बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री समाजवादी नेता और सामाजिक न्याय के प्रणेता स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार "भारत रत्न" से सम्मानित किया जाना भारतीय लोकतंत्र की छवि को और अधिक चमकाएगा और भारत एक सबसे लोकप्रिय, शक्तिशाली देश के रूप में उभरेगा जहां सभी के अधिकार और सम्मान सुरक्षित हैं
सहायक क्षेत्रीय निदेशक, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार। इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।
एक शिक्षाविद्, स्वतंत्र सोशल मीडिया पत्रकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखक, मीडिया विशेषज्ञ, सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत वक्ता, संवैधानिक विचारक और कश्मीर घाटी मामलों के विशेषज्ञ और जानकार।
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भारत सरकार ने समाजवादी नेता और सामाजिक न्याय के प्रणेता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। कर्पूरी ठाकुर को 'भारत रत्न' सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिए जाने से भारतीय लोकतांत्रिक समाज के सबसे पिछड़े वर्ग सशक्त होंगे। यह कदम भारतीय लोकतंत्र के सबसे पिछड़े समुदायों को सशक्त और अधिक शक्तिशाली बनाएगा। यह पारदर्शिता,जवाबदेही, जिम्मेदार और निष्पक्ष सुशासन की पहली भावना है जो पिछले एक दशक में प्रत्येक भारतीय द्वारा देखी जा रही है। इससे पहले इस तरह के सम्मान और नागरिक सम्मान संभ्रांत वर्गों या सिफारिशों के आधार पर दिए जाते रहे हैं, लेकिन पहली बार ये पुरस्कार खुले तौर पर आम नागरिकों के लिए बनाए गए और अगर कोई देश के विकास के लिए काम करता है तो वह खुद भी इसकी सिफारिश कर सकता है। उल्लेखनीय योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले सम्मानों में भारत रत्न के पश्चात् क्रमशः पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री हैं। पिछले दस वर्षों में हमारे प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कई वास्तविक और जमीनी मेहनत वाले भारतीयों आम नागरिकों को पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री और भारत रत्न जैसे सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिले।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 60 और 80 के दशकों में तीन भारतीय राजनेता सामाजिक न्याय, समानता और संवैधानिक समान भागीदारी, साझेदारी और सहभागिता के प्रतीक और सामाजिक न्याय आंदोलनों के सबसे लोकप्रिय प्रतीक के रूप और सर्वाधिक प्रासंगिक और लोकप्रिय नेता बनकर उभरे, वे थे - लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मान्यवर कांशी राम और जननायक कर्पूरी ठाकुर। ये तीन नेता उत्तर मध्य भारत में प्रमुख राजनीतिक जन लोकप्रिय सामाजिक न्याय जन नेता थे। भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक न्याय, समानता, संविधान आधारित राजनीतिक आंदोलन में उनके योगदान से कोई इनकार नहीं कर सकता।
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्मान की ओर से मैं बिहार राज्य के सभी निवासियों को इस शुभ उपलब्धि पर हार्दिक बधाई देता हूं कि आपके और हमारे परम आदरणीय समाजवादी नेता को भारत सरकार का सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" मिला। मैं इस गौरवशाली यात्रा और ऐतिहासिक क्षणों का हिस्सा बनने के लिए आप सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।
माननीय प्रधानमंत्री साहब आदरणीय श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में पिछले 9 साल 8 महीनों में देश भर में आम जनता को न्याय, समानता देने के लिए हजारों उत्कृष्ट पहल की गई हैं। महान समाजवादी नेता और सामाजिक न्याय के प्रणेता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का निर्णय भी उनमें से एक हैं। यह निर्णय निश्चित रूप से समाज के सबसे पिछड़े वर्गों को सशक्त बनाएगा और यह अपने आप में एक सम्मानजनक और स्वागत योग्य कदम है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार में 24 जनवरी का राजनीतिक महत्व पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। इस दिन पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की जयंती के बहाने राज्य के प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच उनकी विरासत पर दावा जताने की आपसी होड़ मची है। दरअसल, मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में वहां तक पहुंचे जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए पहुँचना लगभग असंभव ही था। वे बिहार की राजनीति में ग़रीब गुरबों की सबसे बड़ी जोरदार और मजबूत आवाज बन कर उभरे थे।
