लेखक : राम भरोस मीणा
प्रकृति प्रेमी व स्वतन्त्र लेखक हैं।
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पृथ्वी सभी ग्रहों में श्रेष्ठ हैं जहां प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का आनन्द लिया जा सकता है लेकिन विकास के नाम पर हो रहें अत्याचारों से तंग आकर पृथ्वी ने विनाश के संकेत देना प्रारंभ कर दिया। ऐसे में हमें इसके संरक्षण को ध्यान में रखते हुए विकास करना चाहिए, जिससे सभी जीव जंतु वनस्पतियां सुरक्षित रह सके और एक त्रासदी से बचा जा सके।
वर्तमान समय में वन क्षेत्र एवं कृषि भूमि औधोगिक इकाईयों, आबादी क्षेत्रों के बढ़ते दबाव, खनन गतिविधियों, रेल व सड़क परिवहन के बढ़ते जाल से सिकुड़ते जा रहें हैं वहीं देश दुनिया से छोटे पहाड़ जहां एक तरफ खत्म होते जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ अरावली जैसी पर्वतमालाएं ख़तरे के साथ अपने आपकों नग्न व शर्मिंदा महसूस करने लगी है, प्रकृति के साथ बढ़ते छेड़छाड़ से उपजे प्राकृतिक असंतुलन जल जंगल जमीन नदी पहाड़ के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ उसके प्राकृतिक संतुलन से छेड़छाड़ हुआं से सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए ख़तरे का साफ संकेत है। विकास की दौड़ चाहे जो भी हो सकती है लेकिन आज जो विकास की बातें हो रही है इससे दुसरी तरफ विनाश बढ़ता जा रहा है, अब विनाश जल जंगल जमीन नदी पहाड़ का हो या मानव वन्य जीव जंतु जगत अथवा प्राकृतिक सौंदर्य का विनाश विनाश ही है।
सत्य है हमने चंद्रयान -3 से सफलता प्राप्त कर चन्द्रमा पर मानव को आबाद करने की सम्भावना खोजने लगे, जल वायु (ऑक्सीजन) तलाश रहे हैं, इसमें सफलता भी मिलेगी, नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि विज्ञान केवल मृत्यु को रोकने में असफल रही, बाक़ी सभी क्षेत्रों में अपनी अहम भूमिका निभाने के साथ सफलता प्राप्त कर अपना परचम लहराया है। विकास की अंधी दौड़ व पर्यावरण की अनदेखी के चलते आज मानव विकास से कोसों आगे विनाश की ओर बढ़ गया जो दिखाई देने के साथ साथ प्राकृतिक वातावरण मौसम चक्र में बदलाव लाने लगा है। देश के पुर्वी व मध्य भाग में दिसम्बर व जनवरी के महिने में तापमान बढ़ा है, जुलाई अगस्त में वर्षा उत्तर दक्षिण भाग के साथ पश्चिम राजस्थान व तटीय इलाकों में बादलों के फटने जैसी घटनाएं होने लगी है। हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे समुन्दर आगे बढ़ रहा है। कृषि पैदावार कम होने के साथ बहुत सी फसलें पैदा होने बंद हों गई है।
पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है जिससे धरती का तापमान जहां 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है वहीं 2050 तक 03 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की सम्भावना बनती जा रही जो मानव के साथ सभी जीवों तथा वनस्पतियों के लिए ख़तरनाक होगा। शुद्ध मीठा पानी पेयजलापूर्ति के लिए एक दशक बाद बचना मुश्किल है क्योंकि 70 प्रतिशत पानी का उपयोग औधोगिक इकाईयों, ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में हों रहा है, अनैतिक जलापूर्ति द्वारा पानी का दोहन तेज़ी से बढ़ा वहीं इनसे निकलने वालें गन्दे ज़हरीले पानी का सही से निस्तारण नहीं किया जा रहा। प्लास्टिक कचरा गलियारों मोहल्लों कृषि भूमि वन क्षेत्रों नदी नालों पर 100 प्रतिशत अपना हक़ जमा बैठा। परिवहन के लिए बनें राष्ट्रीय राजमार्ग स्टेंट हाईवे जिला व ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ते जाल ने 15 से 20 प्रतिशत भूमि कृषि वन अभ्यारण्य क्षेत्रों से कोस ली। शुद्ध वायु जों प्राणों के लिए आवश्यक है 40 प्रतिशत गायब हो गई राष्ट्रीय पार्कों की बदोलत हमें जीवन जीने में मदद मिल रही जल्दी निराशा में बदल रहीं हैं ऐसे संकेत दिखाई दे रहे हैं क्योंकि वन सम्पदा खत्म होती जा रही है।
विकास का मामला यहीं पुरा नही होता शहरों, औधोगिक इकाईयों के नजदीक कचरे के पहाड़ दिखाई देने लगे हैं। नदियां नाले कृषि व आबादी क्षेत्रों से गायब होने के साथ गन्दे नाले चारों ओर दुर्गंध लिए किचड़ के साथ बह रहें हैं। प्राणवायु देने वाले वृक्ष वनस्पतिया जों बहुतायत में होने चाहिए खत्म हो गये, अंग्रेजी घास जूलीफ्लोरा के पेड़ दिखाई देने लगे हैं। प्राकृतिक वनस्पतियां नष्ट हो गई है। हमारे चारों ओर जहरीली गैसों का अंबार छा गया है। प्राकृतिक जों प्रकृति ने हमें दिया नष्ट होने के कगार पर पहुंच गए हैं। आखिर इस विकास की दौड़ में पृथ्वी जैसा दुसरा ग्रह खोजना बहुत जरूरी है अपनों को बचाने के लिए, लेकिन यह साफ़ नहीं होता की पृथ्वी पर बढ़ते अनैतिक अनावश्यक विकास से उपजे विनाश में इस गृह पर मोजूद सभी प्राणियों को सुरक्षित रखने का कोई उपाय खोजा है या चन्द लोगों को सुरक्षित रखने अथवा नई दुनिया बसाने के लिए यह सब। आज हिमाचल कुल्लू में भूस्खलन से उपजी तबाही हों, हिमालय क्षेत्र में त्रासदी हों या बादलों का फटना, रेगीस्तान में बाड़ आना अनैतिक विकास का एक उदाहरण है।
व्यक्ति तथा विज्ञान को अपने आविष्कार विकास और प्रयोग के लिए पृथ्वी सबसे अच्छा ग्रह है जहां प्रकृति ने हमें सर्व साधन सम्पन्न बनाया। सभी सुविधाएं दी, जल जंगल जमीन नदी पहाड़ वन वन्यजीव वनस्पतियां, खनिज सम्पदा जो भी आवश्यक थे उपहार स्वरूप प्राप्त हुएं। आज आवश्यकता है कि हम इन सभी का अत्यधिक दोहन ना करें, छेड़छाड़ ना करें, प्रकृति के अनुकूल विकास करें ताकि हम जिंदा रह सकें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं लेखक के अपने निजी विचार है।)