जातिय बंधन आखिर तोड़ेगा कौन ?

लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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जातियॉं हिन्दू समाजरूपी भवन की इमारती ईंटें है बिना जाति व वर्ण व्यवस्था हिन्दु समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। यह व्यवस्था अगडे, पिछडे, ऊँच नीच वर्ग की जननी रही है। आदर, अनादर की श्रृंखला सर्वदा के लिए अटूट और निम्नतर कर दी गई।शूद्रों में भी अछूत व सछूत का भेद हो गया। सदियों से निर्योग्यताओं और निषेधों के बीच गुजरने के परिणाम स्वरूप दलित व पिछड़े वर्ग की अधिकांश जातिया घोर अशिक्षा व अज्ञानता में रहीं। श्रमजीवी होने के कारण निर्धारित पेशे के कारण शिक्षा का अभाव रहा। कर्म, पेशे व रोजगार के आधार पर अछूत व सछूत निर्मित हो गये। 

हर काल में इस भेदभाव मूलक जाति व्यवस्था का विरोध हुआ, महात्मा बुद्ध, संत कबीर, गुरू नानक, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, ज्योतिबा फुले और महात्मा गाँधी ने इसकी कट्टरता पर प्रहार किये। अंग्रेजों द्वारा बनाये गये कानून, जनशिक्षा व आधुनिक विचारधारा का प्रसार, रेल, समाचार पत्र आदि का प्रचलन, होटल, औद्योगिकरण, शहरीकरण, आदि के कारण जाति बंधन के हिसाब से भेदभाव कुछ हद तक कम हो गया। 

मानवता की बराबरी का सिद्धांत मानव सभ्यता के विकास की पहली सीढ़ी है। जाति व्यवस्था की संकीर्णाता, कट्टरता, असहिष्णुता के कारण बडे़ पैमाने पर दलित व पिछड़ी समझे जाने वाली जातियों के लोगों ने मुसिलिम व ईसाई धर्म स्वीकार किया।  जाति प्रथा का प्रभाव उन धर्मां पर भी पड़ा, असमानता व ऊँच नीच  का भेदभाव बना रहा।  

देश के स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सेनानी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, राष्ट्रनायक पं.जवाहरलाल नेहरू, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, राममनोहर लोहिया, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि राष्ट्रीय नेताओं द्वारा सभी वर्गों एवं जातियों की भागेदारी व राष्ट्रीयता की भावना से जातिवाद की प्रखरता में कमी आई। महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गये अूछूतोद्धार के कार्यक्रम व डॉ. अम्बेडकर द्वारा उनके अधिकारों की लडाई ने छोटी जातियों में जागृति पैदा की तथा छुआछूत व भेदभाव समाप्त करने हेतु कानून बनाये गये। स्वतंत्रता के बाद व्यस्क मताधिकार पद्धति ने जाति प्रथा को जबरदस्त चुनौती दी परन्तु वयस्क मताधिकार पर आधारित राजनैतिक प्रणाली में जाति की भूमिका महत्वूपर्ण बन गई। जातिय संस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआ। 

सीमितरूप से  सामाजिक भाव का अधिकार कमजोरों, निर्धनों, निराश्रितों और शोषित व्यक्तियों के अधिकार के रूप में परिभाषित किया गया है। दलित व पिछ़ड़े उच्च व सम्मान जनक स्थान पाने लगे जिसे वे  धार्मिक व सामाजिक मध्यमों के जरिये प्राप्त नहीं कर सकते थे। अतः उच्च व निम्न जातियों के मध्य समानता में कुछ समायोजन हुआ परन्तु जातिवाद दूसरे रूप में उभरा ? फलस्वरू भेदभापूर्ण व्यवस्था में निम्न जातियां शैक्षणिक, आर्थिक, राजनैतिक दृष्टि से पिछड़ी ही बनी रहीं।

हमारे संविधान निर्माता समाज के कमजोर वर्गों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सजग थे। संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 29 में सभी नागरिकों की शिक्षा, रोजगार व अन्य सुविधाओं को समान रूप से देने की बात कही है। सामाजिक तथा शैक्षणिकरूप से पिछडे हुए वर्ग की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बने। कमजोर वर्गों के शैक्षणिक तथा आर्थिक हितों की विशेषरूप से रक्षा करने और उनका विकास करने के लिए राज्य को अधिकार दिए गये हैं। उसको जनसेवा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान किया गया है। अवसर की समानता, व्यवहार की समानता व परिणाम की समानता संविधान का मुख्य मन्तव्य है। परिणाम की समानता के लिए आवश्यक है दलित, पिछडे नागरिकों को प्राथमिकता दी जाय। 

एक दलीय शासन का काल समाप्त हो रहा है ऐसे तत्व मजबूत हो रहे हैं जो राष्ट्रीय दलों को हासिंए पर लाना चाहते हैं। क्षेत्रीय दल वर्गीय (जातियों) को मुख्य धारा में लाना चाहते हैं। सांस्कृतिक रूप से एकात्म लेकिन राजनैतिकरूप से विभक्त भारत को साम्राज्यवादी विदेशी आक्रमणो व नियंत्रण के खिलाफ एक राष्ट्र का स्वरूप देने में महात्मा गाँधी का प्रमुख योगदान रहा था। भारतीय पुर्नजागरण आन्दोलन वन्दे मातरम व भारत माता की जय के नारों के द्वारा बढ़ा परन्तु आज भारत में हिन्दु व मुसलमानों के नाम पर तनाव प्रकट होता रहता है। 

