में पानी सीमा से अधिक होगा, वह बाढ़ की परिणिति बनेगा। बाढ़ को केवल एक ही परिस्थिति में रोका जा सकता है जब तटबंध से पानी के डिस्चार्ज पर समय रहते अंकुश लगाया जा सके। वैसे जानकारों का मानना है कि तटबंध इस समस्या का समाधान नहीं है। उनका मानना है कि यदि नदियों के दोनों किनारों पर तटबंध नहीं बनाये जाते तो बाढ़ की भयावहता का मंजर कभी देखने को नहीं मिलता। तटबंधों के टूटने का इतिहास भी हमारे यहां नया नहीं है। फिर भी यह समझ से परे है कि हमारे योजनाकारों ने इससे सबक क्यों नहीं लिया। फिर एक बात और गौर करने लायक है, वह यह कि नदियों से नहरों का निर्माण भी बाढ़ मुक्ति का उपाय नहीं है। यही नहीं 'रिवर फ्रंट डेवलपमेंट' के नाम पर कुछ दीवारें और आलीशान इमारतें खडी़ कर देना बाढ़ विनाश को आमंत्रण देने के सिवाय कुछ नहीं है। बांध-बैराजों की उपस्थिति तथा नदी को उसके प्राकृतिक मार्ग से अलग कर कृत्रिम मार्ग पर ले जाने के कारण नदी-जोड़ परियोजना भी बाढ़ मुक्ति का उपाय नहीं है।
सबसे पहले बाढ़ का नुकसान कम से कम हो, यह प्रयास करने का प्रयास करना चाहिए। उसमें परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों तथा हिमालय जैसे संवेदनशील इलाकों में समय पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र स्थापित करने, उन इलाकों में बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के एहतियाती कदम उठाने, साफ पीने के पानी की व्यवस्था करना, जहां पाईप लाइनों द्वारा पानी पहुँचाया जा सकता है, वहां पाइप लाइनों को स्थापित करना, वहां के भवनों के निर्माण में आपदा निवारक मानकों की पालना कराना, अनुकूल चिकित्सा व खानपान की सुविधा मुहैया कराना, मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम तथा ऊंचे स्थान का चयन कर वहां हर साल के लिए स्थायी रिहायशी कैम्पों की व्यवस्था, बादल फटने के संभावित इलाकों में जल संरचनाओं को खुला रखने और परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसल उपजाने का ज्ञान देने व उसमें यथासंभव सहयोग देना चाहिए। सबसे जरूरी है बारिश के पानी का नदी में आने से पहले अधिकाधिक मात्रा में संचय कर लेना, जल निकासी मार्गों को अवरोध मुक्त बनाना, मिट्टी के कटान को नियंत्रित करना, ऊबड़-खाबड़ खाली, ढालदार भूमि पर छोटी-छोटी वनस्पतियां उगाना और खेतों की मेड़बंदी को ऊंचा करना आदि ये ऐसे काम हैं जो बाढ़ की तीव्रता कम करने और सूखे से निजात पाने में भी अहम भूमिका निबाहते हैं।
हमें यह सदैव याद रखना होगा कि जल निकासी क्षेत्रों में अवरोध बाढ़ के टिकाऊ होने का अहम कारण है। ये अवरोध ही संपत्ति विनाश और बीमारियों के सबब बनते हैं। फिर अचानक बांध-बैराजों से छोड़ा पानी नदी किनारों के कटान का कारण बनता है। बिना सूचना इस तरह छोडे़ पानी से लोग अचानक बाढ़ के शिकार हो घर-बार छोड़ने को मजबूर होते हैं। गाद को ही लें, एक समय कोलकाता बंदरगाह को गाद के भराव से मुक्ति हेतु फरक्का बांध और बाढ़ मुक्ति के नाम पर कोसी तटबंध का निर्माण किया गया था। लेकिन दुख की बात ये है कि आज ये दोनों ही बाढ़ की तीव्रता बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं। कोसी तटबंध में फंसे गांव के लोग तो आज भी दुआ करते हैं कि तटबंध टूटे तो उनको राहत मिले। जो गाद समुद्र के करीब डेल्टा बनाता, वह आज बांध-बैराजों में फंसे होने के कारण डेल्टा के क्षेत्र में कमी और उन इलाकों के डूबने का कारण बन रही है।
अंत में इतना जरूर कहना चाहूंगा और बताना भी जरूरी समझता हूं कि बाढ़ हमेशा बुरी नहीं होती। मिट्टी, पानी और खेती के लिहाज से बाढ़ वरदान होती है। लेकिन सीमा से अधिक उसकी तीव्रता और लम्बे समय तक उसका टिकाऊ रहना बुरा होता है। बाढ़ नदी और उसके बाढ़ क्षेत्र के जल और मिट्टी का शोधन करती है और भूजल भंडारों को उपयोगी जल से संपृक्त करती है। इस तरह बाढ़ जल चक्र के संतुलन की जरूरी प्राकृतिक प्रक्रिया है। यही अपने साथ उपजाऊ मिट्टी, मछलियाँ और आने वाली फसल में अधिक उपज का कारण बनती है। इसकी वजह से ही गंगा का उपजाऊ मैदान और बंगाल का माछ-भात है। यह भी कि बिहार का कितना इलाका ऐसा है जहां बिना सिंचाई के खेती होती है। वह बात दीगर है कि बाढ़ मानवीय गतिविधियों के चलते विनाश का सबब बनती है। इसलिए हमें बाढ़ नहीं, बाढ़ की तीव्रता, उसके अधिकाधिक दिनों तक टिकाऊ रहने के कारणों पर विचार करना चाहिए ताकि समय रहते उसका निराकरण किया जा सके और उससे होने वाले विनाश से बचा जा सके। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)