कच्चातिवु द्वीप के स्वामित्व को लेकर फिर विवाद
लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक 

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लोकसभा चुनावों की तिथियां घोषित होने काफी पहले ही तमिलनाडु के सत्तारूढ़ दल द्रमुक के नेताओं ने इस बात को साफ़ कर दिया था कि वे इन चुनावों में  कच्चातिवु द्वीप पर फिर से भारत का स्वामित्व जताने को वे एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनायेंगे। इसके चलते इस द्वीप  के स्वामित्व आधा शतक पुराना  विवाद के एक बार फिर सुर्ख़ियों में आ गया है। यह मांग जोरों से हो रही है कि केंद्र में बीजेपी की सरकार को यह द्वीप श्रीलंका से वापिस लेने के मामले पर अपने नीति साफ़ करनी चाहिये।

तमिलनाडु में बीजेपी को छोड़ कांग्रेस सहित सभी दल तमिल राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे को राजनीतिक रूप से आगे रखते है। यों कहना चाहिए के ये सभी दल  तमिल राष्ट्रवाद के मामले पर एक है। कच्चातिवु द्वीप पर स्वामित्व का विवाद ब्रिटिश समय से ही भारत और श्रीलंका के बीच चला आ रहा है। पाक  जलडमरू स्थित और लगभग 285 एकड़ क्षेत्रफल में फैला यह निर्जन द्वीप समुद्र के बीचों बीच है। भारत के रामेश्वरम तट से यह  द्वीप 14 समुद्रीय मील   दूर है। इसी प्रकार श्रीलंका के समुद्र तट से भी इसकी दूरी भी लगभग इतनी ही है। इसी के चलते दोनों देश इस पर पाना मालिकाना हक़ जताते रहे है।   सदियों से दोनों देशो के मछुआरे समुद्र के इस इलाके में मछलियाँ पकड़ने के लिए अपनी नौकाएं से आते रहे हैं। इस द्वीप की भौगोलिया स्थिति के चलते दोनों देशों के मछुआरे अपने जालों को सुखाने लिए यहाँ आते रहे है। कई बार वे पकड़ी गई मछलियों को भी यहाँ सुखाने के लिए डालते रहे हैं। चूँकि दोनों देश इस द्वीप और समुद्रीय इलाके को अपना मानते है इसलिए एक दूसरे  के देश  के मछुआरों को पकड़ लिया जाना आम से बात थी। 

1974 में पता नहीं किन  कारणों के चलते भारत ने यह द्वीप श्रीलंका को देना मान लिया। उस समय इंदिरा गाँधी देश की प्रधानमंत्री थी। भारत की ओर से   सहमति पत्र पर भारत की ओर से उन्होंने ने ही हस्ताक्षर किये थे। इसको लेकर इंदिरा गाँधी और उनकी कांग्रेस सरकार के आलोचना हुई थी। इसके लिए  न तो संसद से अनुमति ली गई और न ही कोई वैधानिक प्रक्रिया अपनाई गई। सरकार की ओर से यह साफ़ किया गया कि भारत ने श्रीलंका को इस दवीप प्रभुत्व नहीं दिया गया है और न ही श्रीलंका को पूरी तरह से सौंपा है। हाँ श्री लंका दवारा इसके उपयोंग किये जाने को मान लिया गया है। बहुत बाद में  इस सारे मुद्दे को सर्वोच्च नयायालय में चुनौती दी गई जहाँ अभी मामला लंबित है। 

लगभग दो महीने पहले श्रीलंका ने इस समुद्रीय क्षेत्र में आधा दर्जन भारतीय मच्छुआरों के यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिए कि वे श्री लंका के क्षेत्र में अवैध  रूप से नौकयों से मच्छ्लियाँ पकड़ रहे थे। भारत सरकार ने श्री लंका से इन भारतीय मुच्छ्यारों को रिहा करने का आग्रह किया। लेकिन श्री लंका सरकार ने  न केवल उन्हें छोड़ने से इंकार कर दिया बल्कि उनके खिलाफ मामले दर्ज  भी दर्ज कर दिए। इनमें से कुछ को तो सजा भी हुई। इस मामले को तमिलनाडु के  मुख्यमंत्री स्टालिन ने प्रधानमंत्री स्तर पर उठाया। विदेश मंत्रालय ने दवाब बनाया लेकिन इसका भी श्री लंका पर कोई असर नहीं हुआ

इस निर्जन द्वीप पर सौ साल से भी अधिक पुराना एक चर्च है। यहाँ फरवरी के तीसरे सप्ताह दोनों देशो के मुच्छ्यारे, जो अधिकतर ईसाई हैं, बड़ी संख्या में भाग लेते है। यह समारोह पांच दिनों तक चलता है 1974 तक इस चर्च का नियंत्रण तमिलनाडु के चर्च संघ के पास था। दोनोंदेशों के बीच बनी सहमति के बाद इस चर्च का नियंत्रण श्री लंका का तमिल बहुल इलाके जाफना के चर्च संघ को दे दिया गया।  इस फैसले से रामेशवरम के आसपास रहने वाले ईसाई समुदाय ने किया। 

इस बार फ़रवरी में पहला अवसर था कि चर्च के इस वार्षिक समारोह में भारतीय ईसाई मच्छुयारों ने भाग लेने से इंकार कर दिया, उनकी मांग थी कि जब तक  श्री लंका दवारा गिरफ्तार किये गए भारतीय मच्छुआरों को रिहा नहीं किया जाता तब तक वे ऐसे किसी समारोह में भाग नहीं लेंगे। 

कूटनीतिक गलियारों में यह कहा जा रहा कि इस समुद्रीय क्षेत्र में माले के बाद श्री लंका दूसरा देश हैं जो ऐसे मुद्दों पर भारत को आंखे दिखने की कोशिश कर रहा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)