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे।1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। अपने दो कार्यकाल में कुल मिलाकर ढाई साल के मुख्यमंत्रीत्व काल में उन्होंने जिस तरह की छाप बिहार के समाज पर छोड़ी है, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं दिखता। ख़ास बात ये भी है कि वे बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। 1967 में जब वे पहली बार उपमुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी। इसके चलते उनकी काफी आलोचना हुई लेकिन सच तो यह है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। इस दौरान अंग्रेजी में मैट्रिक फेल होने वाले लोगों को 'मैं कर्पूरी डिविजन से पास हुआ हूं' कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता था। इसी दौरान उन्हें शिक्षा मंत्री का पद भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया और आर्थिक तौर पर ग़रीब बच्चों की स्कूल फी को माफ़ करने का काम भी उन्होंने किया था। वो देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी। उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया।
1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया। बिहार के तब के मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के लिए उपलब्ध नहीं थी, मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने चर्तुथवर्गीय कर्मचारी लिफ्ट का इस्तेमाल कर पाएं, ये सुनिश्चित किया। आज की तारीख में भले ये मामूली क़दम दिखता हो लेकिन संदेशात्मक राजनीति में इसके मायने बहुत ज़्यादा थे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था। दिन रात राजनीति में ग़रीब गुरबों की आवाज़ को बुलंद रखने की कोशिशों में जुटे कर्पूरी की साहित्य, कला एवं संस्कृति में काफी दिलचस्पी थी। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए। जब करोड़ो रूपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं। उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए। उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, "जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।" उस दौर की एक घटना है कि जब वे मुख्यमंत्री थे तो उनके गांव के कुछ शक्तिशाली सामंतों ने उनके पिता को अपमानित करने की कोशिश की थी। जब खबर फैली तो जिलाधिकारी कार्रवाई करने गांव पहुंचे, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया। उन्होंने कहा कि अमूमन गांव-गांव में दबे-कुचले पिछड़ों को अपमानित किया जाना आम बात है। यह पहल उनकी राजनीतिक समझ, क्षमता और धैर्य को दर्शाती है और लोकतंत्र में बदले की भावना के लिए कोई जगह नहीं है और न ही कभी होनी चाहिए। एक और उदाहरण है, कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को खत लिखना नहीं भूले। इस ख़त में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, "पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना। मेरी बदनामी होगी।" रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का फ़ायदा भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया। उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा, "कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा-भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा। हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं।" रामनाथ अपने पिता की सादगी का एक किस्सा बताते हैं, "जननायक 1952 में विधायक बन गए थे। एक प्रतिनिधिमंडल में जाने के लिए ऑस्ट्रिया जाना था। उनके पास कोट ही नहीं था। एक दोस्त से मांगना पड़ा। वहां से यूगोस्लाविया भी गए तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा हुआ है और उन्हें एक कोट भेंट किया।
