भयावह होते जा रहे जलवायु परिवर्तन के खतरे : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक पर्यावरणविद एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं 

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मौजूदा हालात गवाह हैं कि जलवायु परिवर्तन के खतरे दिन ब दिन भयावह होते जा रहे हैं। जहां समूची दुनिया में लाख कोशिशों के बावजूद बीते साल कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन सर्वाधिक रहा, उसने कीर्तिमान बनाया। उस स्थिति में जबकि बीते बरसों में वैश्विक स्तर पर कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन को रोकने के प्रयासों में पवन और सौर ऊर्जा के साथ साथ ही इलैक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल में खासी बढ़ोतरी दर्ज की गयी है और सौर ऊर्जा तथा इलैक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल ने कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन में कमी लाने में काफी योगदान दिया है। इन सब कोशिशों और अक्षय स्रोतों में बढ़ोतरी के बावजूद बीते साल कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन 0.9 प्रतिशत बढ़कर रिकार्ड 36.8 अरब टन हो गया जो कि तीन चौथाई से भी ज्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। दरअसल दुनिया में जीवाश्म ईंधन से बढ़ता उत्सर्जन जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है। 

इसके पीछे हवाई यात्रा में और गैस की कमी से कोयले के इस्तेमाल में हो रही बढो़तरी को नकारा नहीं जा सकता जो एक अहम वजह है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। गौरतलब है कि कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन में बढ़ोतरी के लिए तेल का योगदान सबसे अधिक माना जाता रहा है और हकीकत में यह सच भी है। इसमें हुयी 2.5 फीसदी की बढ़ोतरी में लगभग आधी बढ़ोतरी हवाई यात्रा में हुयी बढ़ोतरी के कारण है। पिछले साल सख्त कोविड नियमों के कारण चीन का कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन गिर गया था लेकिन इसके विपरीत दूसरी अन्य उभरती और एशियाई विकासशील अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास के कारण इसके उत्सर्जन में 4.2 फीसदी की बढ़ोतरी हुयी। 

यहां इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि यह स्वच्छ ऊर्जा के इस्तेमाल का ही नतीजा है कि जिसके कारण कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन पर अंकुश लगा वरना यह लगभग तीन गुणे से भी ज्यादा होता। आंकड़े और अध्ययन प्रमाण हैं कि कोयले के इस्तेमाल से कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन बीते साल यानी 2022 में 1.6 फीसदी बढा़। इसमें रूस-यूक्रेन युद्ध के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। रूस-यूक्रेन युद्ध और रूसी गैस की आपूर्ति में आयी भीषण कमी के कारण बहुतेरे यूरोपीय देशों ने भी ऐसे ईंधन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और तो और गैस की कीमतों में आयी बढ़ोतरी के कारण बहुतेरे एशियाई देशों ने भी यूरोपीय देशों का अनुसरण करना शुरू कर दिया था जिसका परिणाम हम सबके सामने है। 

जलवायु परिवर्तन से जहां कृषि, खाद्यान्न, सूखा, पानी और इंसान के जीने के लाले पड़ने और भीषण आपदाओं का अंदेशा है ।और तो और दुनिया के वैज्ञानिक इसके संकेत सालों से दे रहे हैं, लेकिन मौजूदा हालात गवाह हैं कि अब नदियां भी सूखने लगी हैं। इटली की सबसे बड़ी नदी 'पो' इसकी जीती जाती मिसाल है जो लगातार सूखती जा रही है। असलियत यह है कि 652 किलोमीटर लम्बी इस नदी के लगभग 75 फीसदी हिस्से से पानी खत्म हो चुका है। अब उसमें केवल एक तिहाई ही बहाव बचा है। इसका एक अहम कारण आल्प्स के पहाडों पर बर्फ का न होना है। 

यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है जिसके चलते इंसान और जानवरों के बीच जीवन की जंग तेज हो गयी है। तापमान में बढ़ोतरी, उसमें आ रहा तेजी से बदलाव और वर्षा चक्र में असंतुलन ने इंसान और जानवरों के बीच के संघर्ष को तकरीबन 80 फीसदी बढ़ाने का काम किया है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के शोध- अध्ययनों ने इस तथ्य को प्रमाणित किया है। अध्ययन सबूत हैं कि इंसानों और जानवरों के बीच संघर्ष में इंसान की मौत और चोट लगने की दर 43 फीसदी तक पहुंच गयी है जबकि जानवरों में चोट लगने और उससे मौत की दर 45 फीसदी है। अपने 30 साल के अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया है कि बीते 10 साल में इंसानऔर जानवरों के बीच संघर्ष के मामले पिछले दो दशक के मुकाबले चार गुणा तक बढ़ गये हैं। यह बेहद चिंतनीय है। यह संघर्ष मैदानी इलाकों, जंगलों तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि अब यह समुद्री जीवों और इंसानों में भी तेजी से बढ़ रहा है। 

