जलवायु परिवर्तन और जल संकट से जूझती दुनिया : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात पर्यावरणविद हैं।)

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जल संकट अकेले हमारे देश की ही नहीं, समूची दुनिया की समस्या है। यदि संयुक्त राष्ट्र की मानें तो आज दुनिया की तकरीबन 26 फीसदी आबादी स्वच्छ पेय जल संकट का सामना करने को विवश है। यही नहीं आने वाले 27 वर्षों यानी 2050 तक दुनिया की 1.7 से 2.4 अरब शहरी आबादी पेय जल संकट का सामना करने को विवश होगी। इससे सबसे ज्यादा भारत के प्रभावित होने की आशंका है। साथ ही दुनिया की 46 फीसदी आबादी स्वच्छता से काफी दूर है। इस बारे में यूनेस्को की महानिदेशक आंड्रे एंजोले का कहना है कि हालात इतने गंभीर हैं कि इस वैश्विक संकट के नियंत्रण से बाहर जाने से पहले मजबूत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तत्काल स्थापित करने की जरूरत है। 

विश्व जल विकास रिपोर्ट 2023 के अनुसार 2030 तक दुनिया के सभी लोगों को स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता की उपलब्धता का लक्ष्य काफी दूर है। असलियत यह है कि बीते 40 वर्षों में दुनिया में जल के उपयोग की दर प्रति वर्ष एक फीसदी बढ़ी है। दुनिया की आबादी बढ़ने और सामाजिक -आर्थिक बदलावों को देखते हुए इसके वर्ष 2050 तक इसी तरह बढ़ने के आसार हैं। 

जहां तक एशिया का सवाल है, एशिया की तकरीबन 80 फीसदी  खासकर पूर्वोत्तर चीन, भारत और पाकिस्तान की आबादी भीषण पेयजल संकट से जूझ रही है। इस संकट से जूझने वाली वैश्विक शहरी आबादी वर्ष 2016 के 93.3 करोड़ से बढ़कर 2050 में 1.7 से 2.4 अरब होने की आशंका है जिसकी सबसे ज्यादा मार भारत पर पड़ेगी। इस वैश्विक जल विकास रिपोर्ट के प्रधान संपादक रिचर्ड कानर की मानें तो यदि इस अनिश्चितता को खत्म नहीं किया गया और इसका शीघ्र समाधान नहीं निकाला गया तो निश्चित ही इस भयावह वैश्विक संकट का सामना करना बेहद मुश्किल होगा। 

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस भी कहते हैं कि पेयजल मानवता के लिए रक्त की तरह है। इसलिए जल की बर्बादी रोकना और संचय बेहद जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि जलवायु परिवर्तन और मौसम के बदलाव के चलते दुनिया में जल सुरक्षा के खतरे दैनंदिन तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। इससे दुनिया के पांच अरब लोगों पर यह संकट भयावह रूप अख्तियार करता जा रहा है। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा किये अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रकोप के कारण पानी की यह विकट स्थिति होती जा रही है। 

कारण लोगों को अभी भी मौसम से जुड़े पर्यावरणीय खतरों की कोई जानकारी नहीं है। यही नहीं वे जलवायु परिवर्तन और जल सुरक्षा के बीच के सम्बन्ध को भी जानते तक नहीं हैं। इस अध्ययन में दुनिया के 142 देशों में वैज्ञानिकों ने शोध किया और इसमें 21 देश निम्न आय वर्ग वाले और 34 देश निम्न मध्यम आय वर्ग वाले शामिल थे। इसमें शोधकर्ताओं ने 2019 के लायड्स रजिस्टर फाउण्डेशन वर्ल्ड रिस्क के सर्वेक्षण डाटा का भी इस्तेमाल किया था। वैज्ञानिकों के अनुसार अगले 20 वर्ष में यह संकट भयावह रूप अख्तियार कर लेगा और लोगों के लिए पानी गंभीर खतरा बन जायेगा।शोधकर्ता जोशुआ इनवाल्ड का कहना है कि सबसे बड़ी जरूरत पर्यावरणीय मुद्दों को ठोस और प्रासंगिक बनाने की है तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। 