सादगी, सामाजिक न्याय, सबसे पिछड़े वर्गों को समानता कर्पूरी ठाकुर के जीवन का सार और आधार स्तम्भ था। 24 जनवरी को देश इस महान समाजवादी नेता की 100वीं जयंती मना रहा है और जन नायक कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती है। समाजवादी नेता और सामाजिक न्याय के प्रणेता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय के अथक प्रयास ने करोड़ों लोगों के जीवन में सकारात्मक प्रभाव डाला। वह समाज के सबसे पिछड़े वर्गों में से एक, नाई समाज से थे। अनेक बाधाओं को पार करते हुए उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया और सामाजिक सुधार के लिए काम किया। वह उस समय के सभी समाजवादी नेताओं के लिए वैचारिक रूप से सबसे मजबूत स्तंभ, एक सच्चे और वफादार जन नेता थे। उन्होंने बिहार में समानता, न्याय, समान जन भागीदारी, साझेदारी के लिए आंदोलन किया। बिहार के जननायक स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर का जीवन सादगी, समान भागीदारी, साझेदारी और सामाजिक न्याय के स्तंभों के इर्द-गिर्द घूमता था। अपनी अंतिम सांस तक उनकी सरल सादगी जीवनशैली और विनम्रता का स्वभाव आम लोगों के बीच गहराई से जुड़ा रहा। बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, राजनीतिक नेताओं के लिए एक कॉलोनी बनाने का निर्णय लिया गया था, लेकिन उन्होंने स्वयं इसके लिए कोई जमीन या पैसा नहीं लिया। 1988 में जब उनका निधन हुआ तो कई नेता श्रद्धांजलि देने उनके गांव गए। जब उन्होंने उसके घर की हालत देखी तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। इतने ऊंचे व्यक्ति का घर इतना साधारण कैसे हो सकता है! यह उन सभी नेताओं के लिए सबसे अधिक आश्चर्य की बात थी जो अंतिम संस्कार और श्रद्धांजलि देने के लिए उनके घर गए थे।
उनकी सादगी का एक और किस्सा 1977 का है जब उन्होंने बिहार के सीएम का पद संभाला था। दिल्ली और पटना में जनता पार्टी की सरकार सत्ता में थी। उस समय जनता पार्टी के नेता लोकनायक जेपी के जन्मदिन के अवसर पर पटना में एकत्र हुए थे। शीर्ष नेताओं की मंडली में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर फटा हुआ कुर्ता पहने हुए चल रहे थे। चन्द्रशेखर ने अपने अंदाज में लोगों से कुछ पैसे दान करने को कहा ताकि कर्पूरी जी नया कुर्ता खरीद सकें। लेकिन, जननायक स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर तो जन नायक कर्पूरी ठाकुर जी थे- उन्होंने पैसा स्वीकार किया लेकिन उसे मुख्यमंत्री राहत कोष में दान कर दिया। ऐसी सादगी, समर्पण, त्याग और देशभक्ति की भावना आज के समय में मिलना बहुत मुश्किल है। जननायक कर्पूरी ठाकुर को सामाजिक न्याय सबसे प्रिय था और जीवन की अंतिम सांस तक अपने सिद्धांतों पर कायम रहे।
उनकी राजनीतिक यात्रा को एक ऐसे समाज के निर्माण के महान प्रयासों द्वारा चिह्नित किया गया था जहां संसाधनों को उचित रूप से वितरित किया गया था और हर किसी को, उनकी सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना, अवसरों तक पहुंच थी। वह भारतीय समाज को त्रस्त करने वाली असमानताओं को संबोधित करना चाहते थे। अपने आदर्शों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ऐसी थी कि ऐसे युग में रहने के बावजूद जहां कांग्रेस पार्टी सर्वव्यापी थी। उन्होंने स्पष्ट रूप से कांग्रेस विरोधी लाइन अपनाई क्योंकि उन्हें बहुत पहले ही यकीन हो गया था कि कांग्रेस अपने संस्थापक सिद्धांतों से भटक गई है। उन्होंने जीवन भर तत्कालीन कांग्रेस पार्टी और सामाजिक न्याय, समानता न देने के कांग्रेस पार्टी के अड़ियल व्यवहार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपना पहला चुनाव 1952 में जीता और तब से वे अपने राजनीतिक जीवन में एक भी चुनाव नहीं हारे। कर्पूरी ठाकुर दिसंबर 1970 से जून 1971 और दिसंबर 1977 से अप्रैल 1979 तक मुख्यमंत्री रहे। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के साथ अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करते हुए, वह बाद में 1977 से 1979 तक बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में अपने प्रारंभिक कार्यकाल के दौरान जनता पार्टी के साथ जुड़ गए। वह श्रमिक वर्ग, मजदूरों, छोटे किसानों और युवाओ के संघर्षों को सशक्त रूप से आवाज देते हुए, विधायी सदनों में एक ताकतवर आवाज बन गए। शिक्षा उनके दिल के बहुत करीब का विषय था। महामाया बाबू की सरकार में बतौर शिक्षा मंत्री उन्होंने मेट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया, क्योंकि अधिकांश लोग अंग्रेजी के कारण मैट्रिक फेल कर जाते थे।
