तुम न समझे हो कभी : विजया

लेखिका : 'विजया'

विजय लक्ष्मी जांगिड़ जयपुर 

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मौन रहकर जो सही

मैने विरह की वेदना

तुम न समझे हो कभी

मेरी अमित संवेदना।

तप्त हृदय की शुष्क धरा पर

मेघ बनकर,जो  बरसते

तो ना ये चातक नयन बन

 दरस को यूं फिर तरसते।


हो सका ना मिलन अपना

अपनी इस वसुंधरा पर

ग्रंथ के पृष्ठों पर  मिलेंगे

बन प्रीत की विवेचना।

तुम न समझे हो कभी

मेरी अमित संवेदना।