धरती कैसे बचेगी यही सबसे बडी़ चिंता : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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आज धरती विनाश के कगार पर है। विडम्बना यह कि हम सब इसके बावजूद सब कुछ जानते-समझते हुए भी मौन हैं। दुनिया के अध्ययन-शोध इस तथ्य के जीते-जागते सबूत हैं कि यदि धरती को बचाना है तो सभी देशों को पहले से ज्यादा गंभीरता और तेजी से कदम उठाने होंगे। कारण जलवायु परिवर्तन के चलते विनाश की घड़ी की टिक-टिक हमें यह बताने के लिए काफी है कि अब बहुत हो गया,अब हमें कुछ करना ही होगा अन्यथा बहुत देर हो जायेगी और उस दशा में हाथ मलते रहने के सिवा हमारे पास करने को कुछ नहीं । संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट इसी खतरे की ओर इशारा कर रही है। यही वह अहम वजह है कि यू एन महासचिव एंटोनियो गुटारेस को यह कहना पड़ रहा है कि अब हर मोर्चे पर,हर ओर तेजी से कदम उठाने की जरूरत है क्योंकि आज धरती एक बडे़ संकट के मुहाने पर खडी़ है। यहां सबसे बडा़ सवाल यह है कि आखिर कैसे बचेगी हमारी धरती। क्योंकि धरती को बचाने के सात उपाय तो नाकाम हो गये हैं। इसके चलते समूची दुनिया के लोगों की सेहत और असंख्य प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। 

पृथ्वी आयोग का शोध पत्र इसका जीता-जागता सबूत है जो नेचर जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इन सात उपायों में पहला है पृथ्वी का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोकना, दूसरा कार्यात्मक अखंडता, तीसरा सतह के जलस्तर का उपयोग, चौथा भूजल स्तर घटने से रोकना,  पांचवां नाइट्रोजन का सीमित उपयोग, छठा फास्फोरस का सीमित उपयोग और सातवां ऐरोसोल शामिल है। शोधपत्र की मानें तो दुनिया की लगभग 52 फीसदी भूमि पर अतिक्रमण करके दो या उससे अधिक उपायों का उल्लंघन किया जा चुका है। परिणामस्वरूप दुनिया की कुल आबादी का 86 फीसदी हिस्सा प्रभावित हुआ है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि भारत सहित दुनिया के कुछ हिस्से, यूरोप और अफ्रीका के कुछ हिस्सों के साथ-साथ हिमालय का तलहटी वाला क्षेत्र इन उपायों के उल्लंघन के फलस्वरूप हाटस्पाट बन गये हैं। दरअसल वैश्विक स्तर पर जलवायु, जीव मंडल,ताजे पानी, पोषक तत्व और वायु प्रदूषण पृथ्वी के प्रमुख घटक वायु मंडल, जलमंडल, भूमंडल, जीव मंडल, क्रायोस्फीयर और उनकी आपस में जुडी़ प्रक्रियाओं कार्बन, पानी और पोषक चक्र पर पूरी तरह निर्भर करते हैं। इनको मानवीय गतिविधियों से सबसे ज्यादा खतरा है। ये भविष्य के विकास को सबसे ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं।

दरअसल जलवायु से जुडे़ उपायों का उल्लंघन रोकना हिममंडल और जैव मंडल में होने वाली गतिविधियों पर आधारित है। धरती का तापमान एक डिग्री सेल्सियस पहले ही बढ़ चुका है। यह 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने पर जैवमंडल में क्षति और जलवायु प्रक्रियाओं पर प्रतिकूल और नकारात्मक असर डालेगा। जहां तक वायु प्रदूषण का सवाल है, इसके लिए इन उपायों का उल्लंघन जिम्मेदार है। इसके चलते दुनियाभर में करीब 42 लाख लोगों की मौत की आशंका  है। साथ ही इसके तापमान का उच्च स्तर मानसून को गहरे तक प्रभावित करेगा। असलियत में जैवमंडल में होने वाले विभिन्न प्राकृतिक कार्यों को बनाये रखने के लिए 50-50 फीसदी जमीन प्राकृतिक गतिविधियों और क्षेत्रों के लिए छोडा़ जाना चाहिए लेकिन दो तिहाई जमीन पर तो पहले ही अतिक्रमण किया जा चुका है। केवल 40 फीसदी जमीन ही प्राकृतिक कार्यों के लिए शेष बची है। वहां जल निकायों और नदियों के 20 फीसदी पानी के प्रवाह को परिवर्तित करने की सिफारिश की गयी है। साथ ही पर्यावरणीय जरूरतों की खातिर 80 फीसदी पानी के प्रवाह को अपरिवर्तित छोड़ देना चाहिए लेकिन यहां भी 34 फीसदी पानी का प्रवाह परिवर्तित किया जा रहा है। सच  यह है कि समूची दुनिया में कृषि क्षेत्र में नाइट्रोजन और फास्फोरस का अत्याधिक इस्तेमाल कर इन उपायों का उल्लंघन किया जा रहा है।

