भादवा सुदी अष्टमी को भरेगा मां शाकंभरी का मेला
शैलेश माथुर की रिपोर्ट 

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सांभरझील। यहां से 25 किलोमीटर सुदूर पहाड़ी पर स्थित मां शाकंभरी का भादवा सुदी अष्टमी को वार्षिक मेला भरेगा। मेले से एक दिन पहले आसपास के क्षेत्रों से माता के दरबार के लिए पदयात्रियों का जत्था भी रवाना होगा। सांभर नकाशा चौक स्थित माताजी के चबूतरा से भी पूजा अर्चना के बाद माता के जयकारै लगाते हुए रवाना होंगे। सैकड़ो की तादाद में माता के दर्शन व परिवार की खुशहाली के लिए महिला श्रद्धालु व भक्तगण दूरदराज से भी यहां पहुंचते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि शाक पर आधारित तपस्या के कारण शाकंभरी नाम पड़ा। इस तपस्या के बाद यह स्थान हराभरा हो गया। नंदीकेश्वर मेला कमेटी के अध्यक्ष कुलदीप व्यास ने बताया कि शाकम्भरी को दुर्गा का अवतार भी माना जाता है। 

शाकंभरी माता के देशभर में तीन शक्तिपीठ है। इनमें से सबसे प्राचीन शक्तिपीठ सांभर (शाकंभर) कस्बे में स्थित है। मंदिर करीब 2500 साल से भी अधिक पुराना है। शाकंभरी माता चौहान वंश की कुलदेवी है लेकिन, माता को अन्य कई धर्म और समाज के लोग पूरी श्रद्धा के साथ पूजते हैं। इस मंदिर में पूजा अर्चना का जिम्मा व्यास पुजारी प्रमुखता से अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं। यहां पर मान्यता पूरी होने पर जैसे परिवारों में विवाह, बच्चे का जन्म जैसे शुभ कार्य होने पर यहां धोक लगाने की परंपरा है। मंदिर में भादवा सुदी अष्टमी को मेला आयोजित होता है। दोनों ही नवरात्रों में माता के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से भक्त आते हैं। 

यहां प्रतिमा के संबंध में मान्यता है कि देवी की यह प्रसिद्ध मूर्ति भूमि से स्वत: प्रकट हुई है। विभिन्न लेखों के अनुसार, चौहान वंश के शासक वासुदेव ने सातवीं सदी में सांभर झील और सांभर नगर की स्थापना शाकंभरी माता के मन्दिर के पास की थी। शाकंभरी के नाम से ही शाकंभर नगर प्रसिद्ध हुआ और कालांतर में धीरे-धीरे अपभ्रंश सांभर के नाम से जाना जाने लगा। महाभारत, शिव पुराण और मार्कण्डेय पुराण जैसे धर्म ग्रंथों में माता शाकंभरी का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार,100 साल तक निर्जन स्थान पर जहां बारिश भी नहीं होती थी माता ने तपस्या की थी। इस तपस्या के दौरान माता ने केवल महीने में एक बार शाक यानि वनस्पति का सेवन किया था।