जलवायु परिवर्तन : आसान नहीं है चुनौतियों से निपटना

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष:

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरणविद एवं राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति के अध्यक्ष हैं।

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जलवायु परिवर्तन अब समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। इसके लिए प्रकृति प्रदत्त मानव संसाधनों का बेतहाशा उपयोग और जंगलों का निर्ममता से किया गया अत्याधिक कटान तो जिम्मेदार है ही, इसमें भौतिक सुख-संसाधनों के सुख की मानवीय चाहत और विभिन्न क्षेत्रों के प्रदूषण के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता। बढ़ता वैश्विक तापमान और उसके चलते मौसम में आये अप्रत्याशित बदलाव का दुष्प्रभाव जीवन के हर पक्ष पर पड़ रहा है। इससे हमारा पर्यावरण, जीवन, रहन-सहन, भोजन, पानी, और स्वास्थ्य पर स्पष्ट रूप से प्रभाव देखा जा सकता है। तात्पर्य यह कि जीवन का कोई भी पक्ष इसके दुष्प्रभाव से अछूता नहीं है। 

असलियत में जलवायु परिवर्तन से बदलता मौसम भोजन, स्वास्थ्य और प्रकृति को जो नुकसान पहुंचा रहा है, उसकी भरपायी फिलहाल तो आसान नहीं दिखाई देती। हां इसके चलते प्राकृतिक असंतुलन के कारण जन्मी आपदायें भयावह रूप जरूर अख्तियार करती जा रही हैं जो तबाही का सबब बन रही हैं। धरती के लिए यह खतरनाक संकेत और चेतावनी भी है कि अब भी समय है, संभल जाओ, यदि अब भी नहीं संभले, तो यह संकट लगातार गहराता चला जायेगा और तब इसका मुकाबला कर पाना बहुत मुश्किल होगा।

इसमें दो राय नहीं कि जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही पूरी दुनिया इसकी भारी आर्थिक कीमत चुका रही है। सबसे बड़ा संकट तो जमीन के दिनों-दिन बंजर होने का है। यदि सदी के अंत तक तापमान में दो डिग्री की भी बढ़ोतरी हुई तो 115.2 करोड़ लोगों के लिए जल, जमीन और भोजन का संकट पैदा हो जायेगा। उस स्थिति में जबकि आज दुनिया में 28 करोड़ से ज्यादा लोग भोजन के संकट का सामना कर रहे हैं। जर्मनी के पाट्सडैम इंस्टीट्यूट फार क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च के वैज्ञानिकों का दावा है कि जलवायु परिवर्तन और अत्याधिक चरम मौसम के कारण पूरी दुनिया में एक दो दशक में भोजन की सालाना लागत 1.5 से 1.8 फीसदी तक बढ़ जाएगी यानी भोजन की थाली मंहगी हो जायेगी। 

इस बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस का कहना एकदम सही है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य अब भी पहुंच से बाहर हैं। यही कारण है कि जलवायु आपदा टालने में दुनिया पिछड़ रही है। समय की मांग है कि समूचा विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये कि वह समझ सकें कि इस दिशा में हम पिछड़ रहे हैं और हमें तेजी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। यदि वैश्विक प्रयास तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित करने में कामयाब रहे तो भी 96.1 करोड़ लोगों के लिए यह खतरा बरकरार रहेगा।

असलियत में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण मौसम के रौद्र रूप ने पूरी दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है। तापमान में भीषण बढो़तरी से आजकल सर्वत्र त्राहि -त्राहि मची है। इसमें नौतपा का योगदान अहम है जिसकी मार से पहाड़ से लेकर मैदान तक सब जल रहे हैं। भीषण गर्मी के चलते सारा जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया है, वहीं हजारों लाखों गर्मी जनित बीमारियों के चलते मौत के मुंह में जाने को विवश हैं। फिर हीटवेव की तीव्रता और घातकता के कारण हर साल दुनिया में 1.53 लाख लोग अनचाहे मौत के मुंह में चले जाते हैं। 

