जयपुर। रविन्द्र मंच सोसायटी द्वारा मिनी ऑडिटोरियम रविन्द्र मंच पर शुक्रवार 27 सितंबर को नाटक मंटो के ज़हन से का मंचन किया जायेगा।
संस्था की मेंटोर रुचि भार्गव नरूला ने जानकारी देते हुए बताया कि कलंदर संस्था पिछले 15 वर्षो से नाट्य कला जगत में सक्रिय रूप से काम कर रही है। पिछले एक साल से रेपर्टरी का भी संचालन कर रही है। गुरु शिष्य परंपरा के तहत नाट्य कला का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
इसी श्रखंला के तहत कलंदर में कार्यशाला 02 के अंतर्गत प्रतिभागियों ने सआदत हसन मंटो की कहानियों पर आधारित प्रस्तुति मंटो के ज़हन से तैयार की है। कार्यशाला में प्रतिभागियों ने अपनी कहानियां खुद चुनी हैं और अपनी प्रस्तुति आप के सामने लेकर आए हैं। प्रशिक्षण के दौरान कथ्य को समझना और और उसके अर्थों को परिभाषित करना और प्रक्कथन को समझने की प्रक्रिया में ही इन कहानियों का निर्माण किया और टैगोर नाट्य योजना के तहत रविन्द्र मंच सोसायटी द्वारा नाट्य प्रस्तुतियां दी जाएगी।
चि भार्गव नरूला ने कहा कि ये सफ़र, जो कथ्य को समझने से शुरू हुआ, धीरे-धीरे प्रस्तुति का रूप लेता गया । देखने योग्य बात ये भी है कि किस्से सुनाने की नाटकीय शैली के दौरान ही ये कलाकार कुछ ब्लॉक्स की सहायता से मंच सज्जा में अपनी कहानी के अनुसार परिवर्तन करते हुए नई कहानी के लिए मंच तैयार करते हैं। संगीत और ध्वनि प्रभावों के चयन से लेकर प्रस्तुती तक की प्रक्रिया में कलंदर के कलाकारों का ये प्रयास अब एक अनोखी प्रस्तुति के रूप में आपके समक्ष होगा।
इस अवसर पर तीन कहानियां और मंटो के कुछ किस्से आपके समक्ष प्रस्तुत किये जाएंगे।
पहली कहानी : पेशावर से लाहौर तक, जावेद पेशावर से ही ट्रेन के ज़नाना डिब्बे में एक खूबसूरत औरत को देखता चला आ रहा था और उसके हुस्न पर फ़िदा हो रहा था। रावलपिंडी स्टेशन के बाद उसने जान-पहचान बढ़ाई और फिर लाहौर पहुँचने तक उसने सैकड़ों तरह के मंसूबे बना डाले। लाहौर पहुँच कर जब उसे मालूम हुआ कि वह एक तवायफ़ है तो वह उलटे पाँव रावलपिंडी लौट गया।
दूसरी कहानी : टोबा टेक सिंह, सआदत हसन मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' 1955 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी भारत और पाकिस्तान के विभाजन के समय लाहौर के एक पागलखाने के पागलों पर आधारित है। विभाजन के दर्द को बयां करती यह एक कालजयी कहानी है। मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' में प्रवासन की पीड़ा पर फोकस किया गया है। यह काहनी विभाजन के समय लाहौर के एक पागलख़ाने के पागलों पर आधारित है और समीक्षकों ने इस कथा को पिछले75 सालों से सराहते हु भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों पर एक "शक्तिशाली तंज़" बताया है।
तीसरी कहानी : खोल दो, विभाजन के दौर, की एक ऐसी ही कहानी है जिसे काल्पनिक रूप से मानवीय दुर्गुणों की गहराई के समानांतर बताया गया है जो 2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के दौरान भी देखी गई थी। यह लघुकथा सिराजुद्दीन के दृष्टिकोण से बताई गई है, जिसकी बेटी सकीना उस समय लापता हो जाती है। वे जिस ट्रेन में यात्रा कर रहे थे, उस पर दंगाइयों ने हमला कर दिया था।सिराजुद्दीन पाकिस्तान में कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से अपनी बेटी की तलाश के लिए एक खोज दल बनाने के लिए कहता है। तब यह पता चलता है कि उसे खोजने के बाद, पुरुष खुद उसका बलात्कार करते हैं, और उसे शरणार्थी शिविर के पास मरने के लिए छोड़ देते हैं, जिसमें सिराजुद्दीन रह रहा है। अंतिम दृश्य, जिसमें सकीना हस्पताल में बेहोश पड़ी है, अपनी सलवार खोल रही है, और फिर से बलात्कार होने की आशंका हो रही है,यह विशेष रूप से उन पीड़ितों के आघात को दर्शाता है जिनके अपराधी अक्सर उनके अपने समुदायों के ही पुरुष थे, जितना कि दूसरों के।
नाट्य प्रस्तुति नियंत्रक कैलाश चोपड़ा, वंशिका शर्मा, मंच प्रबंधक कनिष्क शेखर शर्मा, संगीत संयोजन चारु भाटिया, प्रकाश परिकल्पना राजीव मिश्रा, कंटेंट क्रिएशन और मीडिया प्रमोशन वंशिका शर्मा, कनिष्क शेखर शर्मा, मंच कलाकार राहुल नांबियार, कनिष्क शेखर शर्मा, कपिल मंघनानी आदि करेंगे।