18 सितंबर ’’विश्व जल निगरानी दिवस’’ पर विशेष
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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असलियत में बुनियादी स्वास्थ्य और स्वच्छता सुनिश्चित करने की दृष्टि से हर परिवार को पीने योग्य जल की प्राप्ति एक मूलभूत आवश्यकता है। देश के तकरीब 25 करोड़ परिवारों में से 19.5 करोड़ परिवार ग्रामीण अंचल में रहते हैं जो देश की आबादी का बहुत बडा़ हिस्सा है। लेकिन दुर्भाग्य कि वह इस मूलभूत आवश्यकता से आजादी के 75 साल बाद भी वंचित है। कारण वहां पर प्रति व्यक्ति 55 लीटर स्वच्छ पेयजल मिल पाना दुर्लभ है। यह भी कटु सत्य है कि वह चाहे खाना पकाने, साफ-सफाई, और व्यक्तिगत दैनंदिन गतिविधियों के लिए देश की अधिकांश आबादी को आज भी प्राकृतिक जल स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता है जोस्वच्छता और स्वास्थ्य के आवश्यक मानकों को पूरा करनेमेंअसमर्थ है। वैसे हर घर जल योजना जारी है लेकिन लाख चुनौतियों और बाधाओं के चलते यह मिशन कामयाबी से कोसों दूर है। इसमें पानी की गुणवत्ता के परीक्षण, अंकेक्षण और निगरानी हेतु जागरूकता समय की सबसे बडी़ जरूरत है।
असलियत में देश में आज जल की निगरानी और अंकेक्षण प्रणाली की जरूरत इसलिए और महसूस की जा रही है क्योंकि जल संकट निरंतर बढ़ता जा रहा है और हम हैं कि इस ओर ध्यान न देकर पानी को न केवल बर्बाद कर रहे हैं बल्कि जो बचा हुआ भी है, उसे अपने स्वार्थ के चलते और प्रदूषित करते चले जा रहे हैं।
देश में दावे कुछ भी किए जायें हकीकत यह है कि सर्वत्र पानी के लिए हाहाकार मचा है। पानी के लिए राज्य बरसों से झगड़ रहे हैं, तो कहीं धरने, प्रदर्शन, आगजनी और सत्याग्रह हो रहे हैं, तो कहीं पानी के संकट से जूझते लोग पानी के टैंकरों तक को लूट लेते हैं, तो कहीं पानी के लिए प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस लाठी-डंडे-गोली बरसा रही है। विचारणीय यह है कि 2030 में जब देश की आबादी का आंकड़ा दो अरब के करीब हो जायेगा, तब क्या होगा? यही वजह है कि वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, जल विशेषज्ञ और भूजल विज्ञानी बरसों से चिल्ला रहे हैं कि अब तो चेतो।
आजादी के मात्र दस साल बाद ही 1957 में योजना आयोग ने कहा था, देश में 232 गांव बेपानी हैं। आज यह संख्या दो लाख से ऊपर है। आज देश की किसी भी नदी का जल पीने और आचमन करने लायक नहीं है। हमारे यहां हर इंसान की मरते समय कंठ में दो बूंद गंगा जल पड़ जाये, यह चाह रहती है। पर आज इसकी पवित्रता पर ही संकट है। हमारे उद्योग और शहर नदियों का उपयोग मैला ढोने वाली मालगाड़ी की तरह कर रहे हैं। स्थिति इतनी खराब है कि प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग भी अब प्रदूषित जल का शिकार बन रहे हैं।
असलियत यह है कि सरकार पहले तो प्रदूषण करने वाले, ‘मैला जल बनाने वाले उद्योगों को बढ़ाती है, फिर मैला हटाने की कार्ययोजना बनाती है।’ इन दोनों कामों में राष्ट्रीय खजाना खाली होता है। कुछ मालामाल होते हैं पर ज्यादातर इससे बेकार, बीमार, कंगाल और लाचार हो जाते हैं। मौजूदा दौर में जल की निगरानी और पर्यावरणीय लेखा द्वारा ही लोगों की जीविका और जमीर का महत्व जानकर सरकार को समझाया जा सकता है। सरकार के हिसाब-किताब में नदी का लुप्त होना और सूखना कितनों का जीवन तबाह करता है; जीवन, जीविका, जमीर को किस तरह से प्रभावित करके व्यवस्था को लाचार बना देता है, आदि-आदि विषयों-मुद्दों को शामिल किया जा सकता है।
सच है कि प्राकृतिक संसाधनों की समाप्ति के बाद ही समाधान ढूंढे जाते हैं, उस समय हम पछताते हैं। विडम्बना देखिए कि देश में जल प्रदूषण, भूजल शोषण और अतिक्रमण रोकने वाले कानून तो हैं लेकिन उनपर अमल कितना होता है, यह जगजाहिर है।जरूरत है इन पर सख्ती से अमल हो, प्राकृतिक संसाधनों के ह्रास का हिसाब-किताब विधानसभा और संसद में रखकर विकास के नाम पर चल रहे नदी-जल विनाश को रुकवाया जाये। दरअसल नदी पारिस्थितिकी के बिगाड़ से प्राकृतिक ह्रास को आंकड़ों में जानना अब जरूरी हो गया है। इसीलिए अब इसका मूल्यांकन, निगरानी और लेखा रूप में खर्च-लाभ का अनुपात समझना अत्यन्त आवश्यक है।