यहां इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता कि पहाड़ की चोटियों से लेकर समुद्र की गहराई तक जलवायु परिवर्तन के असर के चलते बीता दशक 1850 के बाद सर्वाधिक गर्म रहा है। यह भी कि सूखा, बाढ़ और भीषण गर्मी ने हर महाद्वीप को प्रभावित किया है जबकि इनसे निपटने हेतु कई अरब डालर की राशि खर्च भी की गयी है। इस दौरान अंटार्कटिक की बर्फ रिकार्ड स्तर पर सबसे निचली सीमा तक पिघली है और कुछ योरोपीय ग्लेशियर का पिघलना तो गिनती से बाहर ही हो गया है।  मौसम विज्ञान संगठन ने भूमि, समुद्र और वातावरण में वैश्विक स्तर के बदलाव का खुलासा करते हुए कहा है कि इस दौरान बीते तीन वर्ष ला नीना के शीतलन प्रभाव के बावजूद 2015 से 2022 तक के बीच के आठ वर्ष रिकार्ड स्तर पर सबसे गर्म रहे हैं। फिर इस दौरान वैश्विक औसत तापमान 1850-1900 के औसत से 1.15 (1.02 से 1.28) डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है। इस बारे में डब्ल्यूएमओ के महासचिव प्रो० पेटेरी तालस कहते हैं कि जैसे -जैसे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है, वैसे -वैसे जलवायु में परिवर्तन तेजी पकड़ रहा है। 

असलियत में दुनियाभर में अधिकांश आबादी मौसम और जलवायु घटनाओं से गंभीर रूप से  प्रभावित हो रही है। 2022 में पूर्वी अफ्रीका में सूखा, पाकिस्तान में रिकार्ड तोड़ बारिश, चीन व योरोप में रिकार्ड तोड़ गर्मी ने करोडो़ं लोगों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। सबसे बड़ी बात यह कि औसत वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को लक्ष्य के भीतर रोकने के लिए 2019 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2035 तक 60 फीसदी कम करना होगा। यू एन महासचिव एंटोनियो गुटारेस कहते हैं कि आज के हालात में यह बेहद जरूरी है कि हम जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर तत्काल रोक लगावें। अमीर देशों को तो 2030 तक और गरीब देशों को 2040 तक इनका इस्तेमाल पूरी तरह खत्म करना होगा। विकसित देशों को 2035 तक कार्बन मुक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य पूरा करना होगा। यही नहीं गैस संचालित पावर प्लांट भी पूरी तरह बंद करने होंगे। आज दुनिया के 3.3 से लेकर 3.6 अरब लोगों पर जलवायु परिवर्तन का  सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है। इससे बाढ़,  सूखा और दूसरी आपदाओं से ऐसे लोगों की जान जाने का खतरा 15 गुणा और बढ़ जाता है। 

शोध और अध्ययन सबूत हैं कि अभी तक छह बार धरती का विनाश हो चुका है। अब धरती एक बार फिर सामूहिक विनाश की ओर बढ़ रही है। यदि हम धरती के बीते 500 सालों के इतिहास पर नजर डालें तो धरती पर तकरीब 13 फीसदी से ज्यादा प्रजातियां अभी तक विलुप्त हो चुकी हैं और 20 लाख प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं। लक्ज़मबर्ग यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अध्ययन के मुताबिक 24 फीसदी जीव,  27 फीसदी पौधे और 18 फीसदी कशेरुकी की प्रजाति खतरे में हैं।  इसके लिए प्रदूषण और मानवीय गतिविधियों को शोधकर्ताओं ने जिम्मेदार ठहराया है। इसमें जंगलों की बेतहाशा कटाई और औद्योगिकीकरण की अहम भूमिका है। यह जैव विविधता के गिरावट के भयावह संकट का संकेत है। आधुनिकीकरण के मोहपाश के बंधन के चलते दिनोंदिन बढ़ता तापमान, बेतहाशा हो रही प्रदूषण वृद्धि, पर्यावरण और ओजोन परत का बढ़ता ह्वास, प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन, ग्रीन हाउस गैसों का दुष्प्रभाव, तेजी से जहरीली और बंजर होती जा रही जमीन, वनस्पतियों की बढ़ती विषाक्तता आदि यह सब हमारी जीवनशैली में हो रहे बदलाव का भीषण दुष्परिणाम है। 

सच कहा जाये तो इसमें जनसंख्या वृद्धि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। इसने पर्यावरण, प्रकृति और हमारी धरती के लिए भीषण खतरा पैदा कर दिया है। हम यह नहीं सोचते कि यदि प्राकृतिक संसाधन और हमारी जैव संपदा ही खत्म हो गयी तब क्या होगा? जैव विविधता के ह्वास की दिशा में यदि हम वैश्विक स्तर पर नजर डालें तो लैटिन अमरीका और कैरेबियन क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित हैं।  क्योंकि 52 फीसदी कृषि उत्पादन से जुडी़ भूमि विकृत हो चुकी है, 70 फीसदी जैविक नुकसान में खाद्य उत्पादन से जुडे़ कारक जिम्मेवार हैं। 28 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए खाद्य प्रणाली जिम्मेवार है। 80 फीसदी वैश्विक वनों की कटाई के लिए हमारी कृषि जिम्मेवार है और 50 फीसदी मीठे पानी की प्रजातियों के नुकसान के लिए खाद्य उत्पादन से जुडे़ कारक जिम्मेवार हैं। 

यदि अब भी हम अपनी जैव विविधता को संरक्षित करने में नाकाम रहे और मानवीय गतिविधियां इसी तरह जारी रहीं तो मनुष्य का स्वास्थ्य तो प्रभावित होगा ही, विस्थापन बढे़गा, गरीब इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, तकरीब 85 फीसदी आद्र भूमि का खात्मा हो जायेगा, कीट-पतंगों के साथ बडे़ प्राणियों पर सबसे ज्यादा खतरा मंडराने लगेगा और प्राकृतिक संपदा में 40 फीसदी से ज्यादा की कमी आ जायेगी। इसलिए समय की मांग है कि हम अपनी जीवन शैली में बदलाव लाएं, प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करें, सुविधावाद को तिलांजलि दे बढ़ते प्रदूषण पर अंकुश लगाएं अन्यथा मानव सभ्यता बची रह पायेगी, इसकी आशा बेमानी होगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)