समुद्र में जहाजों की बेतहाशा तादाद ने जहाजों और व्हेल के संघर्ष को बढ़ाने में अहम भूमिका निबाही है। देखा गया है कि समुद्र में व्हेल बडे़-बडे़ जहाजों को टक्कर मार रही है और यह अब आये दिन की बात हो गयी है। समुद्र में बढ़ती हलचल और गर्मी इसका अहम कारण है। तंजानिया में तो सूखा होने के कारण वहां पानी और खाने की तलाश में हाथी उग्र हो रहे हैं। तस्करों के कारण भी जानवर- इंसान का संघर्ष बढ़ रहा है। फिर असल में जो सबसे बड़ा कारण है वह यह कि जानवर तेजी से हो रहे इस बदलाव को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। देखा जा रहा है कि अब हाथी ही नहीं, दूसरे जानवरों का इंसानों से संघर्ष की घटनाएं अब पहले से ज्यादा बढी़  हैं जबकि अफ्रीकी हों या फिर एशियाई हाथियों द्वारा फसलों की बर्बादी आम बात है। इसमें अफ्रीकी हाथी तो सबसे आगे हैं। इस मामले में वैज्ञानिकों ने इंसान और जानवरों के बीच हुए 49 संघर्षों का अध्ययन किया। 

उसमें उन्होंने जंगलों से लेकर महासागर में दो समूहों के बीच की जंग का विश्लेषण किया है जिसमें मछली, सांप, हाथी, पक्षी आदि के बीच जारी लड़ाई को प्रमुखता दी है। इसका अहम कारण जलवायु परिवर्तन के चलते हर जीव का जीवन प्रभावित होना, खाने और पीने के पानी के बढ़ते संकट के कारण दोनों के बीच टकराव में बढ़ोतरी और जंगलों में इंसान का बढ़ता हस्तक्षेप कहें या घुसपैठ जिससे जीवों के आवास स्थलों की बरबादी अहम है। हमारे देश की स्थिति भी भिन्न नहीं  है। यहां 2018 से 2021 यानी चार सालों में 222 हाथियों की मौत हुयी। 2019 से 2022 के बीच हाथी और इंसान की आमने-सामने की भिड़ंत में 1579 लोगों की मौत हुयी। बीते तीन सालों में देश में 125 बाघ मरे जिनमें अकेले महाराष्ट्र में सर्वाधिक 61 मरे। यह सबूत है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों की जद में इंसान ही नहीं, जानवर भी हैं।

जहां तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का सवाल है। इसमें दो राय नहीं  कि इसके लिए दुनिया के 10 फीसदी सबसे धनी देश सर्वाधिक जिम्मेदार हैं जो 45 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं। जबकि 50 फीसदी लोग जो जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे नतीजों को भुगत रहे हैं, वे ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन के मात्र 15 फीसदी के लिए ही जिम्मेदार हैं। इस असमानता और अन्याय को रोकने के लिए आईपीसीसी ने दुनिया से अपील की है। इस बारे में जहां तक भारत का सवाल है, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जार्जीवा की माने तो उनके अनुसार 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित करने वाला भारत उस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को समय से पहले हासिल कर सकता है। इस दिशा में ऊर्जा के मुख्य स्रोत के रूप में सौर ऊर्जा के उपयोग और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सौर गठबंधन के माध्यम से इसे वैश्विक स्तर तक ले जाने के भारत के प्रयासों से प्रतीत होता है कि भारत जैसा बड़ा देश जलवायु परिवर्तन के संकट से लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहेगा। 

इस बारे में भारत के मानवाधिकार आयोग के प्रमुख न्यायमूर्ति अरुण मिश्र का कहना गौरतलब है कि जलवायु नीतियों और कार्यक्रमों को मानव अधिकारों के मुद्दों के साथ जोड़ना बेहद जरूरी है क्योंकि मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसों की वजह से ही जलवायु परिवर्तन की समस्या हमारे सामने है। इसलिए मानव अधिकारों के बारे में इसमें गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने यह बात दोहा में अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में कहते हुए कहा कि इसी वजह से विस्थापन, संपत्ति का नुकसान, आय और स्वास्थ्य की देखभाल तथा शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं से लोग वंचित रह जाते हैं। उनके अनुसार यह कदापि उचित नहीं है कि विकासशील देशों से भी समान उत्सर्जन मानकों के पालन की उम्मीद की जाये। यह तभी संभव है जबकि वैश्विक समुदाय प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के निर्माण को प्राथमिकता दे। 

असलियत में यह तभी संभव है जबकि मौजूदा संसाधनों का सही रूप से रणनीतिक इस्तेमाल किया जाये तो जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे को काफी कम किया जा सकता है। इसमें नीतिगत अवरोधों को दूर करना बेहद जरूरी है। आईपीसीसी का भी यह मानना है कि यदि मौजूदा नीतिगत बाधाओं को दूर कर दिया जाये तो ग्रीन हाउस गैस को तेजी से कम करने के लिए हमारे पास पर्याप्त पूंजी और संसाधन उपलब्ध हैं। साथ ही जलवायु परिवर्तन के खतरों से होने वाली क्षति की भरपाई के लिए भी आमदनी के नये अवसर कहें या जरिये तलाशने के लिए वैश्विक भूमिका निर्वहन की दिशा में जी-20 के अध्यक्ष भारत से काफी उम्मीदें हैं। यह भविष्य के गर्भ में है कि भारत इस भूमिका में कहां तक सफल होता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)