पानी की कमी से खाद्यान्न उत्पादन और आपूर्ति पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा,  इस संदर्भ में ग्लोबल कमीशन आन द इकोनामिक्स आफ दी वाटर जो दुनिया के विज्ञान, अर्थशास्त्र और नीति निर्माण के क्षेत्र के 17 विशेषज्ञों का समूह है, का मानना है कि पानी की कमी और लगातार बढ़ती गर्मी के कारण आने वाले दो दशकों में जहां खाद्य उत्पादन में कमी आयेगी, वहीं भारत को 2050 तक खाद्य आपूर्ति में 16 फीसदी की कमी का सामना करना पड़ेगा। साथ ही खाद्य असुरक्षित आबादी में जहां 50 फीसदी की बढ़ोतरी होगी, वहीं इस दशक के आखिर तक समूची दुनिया में ताजा पानी की आपूर्ति की मांग 40 फीसदी तक बढ़ जायेगी। इसके अलावा चीन और आसियान देशों सहित कई एशियाई देश जो वर्तमान में खाद्य निर्यातक हैं, 2050 तक शुद्ध रूप से खाद्य आयातक बन जाएंगे। 

जल आपूर्ति उपलब्धता को लें, तो हमारे देश की जल आपूर्ति की उपलब्धता 1100 से 1197 बिलियन क्यूबिक मीटर के बीच है जो 2010 के मुकाबले 2050 तक पानी की मांग दोगुना होने की उम्मीद है। दरअसल यह संकट सामाजिक और स्वास्थ्य का भी संकट है। क्योंकि पिछले 50 वर्ष में जल संबंधित आपदाओं जैसे बाढ़,  सूखा, तूफान और अत्याधिक तापमान बढ़ोतरी के चलते दुनिया में लगभग 20 लाख लोगों की मौत हुयी है। यह स्थिति दिनोंदिन और खराब होगी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि दुनिया में तकरीबन दो अरब लोग  दूषित पानी पीने को मजबूर हैं जिससे दुनिया में पानी से संबंधित बीमारियों का खतरा तेजी से बढ़  रहा है। 

आंकड़े गवाह हैं कि हर साल लगभग 14 लाख से ज्यादा लोग जलजनित बीमारियों से मरते हैं। 7.4 करोड़ लोगों की उम्र गंदे पानी के उपयोग से जन्मी बीमारियों से घट रही है। इसमें घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के समुचित ट्रीटमेंट की व्यवस्था न होना भी एक वजह है। और 2070 तक इन जल संबंधी आपदाओं के कारण 70 करोड़ लोग विस्थापित होंगे। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। यूनिसेफ़ के अनुसार बीते साल की विनाशकारी बाढ़ के कारण पाकिस्तान में अभी भी तकरीबन एक करोड़ लोग सुरक्षित पेयजल की पहुंच के बिना बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में रहने को विवश हैं। उस बाढ़ में 1,739 लोग मौत के मुंह में चले गये थे जिनमें 647 बच्चे और 353 महिलाएं शामिल थीं। गौरतलब है कि पिछले साल बाढ़ से पहले पाकिस्तान में जल प्रणाली का केवल 36 फीसदी ही मानव उपयोग के लिए सुरक्षित माना जाता था। 

