चीता परियोजना पर उठते सवाल : ज्ञानेन्द्र रावत

चीता परियोजना का एक साल 

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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भारत में अफ्रीका के नामीबिया से लाये गये चीतों को आज एक साल पूरा हो गया है। जब ये चीते भारत लाये गये थे तब हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने इन्हें बडे़ जोशोखरोश के साथ समारोह पूर्वक चंबल अंचल के कूनो नेशनल पार्क में छोडा़ था। इसे अफ्रीकी चीतों का यहां पुनर्स्थापन का प्रयास कहें तो कुछ गलत नहीं होगा। उस समय यह दावा किया गया था कि देश से लुप्त प्राय चीतों की प्रजाति को अफ्रीका के नामीबिया से चीतों को यहां लाकर बसाया जायेगा। जाहिर सी बात है और जैसी कि आशा-आकांक्षा थी कि अफ्रीकी चीते भारतीय परिवेश में पल-बढ़कर आने वाले समय में चीतों की एक नयी प्रजाति का निर्माण करेंगे। 

यह भी कि यह परियोजना वन्य जीव प्रबंधन में सुधार का सबब भी बनेगी। लेकिन हुआ क्या? विडम्बना देखिए कि बीते महीनों में उन्हीं चीतों में से तीन शावकों सहित नौ चीतों की कूनो नेशनल पार्क में हुयी मौत ने भारत सरकार के सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया है। वह बात दीगर है कि इन चीतों की मौत पर बहुत बावेला मचा और सरकार ने आनन-फानन में चीता परियोजना में शामिल विशेषज्ञों से इस बाबत जांच कर शीघ्र रिपोर्ट देने को कहा। जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने इस बात का खुलासा करते हुए कहा कि देश में चीता परियोजना की कामयाबी तभी संभव है जबकि यहां कम उम्र के चीते लाये जायें। 

इसके पीछे विशेषज्ञों ने जो कारण गिनाये वह गौरतलब हैं। वह यह कि कम उम्र के चीते नये वातावरण में ढलने के लिए काफी अनुकूल रहते हैं,  वयस्क या बूढे़ चीतों की तुलना में उनके जिंदा रहने की दर भी अधिक होती है और कम उम्र के चीतों की प्रजनन क्षमता भी ज्यादा होती है। साथ ही एक बात और कि कम उम्र के नर चीते अपेक्षाकृत कम आक्रामक होते हैं। रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने उल्लेख किया है कि इससे चीतों की आपसी लडा़ई में होने वाली मौत का खतरा भी कम होता है। ऐसी स्थिति में पशु चिकित्सकों को भी उनका इलाज करने में आसानी होती। उनका यह सुझाव कि रेडियो कालर की रगड़ से गर्दन में बने घाव से फैले  संक्रमण के चलते हुयी चीतों की मौत की स्थिति में हाल के मामलों को देखते हुए खासा महत्वपूर्ण है। उनका यह कहना कि यहां ऐसे चीते लायें जायें जो वाहनों की आवाजाही और मानवीय मौजूदगी के आदी हों। 

अब सवाल यह उठता है कि जब चीता परियोजना में भारतीय वन्य जीव विशेषज्ञों के साथ अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ भी शामिल थे तो उन्होंने नामीबिया से भारत चीतों को लाने से पहले यह सुझाव भारत सरकार को क्यों नहीं दिये जिसका उल्लेख नौ चीतों की अपरिहार्य व संदेहास्पद स्थितियों में हुयी मौतों के बाद उन्होंने अब अपनी रिपोर्ट में दिया है और यदि यह बात सही है कि उन्होंने इस बाबत चीता परियोजना से जुडे़ भारतीय अधिकारियों को चेताया था तो वह कौन सी ताकत थी, वह कौन सी शख्शियत थी जिसने उनकी सलाह को नजरंदाज किया और वहां से उम्रदराज चीतों को यहां लाने पर बल दिया।

गौरतलब है कि चीतों की मौत की जांच करने वाले चीता परियोजना के विशेषज्ञों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है और सरकार को सलाह भी दी है कि साल 2024 के आखिर तक कूनो नेशनल पार्क जैसी कम से कम दो जगहों की और उपलब्धता सुनिश्चित कर लेनी चाहिए जिनका क्षेत्रफल पचास वर्ग किलोमीटर से ज्यादा हो और वहां पर बाढ़ लगायी जा सके। अब यहां एक सवाल और उठता है कि इस बाबत पहले ही केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों ने बाड़ वाले रिजर्व रखने के विचार को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह वन्य जीव संरक्षण के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ है। 

ऐसा उन्होंने स्थिति के अध्ययन  के बिना क्यों किया, यह विचार का विषय है। लेकिन अब बदली स्थिति में कूनो नेशनल पार्क से चीतों के बार-बार बाहर निकल जाने और पार्क की सीमा छोटी पड़ने के मामले में गहन विचार विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया है कि कूनो और शिवपुरी के माधव नेशनल पार्क बीच लगभग 55 हजार हैक्टेयर में फैले सामान्य वन मंडल के जंगल को भी कूनो में शामिल कर लिया जायेगा। 