आजादी के आन्दोलन से उत्पन्न कांग्रेस को अखिल भारतीय दल की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अन्य राजनैतिक दलों का आधार कांग्रेस स्पर्धा व विरोध रहा। राजनीति में नकारात्मका का बीजारोपण हुआ। गैर सैद्धांतिक गठबन्धन क्षेत्रीय दलों में परिणित हो गये। अब गैर भाजपावाद का विरोध शुरू हो गया क्योकि उसने हिन्दु महासभा की प्रतिछाया का रूप धारण कर लिया। इनकी श्रद्धा अब भारत माता की भक्ति नहीं है नकारात्मकता का बीजारोपण कर ऐन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त कराना है। भारत की खण्ड खण्ड पहचान का प्रतिनिधि होने का दावा कर रही है परन्तु वास्तविकता में  संघवाद के नाम पर देश को खण्ड खण्ड करने व भारत की एकात्मा को नष्टकर धार्मिक साम्प्रदायिकता को बढ़ा रही है

स्वतंत्र भारत में एक बेहतर समाज की परिकल्पना यह थी कि इसमें जातियों के बीच कोई ऊँच नीच भेद नहीं होगा, कोई छुआछूत नहीं होगी, कोई आर्थिक विषमता नहीं होगी, किसी भी स्तर पर जाति के नाम पर कोई भेद भाव नहीं होगा। और अंततः सामाजिक विकास इस तरह होगा कि जाति व्यवस्था, जातिय दुराग्रह, जातिये पहचाने नष्ट हो जायगी और एक जातिविहीन समाज की नवसंरचना होगी। 

दबी कुचली जातियों के साथ हितकर भेदभाव कर आरक्षण के नाम पर सामाजिक, शैक्षणिक, अर्थिक, राजनीतिक अवसर उपलब्ध हों, यह पृथक बात है परन्तु जिन कारणों से भारतीय समाज विभाजित था जिन व्यवस्थाओं ने उन्हें विभाजित किये रखा जो राजनीतिक सामाजिक व्यवस्थाओं ने इसको बनाया व कायम रखा वह सामाजिक संस्कृति क्या इन्हें नष्ट कर इनके स्थान पर ये समाज की परिकल्पना लोकतांत्रिक व्यवस्था में कर पायेगी? आरक्षण व्यवस्था ने दलित व पिछड़ी  जातियों के भेदभाव को समाप्त नहीं किया अपितु कायम रखा। समूचा संघर्ष आरक्षण की खींचतान में सिमट गया। वोट की राजनीति में इस संघर्ष को और अधिक नुकसान पहुंचाया, समाप्त कर दिया। आजकल अपनी अपनी जातियों को नीचा दिखा कर अधिक से अधिक आरक्षण की मांग हो रही है जातियता समाप्त करने की नहीं।

वे जातियां प्रमुखता से ऊपर आ रही है।  जिनके लिए जाति मात्र राजनीतिक सत्ता हथियाने का साधन है जाति से बाहर आने की नहीं। भारतीय समाज के सबसे  निचले स्तर पर खडे लोग ही है चाहे दलित हों या पिछड़े उनका सामाजिक स्तर  ज्यों कि त्यों बना हुआ है। केवल आरक्षण की रोटियां लपकने वाली जातियां जातिवाद की व्यवस्था नहीं बदल सकती । 

सच तो यह है कि जाति प्रथा ने एक नई दृढता को प्राप्त कर लिया प्रतीत होता है। अब ब्राह्मणवाद या मनुवाद की निंदा की जाती है किन्तु जातिविहीन समाज की बात नहीं की जाती। दिलचस्प बात यह है कि यह बात न तो प्रगतिवादी करते हैं जो सिद्धांतः सभी प्रकार के सामाजिक ओर आर्थिक वर्गों के  के विरूद्ध है ओर न भाजपा के नेता, जो हिन्दु एकता की कामना करते हैं। यदि जातियां जडीभूत वर्ग है, तो फिर वर्ग संघर्ष का एक रूप जाति व्यवस्था की समाप्ति क्यों नहीं होना चाहिए परन्तु ऊँच नीच बने रहना ही शक्ति है। 

जो चीज उभर रही है और मजबूत हो रही है वह जातियों सम्प्रदायों के आधार पर की जाने  वाली राजनीति द्वारा निरंतर फैलाया जा रहा है विद्वेष। यह जातियों के सामाजिक के बजाय राजनीतिक इकाई बनने का चिन्ह है। चूंकि विद्वेष की इस संस्कृति में सामान्य सामाजिक हितों के बजाय या इनकी कीमत पर विशेष जातिय हितो पर जोर दिया जाता है। इससे प्रत्येक जाति की अपनी विकृतियां बढ़ रही हैं और किसी बड़े स्तर पर कोई सामाजिक हस्तक्षेप सम्भव नहीं हो पा रहा है। जाति के नाम पर गोलबन्दी हो रही है। सामाजिक न्याय के नाम पर जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। अम्बेडकर के संविधान पर बना लोकतंत्र खतरे में है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)