आरक्षण में ये कैसा उबाल : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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स्वतंत्रता, समता, मानव-मानव के बीच शुभ संबंध, सामाजिक मानववाद की आधारशिलाएं है। सामाजिक असमानता, अशान्ति, गरीबी, पिछडेपन की जननी है। भारत में निषेधो व निर्योग्यताओं के चलते दलितो, जनजातियां, पिछडो को विकास की कमी, सामाजिक असमानता, गरीबी व शोषण के बीच रहना पडा। संविधान निर्माण के समय ‘‘हितकर भेदभाव’’ की नीति (आरक्षण व्यवस्था) दलितों, वनवासियों, पिछडों को सामाजिक रुप से समानता के स्तर पर लाने के लिए की गई थी। यह स्वीकार किया गया था कि समाज का एक बड़ा भाग यदि पिछडा रह जायेगा तो भारतीय समाज का विकास संपूर्ण नही हो पायेगा, जो विषम विकास होगा उससे भारत को आगे नही ले जाया जा सकेगा।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत रखी गई तथा अल्पसंख्यक वर्ग, रंगराजन व सच्चर आयोग की सिफारिशों के अनुरुप सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ापन, गरीबी व सरकारी सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को देखते हुये पृथक से आरक्षण की मांग कर रहे है। कुछ कृषक जातियां पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित होने के लिए व कुछ जातियां अति पिछड़ा घोषित करने के लिए व सवर्ण जातियां आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करने की मांग कर रहे है।

राजस्थान सरकार ने पृथक से अति पिछड़ा वर्ग सूची व आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने का बिल विधानसभा से पास कराकर आरक्षण 64 प्रतिशत कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया। राष्ट्र की मजबूती के लिए अत्यंत आवश्यक है कि उसका हर अंग मजबूत हो, उसमें गहरी एकता व समानता हो। आरक्षण दलित वर्ग, जनजातियों, सामाजिक पिछड़े व भारत के सर्वहारा वर्ग को बदलने का, उनके विकास का एक जरिया है।

इस समय देश में 16.23 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 8.16 प्रतिशत अनुसुचित जनजाति है। लगभग 54 प्रतिशत पिछड़े वर्ग है जिसमें अल्पसंख्यकों का भी बडा तकबा है। अनुसूचित जाति के 26.25 प्रतिशत लोग ग्रामीण इलाकों में और 38.47 प्रतिशत शहरी इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे है। अनुसूचित जनजाति के 45.86 प्रतिशत लोग ग्रामीण इलाकों में और 34.75 प्रतिशत शहरी इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे है। उनके लिए नगरीय स्तर पर शिक्षण संस्थानों में 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति व 7.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण है, 27 प्रतिशत आरक्षण हिन्दू व गैर हिन्दू अन्य पिछड़ा वर्ग का है। आरक्षण का कुल अनुपात 49.50 तक था।

निषेधों व निर्योग्यताओं के चलते इन वर्गाे को सम्मानजनक स्थान नहीं मिला। शिक्षा प्रणाली भी तर्कसंगत नहीं रही। आर्थिक विकास असमान रहा है। शिक्षा रोजगारोपरक नहीं रही। पिछड़ों की दस्तकारी, शिल्पकारी व हस्तकला को आगे बढ़ाने की कोशीश नहीं हुई। भारत में 12 से 15 फीसदी तक लोग दस्तकारी से रोजगार पाते थे, उनकी संख्या लगातार घट रही है, दस्तकारी को शिक्षा व बेहतर तकनीक से नहीं जोड़ा गया। पिछडे वर्गाे की सूची में आने वाली लगभग समस्त जातियां भारत की परम्परागत ग्रामीण कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था में सर्विस सेक्टर की भूमिका निभाती रही है।

आरक्षण का प्रावधान करते समय सामाजिक पिछड़ापन ही संविधान निर्माताओं के मन में था। आर्थिक आधार पर सवर्णो को आरक्षण देना संविधान की मूल भावना व उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के खिलाफ है। आरक्षण आर्थिक आधार पर देखना दृष्टिदोष है। राजनैतिक पार्टियां मात्र घोषणाएं कर, आम लोगों को अपने स्वार्थ के अनुसार भ्रमित कर राजनैतिक लाभ लेने की फिराक में है जबकि उच्चतम न्यायालय स्पष्ट कर चुका है मात्र आय व सम्पत्ति के आधार पर आरक्षण संभव नहीं है।

भूमि सुधारों से कुछ वर्गो की जमीनी शक्ति व राजनैतिक शक्ति बढ़ी है। वे ही अब नौकरियो के लिए भी दबाब बना रहे है। आरक्षण को राजनैतिक चशमें से देखा जा रहा है। अब यह एक ऐसा मसला बन गया है जिसके खिलाफ राजनेता, जनप्रतिनिधि व राजनैतिक पार्टियां राजनैतिक आधार पर पिछड़ा वर्ग सूची में नाम जुड़ाने के प्रयास को प्रोत्साहित करते है। इसके फलस्वरूप पिछड़ा वर्ग का आरक्षण एकतरफा होता जा रहा है। आधी से अधिक अत्यधिक पिछड़ों को तो कोई लाभ ही नहीं मिला। आरक्षण में नई मांग कराई जा रही है। जिसे नहीं मिल रहा उसे आरक्षण चाहिए, जिसे मिल रहा है उसे ज्यादा चाहिए। परन्तु आरक्षण व्यवस्था का आधार सम्यक हो, उसका लाभ अन्तज्य तक पहुंचे, यह देखना समाज का कर्तव्य है।

