लेखक : सुरेश भाई
लेखक, पर्यावरण एवं सामाजिक कार्यकर्ता
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मनुष्य और उसका विकास इस भुलावे में अवश्य है कि घर में एसी लगा कर गर्मी से बच जाएंगे। खाना रसोई गैस से पका देंगे।आधुनिक गाड़ियों के लिए चमचमाती सड़कों को बना देंगे। लेकिन इस वास्तविकता को समझकर भी नकार रहा है कि ऑक्सीजन और धरती की सेहत के लिए तो पेड़ -पौधों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। मनुष्य अपने भोगवादी विकास के लिए प्रकृति के हर कोने पर पहुंचकर विजय हासिल करना चाहता है। जिसके कारण वह अपने विनाश का रास्ता स्वयं ही बना रहा है। ऐसा ही एक उदाहरण सामने आया है कि उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के मुख्यालय से लगभग 40 किमी की दूरी पर 1000 वर्ष पुराना जागेश्वर धाम का मंदिर है।
इसके आसपास गुजरने वाली 6-7 किमी की घुमावदार सड़क पर देवदार का घना जंगल है। हजारों देशी- विदेशी श्रद्धालु यहां आकर दर्शन करते हैं। यहां पर जाने वाली सड़क इतनी भी संकरी नहीं है कि जहां गाड़ियों को जाने में कोई दिक्कत होती होगी। यह जरूर है कि आधुनिक किस्म की गाड़ियों को चाहिए कि वह आधे घंटे का सफर 5-10 मिनट में ही पूरा कर दें। जिसके लिए आसपास के लगभग 1000 देवदार के पेड़ों पर निशान लगाकर काटने की योजना बनायी गयी है। जिसने भी यहां देवदार के पेड़ों को काटने का सुझाव दिया होगा।वह भूल गया कि यहां जागेश्वर धाम में उगने वाले देवदार का अर्थ "देववृक्ष" से है। यहां से जटा गंगा नाम की छोटी सी जलधारा भी बहती है जिसका अस्तित्व इसी हरियाली पर टिका हुआ है। कोई भी श्रद्धालु जब यहां पर जाता है तो वह यहां के इन शानदार दुर्लभ पेड़ों के बीच में स्वर्ग जैसा अनुभव करता है। कहते हैं कि यहां इन पेड़ों की अद्भुत छांव में शिव का साक्षात दर्शन प्राप्त होता है। मानस खंड में ऋषि वेद व्यास इस जंगल के बारे में बताते हैं कि यहां आकर शिवजी ने अपने योगी रूप को प्राप्त किया है। इस अद्वितीय जंगल के बीच में जागेश्वर धाम का मंदिर है। जो सिद्ध पुरुषों, विद्वानों, ऋषियों और देवताओं की पूजा स्थली है।
इस भव्य मंदिर का शिल्प बहुत ही आकर्षक है। इस स्थान पर सवा सौ मंदिरों का एक छोटा सा परिसर बनाया गया है। जिसमें शिव के रूप में अलग-अलग दर्शन होते हैं।जहां किसी मंदिर में शिव नृत्य कर रहे हैं तो किसी में बीणा बजा रहे हैं। किसी में शिव की तरुण छवि की उपासना होती है, किसी में वृद्ध स्वरूप में विराजमान है। यहां पर शिव का ऐसा मंदिर भी है जहां पर पूजा करने से मनोकामना की पूर्ति होती है। लेकिन वर्तमान सदी का सबसे बड़ा सपना है कि लोग तेज रफ्तार के साथ इस दिव्य स्वरूप देवभूमि में पहुंचे। इस जल्दबाजी के लिए प्रकृति विनाश करने में कोई देरी नहीं करते हैं।
नीति निर्माताओं के मन में यह विचार है कि हर स्थान पर सड़क इतनी चौड़ी हो कि टैंक भी चलाया जा सके। इसलिए देवदार के पेड़ों पर आरियां चलाने में कोई हिचक नहीं है। यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र में देवदार विलुप्ति के कगार पर है। यदि कहीं देवदार बचा भी है तो वह साल में 6 से 8 इंच तक ही वृद्धि कर पाता है। उत्तराखंड की देवभूमि में आस्था, विश्वास, पर्यावरण का कोई मायने यदि नहीं समझ पाएंगे तो यहां की जैव विविधता के बीच में पली-बढी संस्कृति भी कैसी बचेगी? लेकिन स्थानीय लोग तो इस बात को भली भांति समझते हैं।इसलिए लोगों को जब पता चला कि जागेश्वर धाम के आसपास देवदार के हजार से अधिक पेड़ों को काटने के लिए निशान लगा दिये गये हैं। इसके बाद पेड़ों को बचाने के लिए सोशल मीडिया पर अनेकों लोगों ने आक्रोश जाहिर किया है। अशोक पांडे ने इस विषय पर विस्तार पूर्वक एक रिपोर्ट भी सोशल मीडिया में जारी की है। स्थानीय जन नेता पीसी तिवारी और उत्तराखंड लोक वाहिनी ने भी विरोध प्रकट किया है।
8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस भी सामने ही था। स्थानीय लोगों को लगा कि हमारे पहाड़ की महिलाओं का जीवन तो जंगल से ही जुड़ा हुआ है। तीर्थ क्षेत्रों का महत्व भी जंगल और नदियों के आकर्षण पर टिक है। गौरा देवी समेत उत्तराखंड की हजारों महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया और इसके बाद महिलाओं ने राखी बांधकर लाखों पेड़ों को बचाने का अभियान चला रखा हैं। इसी को ध्यान में रखकर पिथौरागढ़ के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् चंदन नयाल ने दर्जनों महिलाओं के साथ 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और शिवरात्रि के दिन जागेश्वर धाम का दर्शन करके देवदार के पेड़ों पर राखी बांधकर बचाने का संकल्प ले लिया है। काबिले गौर है कि चंदन नयाल वर्तमान में ढालदार पहाड़ियों पर जल संरक्षण हेतु चाल-खाल का बृहद निर्माण और वृक्षारोपण के काम में बहुत सक्रिय है।उनको इस काम के लिए अब तक अनेकों सम्मान मिल चुके हैं। और इस बार इनका यह प्रयास जागेश्वर धाम के वृक्षों को भी बचा सकता है।
यद्यपि मीडिया के माध्यम से पेड़ों पर छपान करने के बावजूद भी वन विभाग ने कहा है कि भविष्य में इन पेड़ों को नहीं काटा जाएगा लेकिन उनको यह कहने का दबाव तो स्थानीय लोगों ने ही बनाया है। जिसके बाद शासन- प्रशासन ने अपने कदम को घोषणा के तौर पर वापस लेने की बात तो कही है। लेकिन लोगों की सक्रियता जब समाप्त हो जाएगी तो इन पेड़ों को बचाना भी मुश्किल होगा। क्योंकि महाविनाश को न्योता देने के लिए इस तरह का विकास आ रहा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)