उत्तरी भारत की जहरीली हवाओं ने राजस्थान की वायु में घोला ज़हर देश के सबसे दूषित शहरों में राजस्थान के चूरू सीकर ने तोड़ा रिकॉर्ड एक्यूआई 452 हालातों पर काबू पाना जरूरी।
लेखक : राम भरोस मीणा
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हवाओं का रूख बदलने के साथ उत्तरी भारत से आने वाली हवाओं ने राजस्थान की वायु गुणवत्ता को प्रभावित करते हुए चूरू सीकर शहरों की वायु गुणवत्ता नोएडा दिल्ली से पिछाड़ते हुए एक्यूआई 452 रिकार्ड होना चिंता का विषय बन गया है। पंजाब हरियाणा उत्तरप्रदेश के साथ दिल्ली की स्थिति पहले से नाजुक बनी हुई होने के साथ एका एक राजस्थान की हवाओं में ज़हर तेज़ी से बढ़ता जा रहा है जिससे जन सामान्य के स्वास्थ्य पर ज़हर भरी हवाओं के दुष्प्रभाव पड़ने लगें हैं, हवा में घुलें सुक्ष्म कण अस्थमा स्वांस के रोगों, आंख नाक गला एलर्जी के साथ छोटे बच्चों व दमा जैसे रोगियों का जीवन जीना दुर्लभ कर दिया वहीं आम आदमी सहमा सा दिखने लगा है।
दो दशकों यानी 2001 से पूर्व राजस्थान के प्रत्येक शहर की वायु गुणवत्ता पुर्ण रूप से मानव के अनुकूल होते हुए यहां मौसम का प्रभाव नगण्य था। पंजाब हरियाणा से सटे क्षेत्रों में ही वायु गुणवत्ता में गिरावट देखने को मिलती, लेकिन 2011 के बाद दिल्ली , हरियाणा की वायु गुणवत्ता बनाए रखने के साथ राजस्थान में हुएं औधोगिक विकास से यहां का ईकोसिस्टम इतनी तेजी से प्रभावित हुआ कि पोल्यूशन के बढ़ते सम्पूर्ण वातावरण में ज़हर घुल गया तथा आज सम्पूर्ण राज्य में एक भी शहर सुरक्षित नहीं बचा जहां वायु गुणवत्ता ठीक हो, परिणाम स्वरूप इसका प्रभाव सीधा पड़ता दिखाई देने लगा है, दिपावली पूजन से पुर्व यहां एक्यूआई 98 से 356 था। भिवाड़ी शहर की वायु सर्वाधिक दूषित रही, दीपोत्सव पर्व के बाद वायु गुणवत्ता सूचकांक 452 पहुंच करें एक गम्भीर चिंताजनक स्थिति में पहुंचा दिया।
प्राणवायु की स्वच्छता तथा गुणवत्ता सभी जीवों के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी मानव के लिए, बड़ते पर्यावरणीय ख़तरों में इजाफा जो हुआ उसके लिए मानव स्वयं जिम्मेदार हैं अन्य किसी प्राणी पर इसे थोपा नहीं जा सकता। वन वनस्पतियों की कटाई, पहाड़ो पर खनन, परिवहन के साधनों, औधोगिक इकाईयों से निकलती धुआं, पराली जलाना, कुटीर उद्योगों के
अपषिष्टों को जलाना, प्लास्टिक की फैलती चादरें ये सब मानव द्वारा भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तैयार एक मसौदा है जो पर्यावरण के विपरित होने के साथ अनैतिक विकास की ओर संकेत करता है जिसके परिणामस्वरूप आज मानव ही नहीं सम्पूर्ण श्रष्टि विनाश की और बढ़ने लगी है। प्रत्येक वर्ष बिगड़ते पर्यावरणीय हालातो को देखते हुए यह साफ़ जाहिर होता है कि समय रहते सुधार नहीं होने पर आम व्यक्ति का जीवन जीना दुर्लभ होगा। आंक्सिजन की कमी, हवाओं में घुलता जहर विनाश के संकेत हैं।
मानव को अपने भौतिक सुख सुविधाओं, वैज्ञानिक खोजों, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, अपशिष्टों के निस्तारण के साथ उन सभी गतिविधियों पर नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए जिनसे आम व्यक्ति के साथ प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ाता हों साथ ही सरकार समाज व्यक्ति तीनों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझनें के साथ विकास की परिभाषा में बदलाव करने की आवश्यकता है, जिससे मानव सहित सभी जीव जीवित रहे वहीं पर्यावरणीय सुधार के लिए वन वनस्पतियों को बढ़ावा देने के साथ संघन वृक्षारोपण तथा प्लास्टिक जैसे उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया जाएं जिससे श्रष्टि को विनाश से बचाया जा सके अन्यथा अगले एक दशक में जीवित रहने के लिए प्राणवायु मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी होगा वहीं देश दुनिया के सामने यह बड़ी चुनौती होगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार है।)