जातिविहीन समाज की बात कोई दल नहीं करता : डा. सत्यनारायण सिंह

जातिविहीन समाज का क्या हुआ?

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी एवं पूर्व सदस्य सचिव- राज.राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग हैं 

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स्वतंत्रता के पश्चात संविधान में जातिविहीन व वर्गविहीन समाज की संरचना का संकल्प लिया गया व हितकर भेदभाव की नीति अपनाई गई। स्वतंत्रता के बाद वयस्क मताधिकार पद्धति ने जाति प्रथा को सबसे जबरदस्त चुनौती दी और वयस्क मताधिकार पर आधारित राजनैतिक प्रणाली में जाति की भेमिका महत्वपूर्ण बन गई। वर्तमान राजनीति के कारण निम्न जातियों के मध्य समानता में कुछ समायोजन हुआ परन्तु जातिवाद दूसरे रूप में उभर गया।

जातियां हिन्दू समाज रूपी भवन की इमारती ईंटें है। बिना जाति व वर्ण व्यवस्था के हिन्दू समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। सदियों से चली आ रही वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा में अनेक प्रकार के गुण-दोष विद्वानों व समाज सुधारकों ने विश्लेषित किये है परन्तु वर्ण व्यवस्था को भगवान द्वारा निर्मित बताकर उसे धर्म से जोड़ दिया गया व उसे स्थाई रूप से दृढ़ किया गया। सदियों से निर्योग्यताओं और निषेधों के बीच गुजरने के परिणामस्वरूप अधिकांश जातियों में घोर अशिक्षा व अज्ञानता रही। शूद्र वर्ग निर्धन, अशिक्षित बनकर पशुवत जीवन जीता रहा।

महात्मा गांधी द्वारा चलाये जा गये अछूतोद्वार के कार्यक्रम व अम्बेडकर द्वारा लड़ी गई लड़ाई में छोटी जातियों में जागृति पैदा की। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कार्यभार सम्भालने के पश्चात अपनी पहली प्रेस कान्फ्रेंस में कहा था कि इस देश में आर्थिक पिछड़ापन व गरीबी हटाने से मुश्किल प्रचलित धर्मो व जातियों को जोड़ना है। महात्मा फुले के सामाजिक आन्दोलन से अछूत वर्गो में चेतना एवं आत्मविश्वास पैदा हुआ। महात्मा फुले, विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी, अम्बेडकर व जवाहर लाल नेहरू ने वर्ण व्यवस्था एवं जातीयता पर गहरी चोट कर विरोध किया। पेरियार ई.वी. रामास्वामी ने अपने जीवन की शुरूआत कांग्रेस के साथ की परन्तु ब्राहमण विरोधी, उत्तर विरोधी और हिन्दी विरोधी विचारधारा के कारण कांग्रेस छोड़ दी।

प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग ने भारत में 2399 पिछड़ी जातियों व समुदायों की सूची तैयार की परन्तु जातिवाद से बचने के लिए जाति आधार पर पिछड़े वर्गो की सूची नहीं बनाने का निर्णय लिया। देश में 11 राज्यों में 18 आयोग नियुक्त किये गये। पं. जवाहरलाल नेहरू की सरकार का पूरा ध्यान मुख्यतया समाज के विभिन्न वर्गो के बीच आर्थिक विषमताओं को दूर करने जैसी राष्ट्रीय आवश्यकता पर था। जातिय आधार पर संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद पृथक से केवल सामाजिक, शैक्षणिक दृष्टि से जातिवाद से बचने के लिए विचारवादी किया गया। आर्थिक मानदण्ड पर अधिक जोर दिया गया। पं. जवाहरलाल नेहरू ने सभी राज्य सरकारों को लिखा कि भारत सरकार के विचार में यह अच्छा होगा कि यदि आर्थिक मापदण्ड लागू किया जाय। राज्यों को छूट दे दी गई।

जवाहरलाल नेहरू से इन्दिरा गांधी की सरकार तक कोई केन्द्रीय पिछड़ा वर्ग सूची जाति आधार पर नहीं बनी। जनता पार्टी की सरकार ने 1977 में सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति, रोजगार व शिक्षा के क्षेत्र में विशेष सुविधाएं देने की घोषणा की। चुनाव पश्चात 20 दिसम्बर 1978 में मोरारजी देसाई ने मण्डल आयोग का गठन अनुच्छेद 340 के तहत किया। नेहरू सरकार ने पिछड़ेपन के लिए मानदण्ड के रूप में जाति को माने जाने का विरोध किया।