कर्पूरी ठाकुर ने दिवंगत माता के श्राद्ध भोज के पैसे से स्कूल बना दिया, लेकिन लोगों को भोज खिलाने से मना कर दिया। अब हम उनके दूरदर्शी विचारों का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज के समय में मृत्यु भोज न करने का निर्णय लेना बहुत कठिन है, यह सामाजिक कुरीतियाँ आज भी हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत प्रचलित है। लेकिन स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर ने अपनी माँ के निधन पर कोई भी मृत्यु भोज न करने का निर्णय लिया। मृत्यु भोज रीति-रिवाज एक सामाजिक बुराई है और सरकार द्वारा कई प्रतिबंधों के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में यह अभी भी सामाजिक कर्तव्य और जिम्मेदारी के रूप में प्रचलित है। लेकिन यह एक सामाजिक बुराई है और सीधे तौर पर गरीब जनता पर पड़ने वाला अनावश्यक आर्थिक बोझ है, जिसे हमें गरीब नागरिकों की भलाई के लिए अपने सामूहिक प्रयासों और जिम्मेदारी से पूरे समाज से हटाना होगा। अपने पूरे राजनीतिक जीवन में उन्होंने गरीबों के लिए शिक्षा सुविधाओं में सुधार के लिए काम किया। वह स्थानीय भाषाओं में शिक्षा के समर्थक थे ताकि छोटे शहरों और गांवों के लोग भी सीढ़ियाँ चढ़ सकें और सफलता प्राप्त कर सकें। लोकतंत्र, वाद-विवाद और चर्चा जन नायक कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थे। यह भावना तब देखी गई जब उन्होंने एक युवा के रूप में भारत छोड़ो आंदोलन में खुद को डुबो दिया और यह फिर से तब देखी गई जब उन्होंने आपातकाल का पुरजोर विरोध किया। उनके अनूठे दृष्टिकोण की जेपी, डॉ लोहिया और चरण सिंह जी जैसे लोगों ने बहुत प्रशंसा की। भारत के लिए जन नायक कर्पूरी ठाकुर के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से एक पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई तंत्र को मजबूत करने में उनकी भूमिका थी। इस उम्मीद के साथ कि उन्हें वह प्रतिनिधित्व और अवसर दिए जाएं जिसके वे हकदार थे। उनके इस फैसले का भारी विरोध हुआ लेकिन वह किसी भी दबाव के आगे नहीं झुके। उनके नेतृत्व में ऐसी नीतियां लागू की गईं, जिन्होंने एक समावेशी समाज की नींव रखी। जहां किसी का जन्म किसी के भाग्य का निर्धारण नहीं करता। वह समाज के सबसे पिछड़े तबके से थे लेकिन उन्होंने सभी लोगों के लिए काम किया। उनमें कड़वाहट का कोई निशान नहीं था, जो उन्हें वास्तव में महान बनाता है। समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर को "समाज के वंचित वर्गों के उत्थान के लिए आजीवन समर्पण और उनकी अथक लड़ाई" के लिए सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
शुरूआती जीवन में अनेक बाधाओं को पार करते हुए कर्पूरी ठाकुर जी ने बहुत कुछ हासिल किया और अपनी सामाजिक स्थिति को मजबूत करके सामाजिक सुधार के लिए काफी काम किया। कर्पूरी ठाकुर, जिन्हें अक्सर "जननायक" या बिहार की राजनीति के लोगों के नायक के रूप में जाना जाता है, को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। ठाकुर की 100वीं जयंती से एक दिन पहले केंद्र ने यह घोषणा की। बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर दिसंबर 1970 से जून 1971 तक और बाद में जून 1977 से अप्रैल 1979 तक शीर्ष पद पर रहे। उनके कार्यकाल में मुंगेरीलाल आयोग का कार्यान्वयन हुआ, जिसने आर्थिक और समाज के पिछड़े वर्ग रूप से वंचितों के लिए आरक्षण की शुरुआत की। कर्पूरी ठाकुर समाजवादी प्रतीक जयप्रकाश नारायण के साथ आपातकाल विरोधी आंदोलन में सबसे आगे थे। वह अपनी सत्यनिष्ठा, सादा जीवन और सामाजिक न्याय की वकालत के लिए जाने जाते थे।
कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 भारत में ब्रिटिश शासन काल में समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गाँव, जिसे अब 'कर्पूरीग्राम' कहा जाता है, में नाई जाति में हुआ था। उनके पिताजी का नाम श्री गोकुल ठाकुर तथा माता जी का नाम श्रीमती रामदुलारी देवी था। इनके पिता गांव के सीमान्त किसान थे तथा अपने पारंपरिक पेशा बाल काटने का काम करते थे। कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने अपेक्षाकृत कम कार्यकाल के बावजूद बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी विरासत पार्टी लाइनों से परे है, विभिन्न विचारधाराओं की पार्टियाँ उनकी राजनीतिक विरासत पर दावा करना चाहती हैं। ठाकुर ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक युवा छात्र के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया, और कई महीनों तक जेल में रहे। शिक्षण में प्रारंभिक भागीदारी के बावजूद, वह 1952 के राज्य विधानसभा