गौरतलब है देश में बांधों से जितनी बिजली देने का वायदा किया गया था, उसका आधा भी पूरा नहीं हुआ। दूसरी बांधों पर होने वाले खर्च के अंदाजे से दस गुणे से ज्यादा खर्च हो गया है लेकिन लाभ आधे से भी कम मिला। इसी ‘लाभ’ ने प्रकृति और पर्यावरण के ‘शुभ’ को कितनी हानि पहुंचाई, यह गणना अब जरूरी हो गई है। अब समय आ गया है कि परियोजनाओं में आय-व्यय, प्राप्ति और भुगतान के साथ-साथ ‘शुभ’ को भी शामिल किया जाये। शुभ का अर्थ है; राष्ट्रीय हित में प्राकृतिक संसाधनों की समृद्धि। प्रदूषण से रोगियों की तादाद में बेतहाशा बढ़ोतरी भी जल प्रदूषण के खाते में लिखी जाये।
नदी की ऊर्जा, सिंचाई, पेयजल पूर्ति, मनरेगा आदि में पर्यावरणीय प्रभाव को महत्व दिया जाए। यह केवल सार्थकता की तरह नहीं, इसे प्राकृतिक समृद्धि की गणना वाला प्रपत्र बनाकर प्रस्तुत करना चाहिए। भूजल प्रदूषण दूर करने पर कितना समय और शक्ति खर्च होगी, यह भी इन्वायरमेन्टल ऑडिट में शामिल किया जाना जरूरी है। इस हेतु भूसांस्कृतिक क्षेत्रों की विविधता का सम्मान करते हुए पर्यावरणीय ऑडिट की मार्गदर्शिका तैयार करनी होगी। अंकेक्षकों के लिए पारिस्थितिकी प्रशिक्षण केवल जानकारी देने वाला नहीं, अपितु प्राकृतिक विनाश का अहसास कराने वाला होना चाहिए। अंकेक्षक को जब प्रकृति के विनाश का अहसास होगा, तभी वह प्रकृति बचाने का मानस बना सकेगा। जब प्रकृति को अंकों से गणना करने पर लाभ-हानि का अहसास होता है और उसे बचाने या सृजन की दिशा में गति बढ़ती है, तभी वास्तविकताओं का आभास होता है।
अब यदि यह प्रक्रिया शुरू नहीं हुई तो हम बेपानी बन जांएगे। ऐसी स्थिति में ही राष्ट्र विनाश का रास्ता पकड़ते हैं। अब जल के लिए विश्व युद्ध जैसी परिस्थितियां बन रही हैं। नियंत्रक महालेखा परीक्षक की जिम्मेदारी बहुत अहम् होती है। देश को हाानि से बचाना व हमारी गलतियां बताना उनकी जिम्मेदारी है। उसके बाद हमारा धर्म है कि हम गलती सुधारते हैं या उसे दबाते हैं। जिन विकास परियोजनाओं ने देश को तबाह किया है, उन्हें रुकवाना व जन, जल, जंगल, जमीन, जंगली जानवर और जंगलवासियों के जीवन को समृद्ध बनाने का रास्ता सुझाना भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक का अधिकार है। इसीलिए जमीनी हकीकत का पता लगाकर संसद को विकास के नाम पर हो रहे विनाश का अहसास कराना चाहिए। संसद ही प्राकृतिक संसाधनों की समृद्धि का रास्ता निकाल सकेगी। यह रास्ता ग्राम पंचायत, नगर पंचायत, महानगरपालिका, जिला पंचायत, विधानसभा से शुरू किया जा सकता है। इस प्रकार ही प्राकृतिक शोषकों की संख्या कम हो पायेगी।
प्रसन्नता की बात है कि कुछ बरसों से देश के नियंत्रक महालेखापरीक्षक अब विकास के नाम पर हुए प्राकृतिक विनाश का हिसाब लेने लगे हैं। आशा की जाती है कि भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक अब राजकीय निधि के आंकलन को वित्तीय सूचकांको तक सीमित नहीं रखेंगें। अब प्राकृतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक सूचकांकों के आधार पर भी वे इसे करना चाहेंगे। जरूरत है कि अब नदी विनाश को रोकने वाली पर्यावरणीय लेखा प्रणाली लागू की जाये। यदि ऐसा होता है तो देश के खजाने की लूट को रोक पाना और पानी की समस्या का भी हल निकल पाना संभव हो सकेगा। असल में यह संवेदनशीलता जल संरक्षण, नदी संरक्षण, भूजल संरक्षण व झीलों के संरक्षण के प्रति एक नए युग का सूत्रपात करने वाली होगी। इससे प्रकृति प्रेमियों और समाज का नदियों व जल के प्रति जुड़ाव भी बढ़ेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)