अपने देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा कि हमारे यहां जल प्रबंधन कभी मुद्दा रहा ही नहीं। फिर वह चाहे केन्द्र हो, चाहे राज्य स्तर पर जल प्रबंधन पर राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव भी एक अहम कारण रहा। जबकि हमारे यहां जल प्रबंधन, जल तकनीकविदों, विशेषज्ञों की कोई कमी नहीं रही है। उस स्थिति में जबकि हमारे देश में जल संचय की परंपरागत विधियां और प्रणालियों की भरमार थी। आजादी के बाद जब से जल प्रबंधन सरकार के हाथ में आया, आम भारतीय ने अपने परंपरागत जल प्रबंधन से खुद को अलग कर लिया और यह जिम्मा सरकार के ऊपर छोड़ दिया। नतीजा सबके सामने है। हर व्यक्ति पीने के पानी के लिए नगर निकाय के नल पर पूरी तरह निर्भर हो गया और उसने अपने पुराने जल स्रोतों कुंओं, तालाबों, बाबडि़यों और जीवनदायिनी नदियों के महत्व को नजरंदाज करना शुरू कर दिया। नतीजतन कुंए, तालाब, बाबडि़यां उसके लोभ का शिकार होकर इतिहास की वस्तु बनते चले गये और नदियां मैला ढोने वाली मात्र गाडि़यां बनकर रह गयीं। 

तकरीबन तीन दशक पहले एक समय ऐसा भी आया कि नगर निकाय नल से जलापूर्ति करने में नाकाम होने लगे और मानव ने अपनी जरूरत के लिए पाताल के पानी को खींचना शुरू कर दिया। इसमें 60 के दशक में डीजल इंजन की क्रांति को नकारा नहीं जा सकता। आज हालत यह है कि नगर निकाय जलापूर्ति करने में असमर्थ हैं और भूजल के अति दोहन का परिणाम देश की राजधानी सहित कोलकाता, हैदराबाद, अहमदाबाद, देहरादून, लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, आगरा, गाजियाबाद, फरीदाबाद, मेरठ, प्रयागराज, ग्वालियर, अमृतसर, लुधियाना, चंडीगढ़, कोयम्बटूर, विशाखापटनम, विजयवाडा, बडो़दरा, जयपुर, जोधपुर आदि बड़े शहर पानी के मामले में भूजल पर ही निर्भर हैं। उसका परिणाम है कि इन शहरों का भूजल स्तर कहीं 20 तो कहीं 25 मीटर नीचे चला गया है और ये शहर डार्क जोन की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं। 

आज हम केपटाउन का हश्र देख रहे हैं जहां पानी का राशन कर दिया गया है। एक व्यक्ति को 25 लीटर पानी ही दिया जा रहा है। वहां 10 लाख पानी के कनैक्शन काट दिये गये हैं। पानी के वितरण स्थलों पर सेना तैनात कर दी गयी है। इससे हमें सबक लेना चाहिए और भविष्य कैसा होगा, इस दिशा में विचार करना होगा। देखा जाये तो असलियत में हमारे देश में भूजल 67 फीसदी सिंचाई और 80 फीसदी पीने के पानी की जरूरत पूरा करता है। देश की राजधानी दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान 100 फीसदी और उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, चंडीगढ़ और पुड्डिचेरी 60 से 100 फीसदी तक भूजल पर ही निर्भर हैं। देश के शहरों में 50 फीसदी से ज्यादा जलापूर्ति भूजल से ही होती है। 

हरियाणा में तो 80 फीसदी जलापूर्ति भूजल से ही होती है। फिर अधिक पानी वाली गन्ना व धान जैसी फसलें भूजल स्तर के भयावह स्तर तक गिरने में प्रमुख भूमिका निबाह रही हैं। सबसे बड़ा दुर्भाग्य बढ़ती जनसंख्या है जिस पर अंकुश की बात बेमानी है। जाहिर सी बात है कि संसाधन सीमित हैं,वह चाहे जल हो, वनस्पति हो, वृक्ष हों या खाद्यान्न, उनके उपयोग की सीमा तय की जानी चाहिए। इस दिशा में वह चाहे जल जीवन मिशन सहित भारत सरकार की अनन्य योजनाओं और जल संरक्षण के प्रयासों की सफलता आबादी पर नियंत्रण, बेहतर वर्षा जल संचयन, नदी जल प्रबंधन और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा, जल स्रोतों तथा भूजल भंडारों का पेट भरे यानी जितना लो उससे अधिक धरती का पानी का भंडार भर दो व दैनंदिन जीवन में जल उपयोग में मितव्ययता के बिना असंभव है। इसके बिना जल संकट के समाधान की आशा बेमानी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)