चुनाव में ताजपुर निर्वाचन क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में विजयी हुए और कांग्रेस के आधिपत्य को चुनौती दी। समाजवादी नेता 1967 में तब प्रमुखता से उभरे जब बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। उपमुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत ठाकुर को स्कूलों में अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेजी को समाप्त करने के लिए याद किया जाता है, इस कदम को साहसिक और प्रगतिशील माना जाता है। मुख्यमंत्री के रूप में अपने संक्षिप्त कार्यकाल के बावजूद, ठाकुर का प्रभाव पर्याप्त था। ठाकुर के नेतृत्व के दौरान, पिछड़े वर्गों के लिए कोटा शुरू करते हुए, मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं। सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग, जिसे अब 'अति-पिछड़ा' कहा जाता है, को एक विशिष्ट श्रेणी के रूप में मान्यता दी गई। 'शराब पर प्रतिबंध' का प्रयोग पहली बार कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल के दौरान बिहार में किया गया था।
कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हो गया। कर्पूरी ठाकुर को एक ऐसे नेता के रूप में याद किया जाता है जो धन-संपदा और भाई-भतीजावाद से अछूता था। उनके बेटे रामनाथ ठाकुर जद (यू) से राज्यसभा सांसद हैं। राजनीतिक मतभेदों के बावजूद, नीतीश कुमार और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद दोनों कर्पूरी ठाकुर को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं। सामाजिक न्याय की वास्तविक परिभाषा को धरातल पर उतारने के अपने अथक प्रयासों से करोड़ों लोगों के जीवन में सकारात्मक प्रभाव डालने वाले जन नायक कर्पूरी ठाकुर जी की जन्म शताब्दी मनाई जा रही है। समाजवादियों के संगम स्थल बिहार में उनके साथ काम करने वाले राम विलास पासवान, शरद यादव और चन्द्रशेखर से सार्वजनिक चर्चा के दौरान वे हमेशा कर्पूरी ठाकुर का जिक्र करते थे।
"भारत सरकार को यह घोषणा करते हुए बेहद गर्व हो रहा है कि देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिवंगत कर्पूरी ठाकुर को दिया जा रहा है। कर्पूरी ठाकुर सामाजिक न्याय के प्रणेता और भारतीय राजनीति के प्रेरणादायक व्यक्तित्व थे। यह सम्मान समाज के वंचित वर्गों के उत्थान में कर्पूरी ठाकुर के आजीवन योगदान और सामाजिक न्याय के प्रति उनके अथक प्रयासों के लिए एक श्रद्धांजलि है।" "बिहार के प्रमुख समाजवादी नेता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा। यह फैसला माननीय प्रधानमंत्री जी नरेंद्र मोदी सरकार को एक अलग पायदान पर खड़ा करती है।"
मीडिया और सामाजिक विश्लेषक का हिस्सा होने के नाते, मैं कह सकता हूं कि यह भारत सरकार द्वारा सही समय पर लिए गए सर्वोत्तम निर्णयों में से एक है और दुर्भाग्य से भारत की पिछली सरकारें इसे नहीं ले सकीं। लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार के लिए यह अपने आप में एक उपलब्धि है कि 20 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा से बाहर आए और देश के विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बने। आज की भारत सरकार ने पारदर्शिता, जवाबदेही, जवाबदेही और भ्रष्टाचार मुक्त शासन के साथ एक सुशासन दिया है जो हमारे लोकतंत्र को और अधिक मजबूत, जीवंत और आत्मनिर्भर बनाने के लिए सबसे उपयुक्त कार्य है। आज दुनिया भर में हमारे देश की छवि अधिक शक्तिशाली, विश्वसनीय और विकसित राष्ट्र की है, जिसने सरकार की प्रत्यक्ष लाभ योजनाओं के माध्यम से आम जनता को सशक्त बनाने के लिए कई कदम उठाए हैं।
पिछले 9 साल 8 महीने में माननीय परम पूजनीय प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत सरकार ने भारत को एक आत्मनिर्भर, विकसित, प्रगतिशील और आर्थिक रूप से विकसित देश बनाने के लिए हजारों पहल और कल्याणकारी कदम उठाए। आज दुनिया भर में हमारे देश की छवि अधिक शक्तिशाली, विश्वसनीय और विकसित राष्ट्र की है, जो सरकार की प्रत्यक्ष लाभ योजनाओं के माध्यम से आम जनता को सशक्त बनाने के लिए कई कदम उठा रहे हैं। मैं भारत के माननीय प्रधानमंत्री परम श्रद्धेय श्री नरेंद्र मोदी जी को उनके दूरदर्शी नेतृत्व और पूरी जिम्मेदारी, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ जनता की सेवा करने के संकल्प के लिए आभार व्यक्त करता हूं और धन्यवाद देता हूं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)