दुनिया में जैसे-जैसे तापमान में रिकार्ड बढ़ोतरी होती है, अर्जन हीट स्ट्रेस यानी शहरी इलाकों में गर्मी की वजह से तनाव में वृद्धि हो रही है। जबकि विडंबना है कि तापमान में बढ़ोतरी नित नये कीर्तिमान बना रही है और तापमान को नियंत्रित करने के सारे के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। जैसलमेर में पारा 55 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंचना गर्मी की भयावहता का परिचायक है। देश-दुनिया के अध्ययन संकेत दे रहे हैं कि फिलहाल तापमान में कमी की उम्मीद बेमानी है। यह तब तक जारी रहेगा जब तक कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी नहीं की जाती। मौजूदा हालात और जलवायु विशेषज्ञों के सर्वे  इसके जीते जागते सबूत हैं। 

जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा असर जमीन पर पड़ा है। इसकी बड़ी वजह मरुस्थलीकरण है जिसका असर आने वाले दिनों में विकासशील देशों के 1.30 से 3.2.अरब लोगों पर पड़ेगा। आज दुनिया में करीब 40 फीसदी जमीन बंजर हो चुकी है। इसमें  6 फ़ीसदी घोषित रेगिस्तान को छोड़ दिया जाये तो यह साफ है कि शेष 34 फीसदी जमीन पर करीब 4 अरब लोग निर्भर हैं। इस पर सूखा, यकायक ज्यादा बारिश, बाढ़, खारापन, रेतीली हवाएं आदि के चलते बंजर होने का खतरा मंडरा रहा है। आज दुनिया के 52 से 75 फीसदी देशों के करीब 50 करोड़ लोग भूमि क्षरण की मार से प्रभावित हैं। सदी के आखिर तक यह आंकड़ा दो गुणा हो जायेगा। फिर दुनिया की 50 फीसदी प्राकृतिक चारागाह की जमीन नष्ट होने से जलवायु, खाद्य आपूर्ति और अरबों लोगों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है। यह भूमि वैश्विक खाद्य उत्पादन का छठा हिस्सा है जिस पर दुनिया के दो अरब लोग निर्भर  हैं। 

जलवायु परिवर्तन से कई तरह की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं खड़ी हो रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन ने एक तो लोगों के वायरस की चपेट में आने की आशंकाएं बढा़ दी हैं,  वहीं यह मानसिक समस्या का भी कारण बन रहा है। लैंसेट न्यूरालाजी जर्नल में प्रकाशित शोध में बताया गया है कि इसका माइग्रेन, अल्जाइमर आदि से पीड़ित लोगों पर ज्यादा नकारात्मक असर पड़ने की आशंका है। इसने चिंता, अवसाद और सिजोफ्रेनिया सहित कई बीमारियों को भी गहरे तक प्रभावित किया है। शोध सबूत हैं कि मौसम के बदलते पैटर्न से दिमाग की बीमारियों के बढ़ने की प्रबल आशंका है। इसलिए न्यूरोलॉजिकल समस्या से पीड़ित लोगों पर जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभाव पर ध्यान देने की बेहद जरूरत है। क्योंकि जलवायु के प्रभाव से स्ट्रोक और मस्तिष्क में संक्रमण के स्पष्ट प्रमाण पाये गये हैं जिससे तनाव, अवसाद और आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी की संभावना है। 

