लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं
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भारत में 1931 की जनगणना में जाति की गणना की गई थी। आजादी के बाद सिर्फ अनुसूचित जातियों व जनजातियों की गणना की जाने लगी। 2001 में जनगणना आयुक्त (महापंजीयक) ने जाति जनगणना फिर लागू करनी चाही थी परन्तु उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया। 2011 में व्यापक सामाजिक, आर्थिक व जाति की जनगणना की गई। एकत्रित सामाजिक, आर्थिक व जनगणना के आंकड़े गरीबी उन्मूलन कार्यक्र में आवश्यकतानुसार उपयोग में लिये गये परन्तु एसईसीसी का जाति मूल डेडा कमियां बताई जाकर अनुपयोगी करार दिया गया।
इसके कारणों के संबंध में कहा गया मनु ने 61 जातियों का उल्लेख किया तो गुप्तकाल में इसकी संख्या सौ के पार चली गई। 1931 में भारत में हुई पहली जनगणना में जातियों की कुल संख्या 4147 बताई गई जबकि 2011 में आंकड़े 46 लाख से भी अधिक जातियां दर्शाते हैं। जातियां उपजातियों में विभाजित हो गई। कुनबों में बंटी जातियों ने पृथक जाति नाम अंकित कराये, कई मामलों में परिवारों ने जाति बताने से इन्कार कर दिया। उक्त सूचियों को दुरूस्त करने की कोई कोशीश नहीं हुई।
2023 की जनगणना की मकान की सूची बनाने का काम तो पूरा कर लिया गया है। भारत सरकार ने जातियों की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति की गणना करने का निश्चय नहीं लिया गया जबकि जाति जनगणना केवल सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए बल्कि नीति निर्धारकों के लिए महत्वपूर्ण है। ओबीसी नेताओं को जाति जनगणना के मुद्दों में पिछड़ों की एकजुटता की नई संभावना दिख रही है इससे भाजपा में शक-सुबहे पैदा हुए है। पिछड़ी जातियां यदि मजबूत होती है, उनकी संख्या व शक्ति बढ़ती है, वे एक मनसूबे के साथ आगे बढ़ती है तो भाजपा के चुनावी संभावनाओं पर काफी असर पड़ सकता है। जाति जनगणना की मांग साम्प्रदायिकता, ग्रानी कैपटलिज्म व कम्यूलिज्म के फलस्वरूप बढ़ी है। भाजपा अभी धार्मिक आईडेंटिटी का सहारा लिए हुए है। धार्मिक आईडेंटिटी से हटकर जाति आईडेंटिटी की बात प्रारम्भ हो गई तो भाजपा को नुकसान हो सकता है, वह पिछड़ सकती है।
यद्यपि अब भाजपा भी धार्मिक आईडेंटिटी के सहारे के साथ जाति आईडेंटिटी की ओर अग्रसर हो रही है। उसने चतुर राजनीति से राजनैतिक भागेदारी देकर ओबीसी में पकड़ बनाई है। भाजपा की मूल आईडेंटिटी तो ऊंची जाति, पूंजीपतियों, बनियों, ब्राह्मणों की पार्टी का है। जाति जनगणना से जो कुछ आंकड़े बगैरह निकल कर आयेंगे तो वह आईडेंटिटी की लड़ाई हो जायेगी। भाजपा ने कई पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों को राजनैतिक व वोटों के कारण भागेदारी के नाम उनके कुछ नेताओं को पद बगैरह दिये हैं, मग रवह शिक्षा, रोजगार, नौकरी बगैरह देने जैसी मांगों पर कुछ नहीं कर पाई। सरकारी नौकरियों और पदों में काफी कम प्रतिनिधित्व से पिछड़ी जातियों के पढ़े लिखे वर्ग में निराशा का माहौल है।
आरक्षण की मौजूदा स्थिति 1 जनवरी 2021 तक केन्द्र सरकार के 72 मंत्रालयों/विभागों में कार्यरत एसीसी, एसटी और ओबीसी अधिकारियों/कर्मचारियों के विवरण के अनुसार ‘‘क’’ वर्ग में 16.55 प्रतिशत, ‘‘ख’’ वर्ग में 16.68 प्रतिशत, ‘‘ग’’ वर्ग में 22.95 प्रतिशत है। पिछड़ा वर्गो का कोटा ही कभी पूरा नहीं हुआ जबकि मण्डल रिपोर्ट के अनुसार उनकी जनसंख्या 53 प्रतिशत व आरक्षण 27 प्रतिशत या एसी, एसटी जातियों की संख्या को देखते हुए 27 प्रतिशत से भी कम है।
भाजपा सरकार का निजीकरण पर जोर है, उससे आरक्षण की व्यवस्था बेमानी होने जा रही है। बढ़ती मंहगाई, बेरोजगारी जैसी परेशानियां भी ऐंटीइनकंबैसी का कारण बनेगी। क्रोनी कैपटलिज्म और अडाणी, अम्बानी जैसे कुछेक कारोबारी घराने का भारी शह देने से भी जनसाधारण में छबी इन्टी ओबीसी, एससी, एसटी की बन रही है। जातिवाद अब आरक्षण को लेकर मौजूद है। लोगों का यही ख्याल होता है कि संविधान में दलितों और आदिवासियों के लिए कुछ ही बरस के लिए आरक्षण का प्रावधान था जिसे लगातार बढ़ाया जा रहा है। कमण्डल की राजनीति के मुकाबले मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किये जाने की घोषणा की तारीख से अपनी-अपनी जातियां भूलकर एक होने की कोशीश कर रहा भारतीय समाज आरक्षण के लिए व राजनैतिक लाभ के लिए जातियों में विभाजित हो गया, एक दूसरे का कुल नाम पूछने लगा।
आरक्षण को व्यर्थ बताने व बनाने के उपाय भी प्रारम्भ हो गये। जाति प्रभा के विरूद्ध किसी निर्णायक लड़ाई में आरक्षण की भूमिका अपरिहार्य रहती है। सामाजिक बराबरी के लिए जातियों में रोटी बेटी का रिश्ता जोड़ने की जरूरत बताने वाले डाॅ. राममनोहर लोहिया ने भी ‘‘पिछड़ा पावें सौ में साठ’’ का नारा दिया था। काका कालेलकर की रिपोर्ट में भी जातियों की संख्या हजारों में आई। आरक्षण पर जाति का जोर दिया। केवल वर्तमान स्थिति का भान करते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने पिछड़ा वर्ग की केन्द्रीय सूची बनाना उपयुक्त नहीं समझा और इसमें निर्धनता और गरीबी को महत्व देने की बात कही। उच्च्तम न्यायालय ने आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत रखने की बात कहीं जो अब भुला दी गई। पिछड़ा वर्ग लिस्टों का रिवीजन प्रत्येक दस साल बाद करने व लगातार लिस्टों से हटाने/जोड़ने को परमानेन्ट आयोग स्थापित किये गये परन्तु इन सब बातों को भुला दिया गया।
जातिवाद आज चरम पर है, समाप्त करने की प्रक्रिया व सोच समाप्त हो चुकी है। जातिवाद की भीषणताओं, उसके विरूद्ध संघर्ष की जटिलताओं और आरक्षण की अपरिहार्यताओं को देखते हुए एक सुविचारित सिद्धान्त व नीति अपनाने के लिए कम्यूनल ऐजेन्डे से हटकर जातिय जनगणना आवश्यक है जिससे आरक्षण में आई विसंगतियां दूर हो सके व सामाजिक सद्भाव पैदा हो, शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक नीतियां बनाई जा सके। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)