वास्तविक स्थिति यह है कि उनकी सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके आन्दोलनों के आगे सरकार को झुकना पड़ रहा है। राजनैतिक कारणों से ही अधिक संपन्न आरक्षण मांग रहे है परन्तु वर्तमान में आरक्षण की रोशनी आरक्षित वर्ग के सक्षम, शक्तिशाली, संपन्न, तुलनात्मक दृष्टि से अगड़े, जनसंख्या में अधिक लोगों तक ही पहुंच रही है। आरक्षण को राजनैतिक दल एक चुनावी झुंझुना बना रहे है। आरक्षण विरोधी भी चुनावी राजनीति के लिहाज से आरक्षण के पक्ष में बयान दे रहे है।

पिछड़े वर्गो को वित्तीय सहयोग, निःशुल्क पढ़ाई, आवास व्यवस्था, छात्रवृति आदि नहीं मिल रही है। निम्न वर्गो के लड़को का आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा है। दलितों को भूमि मिलने के बजाय छीनी गई। दलितों पर अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। आजादी के 68 वर्ष बाद भी ज्यादातर दलित वर्ग व अत्यधिक पिछड़े वर्गो को राजकीय क्षेत्र, निजी क्षेत्र, व्यापारिक क्षेत्र व सार्वजनिक क्षेत्र में हिस्सेदारी नहीं है, उनको प्रतिष्ठित नौकरी व स्थान नहीं मिल पा रहा है। पिछड़ो को मुफ्त शिक्षा, स्कालरशिफ, छात्रों को निःशुल्क आवास उपलब्ध नहीं कराये जा रहे, उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार नहीं कराया जा रहा।

संविधान निर्माताओं की मंशा व इरादा स्थाई रूप से आरक्षण की वैशाखी थमाने का नहीं था। आरक्षण समाज के निम्न तबके को उपर उठाने का एक साधन है, साध्य नहीं है। इनमें अब कुछ जातियां व परिवार आरक्षण का लाभ प्राप्त कर संपन्न, शिक्षित, समृद्ध व उन्नत हो गये है। जिन्होंने एक बार आरक्षण का लाभ लेकर अपने को सभ्य व समृद्ध बना लिया है, शहर के महंगे इलाके के निवासी बन गये, परिवार का प्रत्येक सदस्य गाड़ी से बाहर निकलता है, जिनके बच्चों के लिए अध्ययन संस्थानों की कोई कमी नहीं है, वे भी आरक्षण की चाह कर रहे है। इस प्रकार महलों में रहने वाले दलित व पिछड़ी जाति के नुमाइंदे झोपड़ी में रहने वाले अपने ही वर्ग के दलित व पिछड़ों के हक की रोटी छीनकर खा रहे है। उन्हें आरक्षण का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि उच्च स्तर के अधिकारी व आयकर देने वाले परिवार को आरक्षण का लाभ नहीं मिले। विधायक या संसद सदस्य के परिवार को आरक्षण का लाभ नहीं मिले। दलित व पिछड़े वर्गो में पिछड़े व अति पिछड़े वर्गो का बंटवारा नहीं हुआ। दलित व पिछड़े वर्गो में ताकतवर का जोर बढ़ा है। समतापूर्ण भारत का निर्माण नहीं हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो ताकतवर होगा उसे ही आरक्षण मिलेगा।

आरक्षण में उत्पन्न हुई विकृतियों व विसंगतियों को दूर करने हेतु दलित व पिछड़ों की लिस्टों का रिवीजन व सर्वेक्षण कर समाप्त करना होगा। राजनैतिक दबाब के आगे झुकना बंद करना होगा। क्रीमीलेयर के प्रावधान का सख्ती से पालन करना होगा। संवैधानिक अधिकार आन्दोलनों से तय नहीं होते, स्पष्ट करना होगा, संविधान के प्रावधान व न्यायिक पद्धति से तय होते है इस पर दृढ़ रहना होगा। सरकारों को इस बात पर गंभीरता से विचार करना पड़ेगा कि आरक्षण देने की जो मूल भावना है, वह तिरोहित नहीं हो। जो निम्न वर्ग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े है, उन्हें इसकी आज भी जरूरत है। उन्हें ही लाभ मिले।

जो समाज अधिक मुखर है, उनको आरक्षण देने के संबंध में चुनावी घोषणा व वायदा कर, उन लोगों के आगे घुटने टेककर उच्चतम न्यायालय के निर्णयों प निर्देशों का अनादर कर, सक्षम, संपन्न, शक्तिशाली व उन्नत वर्गो को आरक्षण देना समस्त आरक्षित वर्ग दबे कुचले वंचित, शोषित समुदायों के लिए नुकसानदायक व अन्यायपूर्ण है। असमानता कम नहीं होगी, असन्तोष बढ़ेगा, अशांति पैदा होगी, विघटन होगा, स्वतंत्रता के लिए हितकर नहीं होगा। सरकार को इसलिए सभी वर्गो के आरक्षण में क्रीमिलेयर सख्ती से लागू करना होगा। जो लाभ प्राप्त कर उन्नत हो गये, उन्हें बाहर करना होगा। लिस्टों का रिविजन करना होगा। पिछड़े, अति पिछड़े, दलित अति दलित का न्यायपूर्ण वर्गीकरण करना होगा अन्यथा विषमता घटने के बजाय बढ़ेगी, व्यक्तिवाद व असंतुलन बढ़ेगा और निम्न समाज के हितों पर कुठाराघात होगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)