आजादी के आन्दोलन में पली कांग्रेस को अखिल भारतीय व लम्बी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। कांग्रेस से स्पर्धा करने वाले दलों का भी स्वरूप स्वाभाविक रूप से अखिल भारतीय था। चाहे व साम्यवादी दल था, चाहे समाजवादी, चाहे नवोदित भारतीय जनसंघ था। अखिल भारतीय दलों को भी विकसित करने के लिए भारी तपस्या की जरूरत थी। कांग्रेस को यह अखिल भारतीयता आजादी के आन्दोलन की विरासत के रूप में प्राप्त थी। शेष दलों की अखिल भारतीयता का आधार कांग्रेस से स्पर्धा का आधार था। भारतीय जनसंघ इसका अपवाद था क्योंकि इस दल का जन्म ही प्रखर राष्ट्रवाद के नाम से हुआ था जिसका आदर्श अखण्ड भारत की अवधारणा थी।

1947 से 1967 के दो दशकों की राजनीति ने देश में एक कुण्ठा उत्पन्न की, वह यह थी कि कोई भी एक अकेला दल कांग्रेस को पराजित नहीं कर सकता। इस कुण्ठा ने भारत की राजनीति में एक नकारात्मकता का बीजारोपण किया। वह बीज था गैर कांग्रेसवाद, जातिवाद व क्षेत्रवाद। गैर कांग्रेसवाद ने गठबंधन की जो राजनीति उत्पन्न की उसने दलों के सैद्धान्तिक व अखिल भारतीय अधिष्ठानों को क्षरित किया। जातिवाद, क्षेत्रवाद आधारित गठबन्धता का अधिष्ठान प्राप्त कर क्षेत्रीय, जातीय व वैयक्तिक गुट राजनैतिक दल की संज्ञा प्राप्त कर गये तथा भारत का राजनीतिक परिदृश्य जातीय दलों के दलों में भर गया। साम्यवादी दल विभक्त होकर क्षेत्रीय दल में परिणित हो गया। समाजवादी दल गैर कांग्रेसवाद के घालमेल में तिरोहित हो गया। एक बार तो अखिल भारतीय अधिष्ठान को अपनी श्रद्धा मानने वाले दल भारतीय जनसंघ भी तिरोहित हो गया। तत्पश्चात अवसरवादी गठबन्धन की राजनीति को ही तोड़कर धर्म आधारित हो गया। समाजवादी दल, स्वतंत्र पार्टी, कांग्रेस(ओ), लोक दल आदि सभी गैर कांग्रेसवाद की बली चढ़ गये।

अशुद्ध एवं विकृत राजनीति की स्पर्धा में किसी भी दल का निरन्तर परिशुद्ध बने रहना कठिन है। जातिवाद व साम्प्रदायवाद, धनबल, बाहुबल से भाजपा की भी अखिल भारतीय पहचान पर ही सवालिया निशान लग गया है। स्वतंत्र भारत में जातिविहीन समाज की संरचना की परिकल्पना की गई थी और सामाजिक विकास इस तरह होगा कि जाति व्यवस्था, जातीय दुराग्रह, जातीय पहचाने नष्ट हो जायेगी परन्तु उसके विपरीत राजनीतिक, सामाजिक संस्कृति जातियता साम्प्रदायिकता की भोंपू बनी रही। सामाजिक व्यवस्थाएं ज्यों की त्यों बनी रही। नई व्यवस्थाएं नहीं बनी। समूचा संघर्ष जाति के नाम पर सत्ता हथियाने का हो गया। वोट की राजनीति ने इस संघर्ष को ओर अधिक विकराल बना दिया।

राजनीतिक, सामाजिक सत्ता के संघर्ष में जातियां प्रमुखता से उपर आ रही है जिसके लिए जाति मात्र राजनीतिक सत्ता हथियाने का सिक्का भर है। जातीय पहचान के दुराग्रह, राजनीतिक शक्ति के सिक्के बन गये। टिकट वितरण, वोट डालना जातीय संरचना के भीतर ही सीमित हो गया। जाति के बदलते चरित्र राज्य सत्ता व आर्थिक सत्ता के साथ इसके सम्बन्धों पर नये सिरे से सोचे जाने की जरूरत है। सच तो यह है कि जाति ने एक नई दृढ़ता को प्राप्त कर लिया है। ब्राह्मणवाद, मनुवाद, आरक्षण की बात की जाती है, जातिविहीन समाज की बात कोई दल नहीं करता। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)