दुःख से मुक्त होना है तो सुख की इच्छा कम करनी होगी

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान

मानसिक स्वास्थ्य

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संसार में सब प्राणी सुख की इक्ष्छा करते है, दुःख की इक्ष्छा कोई नहीं करता। मानव जितना सुख के पीछे भागता है दुःख उसके पीछे-पीछे चलता रहता है। मानव को सुख मिले या न मिले किन्तु दुःख अवश्य मिल जाता है। यदि दुःख से मुक्त होना है तो सुख की इच्छा कम करनी होगी। मन को नियंत्रण में रखना होगा। तभी आदमी मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है। सुख की चाह में सुख की प्राप्ति न होने पर आदमी में तनाव आ जाता है। जिससे वह मानसिक रूप से असंतुष्ट रहने लगता है और वह तनावग्रस्त हो जाता है। आज का आदमी तनाव का शिकार है उसे शांति का अनुभव नहीं होता है। वह निरंतर बेचैन रहता है। तनाव को दूर करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि यह क्यों पैदा होता है। 

अध्यात्म की दृष्टि से तनाव को तीन भागों में बांटा गया है- शारीरिक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव। प्रत्येक व्यक्ति तीनों तनावों से घिरा है। जब व्यक्ति अत्यधिक शारीरिक श्रम कर्ता है तो थक जाता है तब उसके शरीर में तनाव निर्मित हो जाता है। मांसपेशियों में खिंचाव व कड़ापन आ जाता है जो बाद में विश्राम करने पर दूर हो जाता है। दो घंटे सोने से जितना विश्राम मांसपेशियों को नहीं मिलता उतना आधे घंटे तक विधिवत कायोत्सर्ग करने से मिल जाता है। हम मन का श्रम तो करते है किन्तु उसको विश्राम देना नहीं जानते है। हम चिन्तन करना जानते है किन्तु अचिन्तन की बात नहीं जानते, चिन्तन से मुक्त होना नहीं जानते। मानसिक तनाव का मुख्य कारण है- अधिक सोचना। अधिक सोचना भी एक बीमारी है। कुछ लोग इस बीमारी से इतने ग्रस्त है कि प्रयोजन हो या न हो, वे निरंतर कुछ न कुछ सोचते रहते है मन को विश्राम नहीं देते। मन को विश्राम देना भी संभव है, जब हम वर्तमान में रहना सिख जाये। मनुष्य स्मृतियों की उदेड़बुन में या कल्पनाओं के ताने बाने में व्यस्त रहता है। वर्तमान में जिनका अर्थ है-मन को विश्राम देना, बाहर से मुक्त होना, मानसिक तनाव से छुटकारा पाना। यह एक बड़ी समस्या है आर्त और रौद्र ध्यान इसके मूल कारण है। आर्त ध्यान का अर्थ है प्रिय की प्राप्ति एवं अप्रिय से मुक्ति के लिए निरन्तर चिन्तन करना आज के युग में शारीरिक तनाव एक समस्या है। मानसिक तनाव उससे उग्र समस्या है और भावनात्मक तनाव सबसे विकट समस्यां है। 

मानसिक तनाव से भी भावनात्मक तनाव के परिणाम भयंकर होते है। इस समस्या से निपटने के लिए प्रेक्षाध्यान मन और भावना पर नियंत्रण रखा जाता है। जिससे उत्पन्न होने वाला तनाव घट जाता है। तनाव के कम होने से शरीर, मन और भावना पर नियंत्रण होने लगता है। शरीर का शिथिलीकरण या उसकी स्थिरता ही विसर्जन है। विसर्जन का अर्थ है- शरीर और चैतन्य के पृथकत्व का स्पष्ट अनुभव। यह लगने लगता है कि शरीर भिन्न है और चैतन्य भिन्न है। पिंजड़ा भिन्न है और पंछी पिंजड़े से भिन्न है, मुक्त है। जब कायोत्सर्ग की यह स्थिति प्राप्त होती है तब जानने की स्थिति प्राप्त होती है। कायोत्सर्ग आत्मा तक पहुँचने का द्वार है, आत्मा की झलक मिलती है तो कायोत्सर्ग अपने आप सध जाता है। अध्यात्म का अर्थ है अपने अस्तित्व की उपलब्धि ज्ञाता द्रष्टाभाव की उपलब्धि। मानसिक स्वास्थ्य के लिए अंतर्यात्रा आवश्यक है। प्राणधारा के दो मार्ग है, उसका एक बाह्य मार्ग है और एक भीतरी। 

बाह्य मार्ग से प्राण-शक्ति जाती है तो प्रत्येक कोशिका को सक्रिय करती है, हमारे शरीर-तंत्रों को सक्रिय बनाती है। ये हमारे दस प्राण केन्दों को सक्रिय करती है जो जीवन यात्रा को सही ढं़ग से चलाते है। जब हम प्राण-शक्ति के प्रवाहित होने वाले मार्ग को बदल देते है, तब वहां विशिष्ट शक्तियां जाग्रत हो जाती है। सुषुम्ना या मेरूरज्जु के मार्ग से प्राण-शक्ति को ज्ञान केन्द्र में ले जाने का प्रयोग है- अन्तर्यात्रा। यह हमारे भीतर विशिष्ट शक्तियों को जाग्रत करता है। मानसिक शक्तियों का विकास जीवन की सफलता का एक प्रमुख घटक है। इस शक्ति के सभी केन्द्र मस्तिष्क में स्थित है। हमारी स्मरण शक्ति, चिंतन शक्ति, तर्क शक्ति, निर्णय शक्ति, कल्पना शक्ति, समझ शक्ति, अभिव्यक्ति शक्ति आदि अनेक शक्तियों का केन्द्र मस्तिष्क है। सामान्यतः यह ऊर्जा, ईंधन या शक्ति हमें आहार और श्वास से मिलती है। यह हमारी सामान्य शक्ति को ही जाग्रत करते है। 

शक्ति केन्द्र से ज्ञान केन्द्र की और शक्ति की यात्रा इन उच्च मानसिक शक्तियों को जाग्रत करती है। मेरू-रज्जु में चित्त की यात्रा दोनों तंत्रों में संतुलन स्थापित करती है। व्यक्ति इससे संतुलित व स्वस्थ व्यवहार करता है। दीर्घ अभ्यास से व्यक्ति के जाग्रत मन या चित्त का नियंत्रण केन्द्रीय नाड़ी-तंत्र पर होता है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए भावक्रिया आवश्यक है। भावक्रिया का अर्थ है जिस कार्य को कर रहे है उसी में मन लगा रहे। दूसरा चिंतन मन में न आवे। मन में सदैव विधेयात्मक चिंतन आना चाहिए, निषेधात्मक नहीं। निषेधात्मक चिंतन शरीर की ऊर्जा को नष्ट करता है जो कि मानसिक तनाव का कारण बनता है। जितने भी बुरे कार्य या हिंसात्मक कार्य किये जाते है उन सबका कारण निषेधात्मक चिंतन है। निषेधात्मक चिंतन से मन में कुंठा पैदा होती है, मन अशांत रहता है और धीरे-धीरे यह एक मानसिक बीमारी का रूप धारण कर लेता है। मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिये मन को नियंत्रित करना चाहिए जिससे बुरे विचार मन में न आवे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)