दुनिया के 70 फीसदी श्रमिकों यानी 240 करोड़ की सेहत पर भी खतरा मंडरा रहा है। इसलिए अत्याधिक गर्मी के दौरान काम करने वाले मजदूरों के लिए सुरक्षा और स्वास्थ्य सुनिश्चित कराना बेहद जरूरी है। जलवायु परिवर्तन के असर से जीव जंतु और पेड़ पौधे भी अछूते नहीं हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई और तेजी से हो रहे औद्योगीकरण के चलते ईकोसिस्टम के जबरदस्त प्रभावित होने से 30 फीसदी प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। प्रतिकूल जलवायु के कारण जीव जंतुओं को मजबूरन अपना प्राकृतिक वास छोड़ना पड़ रहा है। साथ ही उनकी प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन जीवन के अधिकार की संवैधानिक गारंटी को प्रभावित करता है। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने लुप्त प्रायः पक्षी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की सुरक्षा के लिए वन्यजीव कार्यकर्ता एम के रंजीत सिंह व अन्य की याचिका पर निर्णय देते हुए कहा कि स्वच्छ पर्यावरण के बिना जीवन का अधिकार पूरी तरह से साकार नहीं हो सकता। 

अंटार्कटिका में जलवायु परिवर्तन से वैश्विक तापमान में हर डिग्री के दसवें हिस्से की वृद्धि के साथ जिस तेजी से बर्फ पिघल रही है, उससे सालाना करीब पांच हजार से बारह हजार उल्कापिंड बर्फ की गहराइयों में दफन हो रहे हैं। यह विज्ञान की बहुत बड़ी क्षति है। इसकी वजह से हम न केवल उल्कापिण्डों को खो रहे हैं, बल्कि इनमें दफन रहस्य भी हमारी पहुंच से दूर होते जा रहे हैं। 

जहां तक बच्चों का सवाल है, यूनीसेफ ने चेतावनी दी है कि यदि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ठोस कोशिश नहीं की गयी तो दुनिया में लगभग एक अरब बच्चे जलवायु संकट के प्रभावों के अत्यंत उच्च जोखिम का सामना करने को विवश होंगे। दरअसल बढ़ता तापमान, पानी की कमी और खतरनाक श्वसन स्थितियों का सबसे घातक प्रभाव बच्चों पर अधिक पड़ रहा है। जलवायु की कठोरता बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, भविष्य की आजीविका, रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ साथ उनके सर्वांगीण विकास को भी प्रभावित करती है। भारत दुनिया के उन 23 देशों में शामिल हैं, जहां अत्याधिक उच्च तापमान के कारण बच्चों को जोखिम उठाना पड़ता है और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग, फसलों की घटती पौष्टिकता, खाद्य असुरक्षा, वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण का असर बच्चों पर  पड़ रहा है जिसके चलते वे अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहे हैं।

असलियत यह है कि जलवायु संकट की दुनिया बड़ी आर्थिक कीमत चुका रही है। जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान पहले के अनुमान से छह गुणा अधिक है। इस सदी के अंत तक यह 38 ट्रिलियन डालर हो जायेगा। हार्वर्ड और नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोध से खुलासा हुआ है कि जलवायु संकट के कारण औसत आय अगले 26 वर्ष में लगभग पांचवें हिस्से तक गिर जायेगी। बढ़ते तापमान, भारी वर्षा और तीव्र चरम मौसम के कारण मध्य शताब्दी तक हर साल 38 ट्रिलियन डालर का नुक़सान होने का अनुमान है। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित न करना इसके बारे में कुछ करने की तुलना में बहुत अधिक मंहगा है। यह जान लेना जरूरी है कि 1.8 डिग्री सेल्सियस दुनिया पहले ही गर्म हो चुकी है। 1056 डालर प्रति टन नुक़सान होता है कार्बन उत्सर्जन से और 12  फीसदी की जीडीपी में गिरावट तापमान वृद्धि की वजह से होती है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार बीते पचास सालों में बाढ़, सूखा, चक्रवात और तूफ़ान के रूप में जलवायु परिवर्तन के चलते 11,778 से अधिक आपदाएं आयीं हैं। इनमें तकरीब बीस लाख लोगों की मौत हुईं और 4.30 लाख करोड़ डालर से अधिक का नुक़सान हुआ है। 

