कविता : मुखौटे

 कविता 

लेखक : तिलकराज सक्सेना

जयपुर।

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कुछ छिप जाते हैं, कुछ भाग जाते हैं,

कुछ मुखौटे लगाते हैं,

कुछ अपने से कमजोर को दबाकर उसे,

गुमराह कर ख़ुदको बहादुर बताते हैं,

जब वो सच का सामना नहीं कर पाते हैं।

कुछ अपने गन्दे स्वार्थ के लिए,

इतना नीचे गिर जाते हैं कि,

अपनों पर ही झूठे इल्ज़ाम लगाते हैं,

जब वो सच का सामना नहीं कर पाते हैं।

सच को पचाना अगर इतना सरल होता,

तो महाभारत कभी ना हुआ होता,

कांटों का ताज़ सर पर रखकर सफ़र,

अकेले तय करना होता है,

क्योंकि आज़ भीड़ को भी झूठ का मीठा,

रसगुल्ला रखने वालों का साथ पसंद होता है।

दोषी वो भी नहीं जो सच को पहचान ही पाते हैं,

पर वक़्त कैसे माफ़ कर पायेगा उनको,

जो जानबूझ कर भी सच से आँख चुराते हैं,

अंजाम से अंजान ये झूठ का साथ निभाते हैं।