विशेषज्ञों की मानें तो अफ्रीकी सर्दियों से बचाने की गरज से वहां चीतों में बाल की मोटी परत विकसित करने की प्राकृतिक प्रक्रिया हमारे देश की गीली और गर्म परिस्थितियों में खतरनाक साबित हो सकती है। कारण ज्यादा बाल त्वचा रोग को बढा़वा तो देते ही हैं, वहीं घाव होने की दशा में घाव के ऊपर मक्खियों के बैठने से संक्रमण का  खतरा बढ़ जाता है। इसके साथ उन्होंने अपनी रिपोर्ट में सुपर मॉम के महत्व का जिक्र किया है। तात्पर्य सुपर मॉम  ऐसी मादा चीता होती है जो स्वस्थ और प्रजनन क्षमता की दृष्टि से बेहतर हो। गौरतलब है कि भारत में नामीबिया से लाये चीतों में सात मादा हैं जिनमें से केवल एक में ही सुपर मॉम होने की क्षमता है।

अब हालत यह है कि जंगल में छोडे़ गये चीते नौ चीतों की मौत के बाद बाड़ में कर दिये गये थे जिन्हें अब फिर खुले में छोड़ दिया गया है जैसाकि वन विभाग दावा कर रहा है। फिलहाल चीता परियोजना का सरकार दावा भले करे लेकिन हकीकत में सरकार की चीता परियोजना कठिनाइयों के दौर से गुजर रही है। जहां तक चीता परियोजना के अधिकारियों का सवाल है वह सकते में हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा है कि वह करें तो क्या करें? और सरकार का जहां तक सवाल है, चीतों की मौतों ने उसके सारे सपने चकनाचूर कर दिये हैं। वह तो मार्च 2023 में ही चीतों के आम जनता के दीदार के लिए कूनों को खोलना चाह रही थी। लेकिन उसके बाद चीतों की सेहत और एक के बाद एक चीतों की मौत ने सरकार का सारा खेल ही बिगाड़ कर रख दिया। 

क्योंकि वह तो आगामी विधानसभा चुनाव में श्योपुरी,मुरैना और ग्वालियर अंचल के मतदाताओं को चीतों को सौगात के रूप में पेश करती और चीता पर्यटन के नाम पर इस क्षेत्र के नौजवानों को चीते की रफ्तार से रोजगार सुलभ कराने का उपहार देती सो अलग। गौरतलब यह है कि चीतों की प्रजाति के पुनर्स्थापन से ज्यादा सरकार को पर्यटन की चिंता ज्यादा है। वह यह कि कूनो का माधव नेशनल पार्क तक क्षेत्र बढा़ने से राजस्थान के रणथम्भौर तक 200 किलोमीटर का यह क्षेत्र पर्यटन के लिए मुफीद एक कारीडोर तैयार हो जायेगा।चिंतनीय तो यह है कि सरकार ने नौ चीतों की मौत के बावजूद कोई सबक नहीं लिया है और वह जनवरी 2024 तक अफ्रीका से 12  चीते और लाने का निर्णय कर चुकी है जिनको मध्य प्रदेश में ही मंदसौर व नीमच जिलों की सीमा पर स्थित गांधी सागर अभयारण्य में रखा जायेगा। 

ह बात दीगर है कि 368 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले गांधी सागर अभयारण्य जिसके एक तरफ गांधीसागर बांध का पानी है और तीन ओर से खुला मैदान है, को चेनलिंक जाली लगाकर सुरक्षित बाडे़ की तरह तैयार किया जा रहा है। उम्मीद है वह इस साल के नवम्बर-दिसम्बर महीने तक तैयार हो जायेगा।निष्कर्षतः असलियत में चीता परियोजना अकुशलता और अव्यवहारिकता के चलते नाकामी का परिचायक है। वह बात दीगर है कि यह परियोजना भविष्य में वन एवं वन्यजीव प्रबंधन में सुधार का सबब बने, इसकी कामना जरूर की जा सकती है। लेकिन फिलहाल तो इसकी सफलता पर सवालिया निशान लग चुके हैं। क्योंकि अभी भी कुल पन्द्रह चीते कूनो में शेष हैं। कुल मिलाकर एक हजार करोड़ की इस परियोजना की नाकामी पर सवाल उठना स्वाभाविक है। क्योंकि नामीबिया से चीतों को यहां लाने, अधिकारियों-विशेषज्ञों के वहां जाने, ट्रेनिंग आदि के लिए भेजने,विशेषज्ञों को यहां बुलाने आदि में करोडो़ं की राशि खर्च हुयी है और फिर परिणाम सकारात्मक न मिले तो चिंतित होना स्वाभाविक है। 

आखिर में यह सवाल और संदेह पैदा करता है कि जब नेशनल वाइल्ड लाइफ एक्शन प्लान- 2017-2031 में चीता परियोजना का कोई जिक्र तक नहीं है फिर कौन सा कारण रहा कि आनन-फानन में इसे अमल में लाया गया और खास बात यह कि आखिर चीतों का ही पुनर्वास क्यों? यह सवाल आज भी अनसुलझा है। बहरहाल आने वाला भविष्य वन्य जीव और चीता परियोजना के प्रबंधन की परीक्षा की घडी़ है कि भविष्य में चीता प्रबंधन भारतीय पारंपरिक संरक्षण पद्धति के अनुरूप चलेगा या उसका मॉडल कोई और होगा। इसका खुलासा करना भी जरूरी होगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)