दरअसल सुपरबग एक ऐसा वैकटीरिया है जिसपर ऐंटीबायोटिक दवाओं का कोई असर नहीं होता। जलवायु परिवर्तन से इसका खतरा भी दिनोंदिन बढ़ रहा है। कई बार तो एक से अधिक दवाओं को मिलाकर देने पर भी इससे निपटा जा सकता है। इसकी कोई गारंटी नहीं होती । चिकित्सा के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी चुनौती है। 12.5  लाख लोग सालाना इसके कारण दुनिया में मर जाते हैं। आशंका जताई गयी है कि यदि अब भी नहीं चेते तो इससे 2050  तक एक करोड़ लोगों की मौतें होंगी और तकरीब 100 लाख करोड़ डालर का 2050 तक वैश्विक  अर्थ व्यवस्था पर दबाव पड़ने की संभावना है। यही नहीं जलवायु परिवर्तन और मौसम की प्रतिकूल घटनाओं के चलते दुनिया के पांच अरब लोगों पर जल संकट का खतरा मंडरा रहा है। अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी ने जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवात की घटनाएं बढ़ने की आशंका जताई है कि अगले कुछ दशकों में तटीय इलाकों में भीषण चक्रवात एवं तूफानों के बीच समय का अंतराल कम हो जायेगा यानी इस सदी के आखिर तक हर 15  दिन में कोई भीषण चक्रवात आ सकता है।

जहां तक जलवायु लक्ष्यों का सवाल है, जलवायु संकट से निपटने के लिए दुनिया में जो अभी प्रयास हो रहे हैं वे स्वैच्छिक हैं और नेट जीरो की घोषणाएं भी बाध्यकारी नहीं हैं। इस दिशा में जबतक कानूनी रूप से बाध्यकारी नीतियां नहीं होंगी, तब तक जलवायु लक्ष्यों को पाना मुश्किल है। क्योंकि इसमें चीन और अमेरिका जैसे प्रमुख उत्सर्जक सबसे बड़ी बाधा हैं जो सामूहिक रूप से वर्तमान एमिशन के 35 फीसदी से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं। सबसे बड़ी समस्या लोगों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचाने की है। यूरोपीय मानवाधिकार अदालत का भी यही मानना है कि सदस्य देशों का यह दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से हर संभव बचाने का प्रयास करें। यहां सबसे अहम सवाल यह है कि जलवायु की रक्षा के लिए इतना पैसा कहां से जुटाया जायेगा। काप 28 सम्मेलन में इस बाबत हानि एवं क्षति कोष में शुरूआती रूप से 47.50  करोड़ डॉलर फंडिंग का अनुमान था। 

इस पर मेजबान यूएई ने 10  करोड़ डॉलर, यूरो यूरोपीय संघ ने 27.50 करोड़ डालर,अमेरिका ने 1.75. करोड़ डालर और जापान ने एक करोड़ डालर देने का वायदा किया था। जबकि इस बाबत विकासशील देशों को हर साल करीब 600  अरब डालर की ज़रूरत होगी जो विकसित राष्ट्रों द्वारा किए गये वादे से काफी कम है। ऐसी स्थिति में अमीर देशों पर अतिरिक्त टैक्स ही जलवायु संकट से उबार सकता है। जैसी कि काप 28 सम्मेलन में चर्चा के बाद सहमति बनी थी। उसके अनुसार 2024 में आर्थिक रूप से संपन्न देशों में कार्बन उत्सर्जन पर 5  डालर प्रति टन की दर से कर लगाया जाये तो 2030  तक कुल 900  अरब डालर फंड इकट्ठा हो जायेगा। इसमें से 720 अरब  डालर लास एण्ड डैमेज फंड के लिए और बाकी 180  अरब डालर सुरक्षित रखें जा सकेंगे। तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है लेकिन मौजूदा हालात में इसकी संभावना न के बराबर है। ऐसी स्थिति में जलवायु लक्ष्य की प्राप्ति सपना ही रहेगा। मौजूदा हालात तो यही गवाही  देते हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)